भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
मानवी-सृष्टि की प्रारंभिक वेला में आदि-पुरुष द्वारा जिन अमैथुनीय मानवों को
सर्वप्रथम संस्कारित किया गया, गुरु-शिष्य के नैतिक संबंधों के कारण वे सभी
ब्रह्मा या इस ज्ञात आदि-पुरुष के मानस-पुत्र या मन से स्वीकृत संतान कहलाए।
कालांतर में सप्तऋषि के रूप में विख्यात हुए इन मानस-पुत्रों के दिशा-निर्देश
से ही मानवों की भावी गतिविधियाँ सुनिश्चित हुई थीं, अतः इन्हें ही परवर्ती
समाज ने अपना आद्य-पितर भी माना। Zeu-Peter या Seven Wise men की पाश्चात्य
अवधारणाएँ इन्हीं पितरों या सप्तऋषियों से ही प्रेरित रही हैं।
मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष व नारद के
नाम से विख्यात रहे इन्हीं आद्य-पितरों द्वारा स्थापित आश्रम व्यवस्था के
गर्भ से काकेशियन (कश्यप गोत्रीय), एट्रीयस या एट्रस्कन, अंगिरस या
आर्गिनोरिस, पुलेसाती या पिलेसगियंस (फिर पुलस्तिन या पैलेस्टीनियन), किरात
या क्रीट, गॉथ व गाथिक, गालव या गेलिक, द्रविड़ या डुईड, मग या मेडिज आदि
जातियों का अस्तित्व उभरकर सामने आया था। इन आद्य-ऋषियों के द्वारा विकसित
प्रवरों व गोत्रों की परिपाटी से प्रसूत परंपराओं का तथा उनके द्वारा संपादित
कृतित्वों का इस अध्याय में सविस्तार वर्णन किया गया है।
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