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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....


भारतीय चिंतन में ब्रह्मा व रुद्र को जहाँ सृष्टि-स्थिति-लय के कारणभूत त्रिदेवों के अंतर्गत रखा गया है, वहीं पौराणिक मान्यताओं में प्रथम ज्ञात-अमैथुनीय पुरुष को 'ब्रह्मा' के नाम से तथा मैथुनी प्रक्रिया के आविष्कारक के रूप में 'रुद्र' को स्वीकारा गया है। चूँकि मानवों से संबंधित विगतकालीन घटनाओं के लेखा-जोखा को सामान्यतः 'इतिहास' की संज्ञा से उद्बोधित किया जाता है, अतः मानवी-इतिहास का शुभारंभ भी ब्रह्मा व रुद्र के मानुषी स्वरूपों के प्राकट्य काल से ही निर्धारित किया जा सकता है। वैज्ञानिक अनुसंधानों व पुरातात्त्विक सर्वेक्षणों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि धरती पर मानवों का अस्तित्व लाखों वर्ष पुराना है और इस दृष्टि से भी मानवों का इतिहास इसी के समीचीन ही प्रमाणित होता है। इन अकाट्य तथ्यों के उपरांत पश्चिमी एशिया से प्रसूत हुए नवोदित पंथों की वर्चस्ववादी हटधर्मिताओं की कोख से पल्लवित हुई मानसिकताओं ने इतिहास के कालखंडों को अपनी मान्यताओं की अनुरूप ही परिभाषित करना प्रारंभ कर दिया। फलतः तिथि-क्रम के आधार पर इतिहास लिखने की पश्चिमी परिपाटी ने एक निश्चित बिंदु से पूर्व के सभी घटनाक्रमों को काल्पनिक या गप मानकर अस्वीकार कर दिया। इस प्रकार मूल स्रोत से विरल हुई इतिहास की यह निर्मल धारा मानवीयता को पुष्ट करने के बजाय पंथगत भ्रांतियों के प्रदूषण से युक्त होकर अंततः व्याधिकारक ही बनकर रह गई। किंचित् इतिहास की इसी खंडात्मक व्याख्या के कारण ही विश्वबंधुत्व की सार्वभौमिकता को तिलांजलि देकर आज का समाज एक-दूसरे को पराभूत करने की अंतहीन स्पर्धाओं तथा अतीत की क्षेत्रीय ग्रंथियों से ग्रसित होकर आधुनिक पीढ़ियों से प्रतिशोध लेने में अधिक व्यस्त व आतुर दिखता है। कश्मीरी कवि कल्हण की ‘राजतरंगिणी', गुजराती सोमेश्वर की 'कीर्ति कौमुदी', सिंध की 'चचनामा', असन की 'बुरुंजी', मिथिला की 'पंजिका', दक्षिण-भारत की 'नन्दिक्कलम्बकम्' या 'कलिंगत्तुपर्णि' व चरित-अनुचरितों के अपवादों को यदि छोड़ दिया जाए तो भारतीय-दृष्टि में इतिहास मात्र साम्राज्यों व सम्राटों के उत्थान-पतन की गाथा या तिथिक्रमों का ब्योरा नहीं बल्कि मानवीय मूल्यों को अक्षुण्ण बचाए रखने की वह सतत विधा रही थी, जिसके माध्यम से वर्तमान का आकलन व भविष्य का निर्धारण किया जा सकता है। व्यावहारिक दृष्टि से भी सृष्टि प्रारंभ से लेकर अब तक की सभी वृत्तियों को तिथिक्रम के उबाऊ व असाध्य बंधनों में आबद्ध कर ग्रंथों के ढेर बनाने की अपेक्षा कालानुरूप इनके सारतत्त्वों को संक्षिप्त रूप में समेटकर सुरक्षित तथा पठनीय बनाए रखा जा सकता था। संभवतः अपनी इस अनूठी शैली के कारण भारतीय इतिहास का यह सर्वांगीण स्वरूप पाश्चात्य मानदंडों के सीमित आयतन में समा नहीं पाया, फलतः यह मान लिया गया कि अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारतीयों की ऐतिहासिक समझ बचकानी ही रही थी।

प्रस्तुत अध्याय में भारत में प्रचलित रही इतिहास संबंधी प्राचीन परंपराओं के साथ-साथ पाश्चात्य जगत् में उदित हुई ऐतिहासिक संकल्पनाओं के कुछ आधारभूत बिंदुओं पर चर्चा व आधुनिक परिप्रेक्ष्य में इतिहास की सम्यक् व्याख्या के लिए आवश्यक दृष्टिकोणों को उजागर करने का प्रयत्न किया गया है।

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