भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
पितर या ब्रह्मा के मानस-पुत्र
प्रथम ज्ञात पुरुष ब्रह्मा व उनके समकालिक रुद्र की ही भाँति सनकादि-नारद आदि
वीतरागी मुनिगण, मरीचि-पुलस्त्य आदि महर्षिगण व भृगु-वसिष्ठ आदि ऋषिगण भी
अमैथुनीय सृष्टि के घटक रहे थे, किंतु ब्रह्मा द्वारा संस्कारित होने के कारण
जन-समुदाय में इनकी पहचान उस आदि-पुरुष के मानस-पुत्रों के रूप में ही
स्थापित हुई। चूँकि अमैथुनीय मानवी उत्पत्ति अंतरिक्ष में संयोगवश घटे एक
प्राकृतिक संघात का ही परिणाम रहा था, अतः मानवी प्रजनन को नियमित गति देने
के लिए अमैथुनीय स्त्री-पुरुषों को रुद्र द्वारा प्रतिपादित मैथुनीय
सिद्धांतों के प्रयोगों द्वारा संतान-उत्पत्ति का बोध कराना ब्रह्मा ने
आवश्यक समझा। ब्रह्मा के इस मंतव्य को भाँपते हुए उनके मानस-पूत्रों ने अपनी
संबंधित सहगामिनियों से संसर्ग स्थापित करते हुए संतान उत्पन्न करके मैथुनीय
मानव सृष्टि का अभिनव दृष्टांत प्रस्तुत किया। मानस-पुत्रों के इन प्रयोगों
का अनुकरण करते हुए अन्य अमैथुनीय मानवों ने भी मैथुनीय संतानों का प्रजनन
करके धीरे-धीरे अपने वंशों का विस्तार करना प्रारंभ कर दिया। इस तरह काल के
उस खंड में धरती पर प्रकट हुए सभी वंशकारक अमैथुनीय मानव ही तदनंतर अस्तित्व
में आए विभिन्न आदिम-मानव प्रजातियों के मूल-पूर्वज या आद्य-पितर हुए।
ब्रह्मा के मूल पुरुष के भाव तथा रुद्र द्वारा स्थापित किए गए ‘सत्यं शिवं
सुन्दरम्' के अलौकिक दर्शन ने जहाँ इनके शाश्वत स्वरूपों को जन-मानस के अंतस्
में आज तक यथावत् सँजोए रखा है, वहीं मानस-पुत्रों तथा उनके उत्तराधिकारियों
की शृंखलाएँ भी उनके द्वारा संपादित विशिष्ट कार्य प्रणालियों के माध्यम से
बहुत काल तक ऐतिहासिक पटल पर दृश्यमान रही थीं। कालांतर में विकसित हुई नई
जातियों के बढ़ते वर्चस्व तथा आद्य व परवर्ती ऋषियों के नामों में आई एकरूपता
के कारण हुई अंतर्भुक्तियों ने शनैः-शनैः इन मानस-पुत्रों के वंशक्रम के
स्वतंत्र अस्तित्व को ही निगल लिया। नई उभरी जातियों ने तो अपने से पूर्व की
पीढ़ियों को सामूहिक रूप से पितर-जाति में परिभाषित करते हुए, उनके
विकास-क्रम पर एक तरह से रोक ही लगा दी। उपरांत इन सभी अवरोधों के, सप्तऋषि
जैसे आद्य पितरगणों के अलावा अग्निष्वात्, सौम्य वर्हिषद, आतर्व, अष्टवापित,
पंचवार व द्यौस जैसे कुछ मूर्धन्य पितरों की गरिमाएँ परवर्ती जातियों में
मात्र बनी ही नहीं रहीं बल्कि येन-केन-प्रकारेण आधुनिक युग में भी उनकी पहचान
यथावत् बनी हुई है। भारतीय संस्कारों में श्राद्ध आदि कर्म-कांड के माध्यम से
जहाँ इन पितरों को नियमित रूप से स्मरण किया जाता है, वहीं पाश्चात्य विश्व
के धर्मग्रंथों में भी पितर समान रूप से वंदनीय रहे हैं। ग्रीक धर्मग्रंथ में
वर्णित 'जियस पेटर' या फिर लैटिन साहित्य का ‘ज्यू-पिटर' वस्तुतः भारतीय
शास्त्रों में उल्लेखित 'द्यौस-पितर' का ही अपभ्रंश है। पाश्चात्य परिवेश में
मनाए जाने वाले 'फादर्स-डे' की आधुनिक प्रथा इसी से प्रेरित दिखती है।
महाभारत के अनुसार चित्र-शिखंडी यानी सप्तऋषि (आद्य-पितर) सुमेरु पर्वत
क्षेत्र में निवास करते थे, यही कारण है कि भौगोलिक स्थिति के प्रभाव-स्वरूप
पाश्चात्य साहित्य में भी हमें ‘सेविन वाइज मैन ऑफ द वर्ल्ड' का संदर्भ मिल
जाता है, जो संभवतः इन्हीं सप्त ऋषियों (आद्य पितरों) के लिए ही प्रयोग किया
गया प्रतीत होता है।
रुद्र के उपरांत अपने संसर्ग में आए सनक, सनंद, सनातन व सनत कुमार नामधारी
अमैथुनीय मानवों को ब्रह्मा ने अध्यात्म के उच्चतम ज्ञान से अवगत कराया था।
भागवत (3/12/1) के अनुसार भी ब्रह्मा ने सर्वप्रथम सनकादिक नामक जिन चार
ज्ञानियों को उत्पन्न (शिक्षित) किया था, ब्रह्म-ज्ञान से प्रदीप्त होने पर
उन सभी ने निवृत्ति-मार्ग को श्रेयस्कर मानकर मुनिव्रत को अपना लिया था (सनकं
च सनंद च सनातनमथाव्यभूः, सनतकुमारं च मुनीन्निष्क्रियानूवरतसः)। इस प्रकार
ब्रह्मा (आदि-पुरुष) के इन चारों शिष्यों या मानस-पुत्रों के वीतरागी मुनि बन
जाने के कारण इनके वंश-इतिहास अथवा शिष्य परंपरा का कोई स्वरूप उभरकर सामने
नहीं आ पाया। इनके पश्चात् अपने संपर्क में आए मरीचि, अत्रि, अंगिरा,
पुलस्त्य, पुलह, ऋतु व नारद, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष आदि मानस-पुत्रों को ब्रह्मा
ने अन्यान्य विषयों में विज्ञ करने के अतिरिक्त सतर्कतावश सांसारिक
आवश्यकताओं तथा दायित्व के निर्वहण के प्रति भी सचेत किया। भागवत
(3/12/21-22) के संदर्भ भी सनकादिकों के पश्चात् ब्रह्मा द्वारा दस मानस
पुत्रों की उत्पत्ति का संकेत देते हैं (अथामिध्यायतः सर्ग दश पुत्राः
प्रजज्ञिरे भगवच्छक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः मरीचिरत्र्यांगिरसौ पुलस्त्यः
पुलहः ऋतुः भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः)। ब्रह्मा द्वारा दीक्षित
इन सभी मानस-पुत्रों (नारद को छोड़कर) ने मानवी उपयोगिता से संबंधित
कार्यकलापों में संलग्न रहने के साथ-साथ मैथुनी संतानों की उत्पत्ति करते हुए
अपने वंश-वृक्षों का रोपण भी किया। मैथुनी प्रक्रिया द्वारा जनवृद्धि तथा
जैविक उपयोगिता संबंधी अपने विशिष्ट योगदानों के कारण इन मानस-पुत्रों तथा
इनके उत्तराधिकारियों की नामावलियाँ बहुत काल तक मानवी इतिहास के पटल पर छाई
रही थीं। कालगत हुई अंतर्भुक्तियों के उपरांत भी प्राचीन-साहित्यों तथा विविध
पुराणों में वर्णित संदर्भो के आधार पर किए गए यथासंभव समन्वयों द्वारा
ब्रह्मा के मानस-पुत्रों के वंश-वृत्तांत का स्वरूप निम्न प्रकार से उभरता
प्रतीत होता है
मरीचि-ज्ञात मानवी इतिहास की सबसे बृहद् व लंबी वंश-परंपरा ब्रह्मा के इसी
मानस-पुत्र की रही थी। पूर्णमास, पर्वस, कश्यप जैसे आदिम वंशधरों के अलावा
देव, दैत्य, दानव, यक्ष, गंधर्व, किन्नर आदि अति प्राचीन जातियों से लेकर मिन
के नृगृटो, अमेरिका के इंका व मयांस, पश्चिमी एशिया के कुर्द, अमरेह,
पर्शियन, उज्वेग व यूरोप के डच जैसी आधुनिक जातियाँ एवं भारत के प्रसिद्ध
सूर्य, चंद्र व नाग वंश का मूल स्रोत मरीचि कुल ही रहा था। मरीचि का मूल
आश्रम सुमेरु शिखर (काकेशियन रीजन) के समीप स्थित उत्तर-मद्र में रहा था।
मरीचि कुल में उत्पन्न कश्यप के नाम से ही इस क्षेत्र में स्थित एक सागर का
‘कैस्पियन सी' जैसा नामकरण तथा उपर्युक्त सभी प्राचीन जातियों एवं कालांतर
में इनके द्वारा विकसित सुमेरियन, कैल्डियन, वेवोलियन आदि प्राचीन सभ्यताओं
का उद्गम स्थल होने के संदर्भ मरीचि के इस आश्रम को काकेशियन रीजन में होने
का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। आर्यों के मूल पुरुष का क्षेत्र होने के कारण
उत्तर-मद्र को भारतीय पुराणों में जहाँ 'आर्यवीर्यान' कहा गया है, वहीं जेंद
अवेस्ता में इसे 'अरियनेम बेजो' तथा ग्रीक साहित्य में ‘एरियाना' के नाम से
संबोधित किया गया है। भाषा में आई विकृति के प्रभाववश ही इस क्षेत्र को अब
'अजरबेजान' के नाम से जाना जाता है। कदाचित् मरीचि कुल के किसी वंशजों ने
यूरोप के सुदूर पश्चिम में भी अपना आश्रम स्थापित किया होगा। फ्रांस का
'मार्शलीज' नामक नगर कुछ 'मरिचालयस्' जैसे शब्द का ही अपभ्रंश प्रतीत होता
है। स्ट्रैवो नामक प्राचीन ग्रीक लेखक के 'भूगोल' नामक ग्रंथ में उल्लेखित यह
तथ्य कि 'इस नगर में यज्ञ-भूमि होने के खंडहर मिले हैं' स्वतः ही मार्शलीज या
मरिचालयस् की आपसी समानता की पुष्टि करते हैं। फ्रांस के कैथेड्रल नामक
गिरिजाघर की दीवारों पर निर्मित साधु, संन्यासी, देव, मानव, राक्षस आदि की
प्रतिमाएँ तथा पेरिस के नोत्रदाम नामक ईसाई मंदिर की दीवारों पर अंकित चौकोण,
षट्कोण, अष्टकोण आदि वैदिक पूजन यंत्र व मेषादि बारह राशियों के चिह्न एवं
ईसाई पादरियों के पाँव पखारने की प्रथा निश्चित रूप से मरीचि द्वारा स्थापित
परंपरा का ही अस्फुट प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
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