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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....


किंचित् यही सब कारण रहे कि 'भारत को मानवी सभ्यता की जननी' (Ref.-The Story of Civilization by William Durant) मानने की अंतस् चेतना के उपरांत भी पश्चिमी इतिहासज्ञों व उनके भारतीय अनुयायियों के पक्षपाती दृष्टिबोधों ने त्रिवर्ग, आरण्यक, संहिता, ब्राह्मण ग्रंथ, कल्पसूत्र, व्याकरण, रामायण, महाभारत, पुराण, शास्त्र, चरित आदि विविध कृतियों के माध्यम से सूचीबद्ध किए गए कालपरक इतिहास की भारतीय अभिव्यक्ति को इस धृष्ट लांछना के साथ नकार दिया कि 'प्राचीन भारतीयों को इतिहास लिखना ही नहीं आता था' (Ancient Indians had no sense of History writing at all) और 'उनके साहित्य में वर्णित विवरणों की ऐतिहासिकताएँ प्रमाणित नहीं होती हैं' (Since none of Indian text are verfied historically, it may generally be termed as 'Legendry and are obviously stand as 'Mythical'. Ref.-History of Indian Literature by M. Winternitz)।

काट-छाँट की इन सुरुचिपूर्ण सजगताओं से रचा गया 'हिस्ट्री' का यह पश्चिमी दुर्ग, भारत के इलाहाबाद जनपद के जमुनीपुर (फूलपुर तहसील) व प्रतापगढ़ जनपद के महदहा, दमदमा (रानीगंज तहसील) तथा खंभात की खाड़ी से हाल ही में प्राप्त हुए अतीत के कुछ वस्तुपरक साक्ष्यों के बारूद से प्रायः ध्वस्त होते प्रतीत होते हैं। विघटन संकेत प्रणाली (Carbon Dating System) द्वारा किए गए परीक्षणों के अनुसार इलाहाबाद व प्रतापगढ़ जनपदों के इन पुरास्थलों से प्राप्त मानव शवाधान, गर्त-चूल्हे (Pit-hearths) व चाक, सिल-लोढ़े, कुल्हाड़ी, बसूली, खुरपी, छेनी आदि उपकरण तथा घड़े, कटोरे, थाली आदि बरतन जहाँ ई.पू. 17000 से ई.पू. 7000 के सिद्ध हुए हैं, वहीं खंभात की खाड़ी से प्राप्त हुए पुरातत्त्वीय अवशेषों का संबंध ई.पू. 7500 अस्तित्व में रही किसी मानवी सभ्यता से ही स्थापित होता है। पाश्चात्य के सीमित दृक्क्षेपों के सम्मोहन में फँसे आधुनिक इतिहासज्ञों (Historians) के लिए ई.पू. 4004 से भी पुरानी सभ्यता का यह रहस्योद्घाटन आश्चर्यमिश्रित रोमांच का विषय हो सकता है; परंतु प्राच्य विधाओं के मर्मज्ञों के लिए ई.पू. 17000 या ई.पू. 7500 की स्थितियाँ अतीत की एक अति लघु इकाई ही प्रतीत होती हैं। चूँकि देश-काल के हिसाब से पाए गए मर्त्य-साक्ष्यों की जाँच-पड़तालों पर आधारित निष्कर्षों की तुलना में परिवर्धित संस्कृति के अंतस्थलों में छिपे पुराने गुणसूत्रों के जीवंत-साक्ष्य अधिक परिनिष्ठित होते हैं, अतः प्राच्य स्रोतों को काल्पनिकता के दोषों (Mythical stigma) से मढ़ने की अपेक्षा इनके सार सूत्रों के आधार पर ही काल के तथ्यात्मक क्रमों का वैज्ञानिक परीक्षण किया जाना अधिक व्यावहारिक रहेगा। खंभात के आलोक में इतिहास की सम्यक् पवित्रता को स्थापित करने के लिए आधुनिक इतिहासज्ञों के दृष्टि-बोध संबंधी आयतन का आनुपातिक विस्तार अबं अपरिहार्य हो चुका है और इसके लिए पुराण सहित भारतीय वाङ्मय की भूमिकाएँ निर्बाध रूप से दूरवीक्षक यंत्र की भाँति उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं। होमर की दंत कथाओं के आधार पर किए गए उत्खननों द्वारा जिस प्रकार प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् श्लीमान प्राचीन ट्राय नगर व टिरीस नामक राजप्रासाद के अवशेषों को ढूंढ़ निकालने में सफल रहे थे, ठीक उसी प्रकार के कटिबद्ध प्रयासों के द्वारा कोई जीवट पुरातत्त्ववेत्ता रामायण व महाभारत के प्रसंगों को भी विश्व-पटल पर प्रमाणित करने में सफल हो सकेगा। नासा के सैटेलाइट कैमरों द्वारा ढूँढ़ा गया रामकालीन सेतु तथा नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशनोग्राफी के वैज्ञानिकों द्वारा पौराणिक द्वारिका नगरी को ढूँढ़ने के प्रयास इसी दिशा में बढ़ाए गए कदम का एक नमूना मात्र है। आशा है कि आनेवाली पीढ़ियाँ कुछ इसी प्रकार के रचनात्मक प्रयासों द्वारा पुराण वर्णित प्राचीन कड़ियों की प्रामाणिकताओं को सिद्ध करने में सफल हो सकेंगी। सही मायने में 'उतिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत' (कठोपनिषद्, 1/3/14) के महती संकल्प द्वारा इस दिशा में किए जानेवाले निरपेक्ष प्रयासों से ही इतिहास अपने मंतव्य को प्राप्त करने में सफल हो पाएगा।

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