भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
अत्रीय-आट्रीक-एटूस्कन, असुर-असीरियन या असुर-अहुर-अहीर,
यदु-ज्यू-जूदेव-जाडेजा या यादव-यहूदी, आंगिरस- आर्गिनोरिस-अंगोरियन,
मय-मयांस, पौलत्स्य-पुलेसाती-पैलेस्टीनियन, काश्यप-कैस्पेनियन-कॉस्परोव व
द्रविड़-डूईड् आदि की सांस्कृतिक ऋृंखलाएँ इन्हीं जीवंत सूत्रों को इंगित
करती हैं। प्राकृतिक विभीषिकाओं के क्रमानुसार उठापटकों से कई स्तरों पर
चोटिल हुए पाश्चात्य के स्मृति-तंतुओं की क्षमताएँ अतीत के इन
प्रगाढ़-सूत्रों को सँजोकर एकत्रित रख पाने में असमर्थ हो गई थीं। इन
परिणामजनित बिखरावों के फलस्वरूप अतीत के प्रति इनकी संवेद्यताएँ
(Sensibilities) देश-काल के अनुरूप पल्लवित हुए अध्यासों (Illusions) के सघन
झाड़ों में ही उलझती चली गईं। अंततः ज्यूइस एकालापता से सम्मोहित होकर यहाँ
की ऐतिहासिक ग्रंथियाँ काल के एक निश्चित आवरण से आवृत हो गईं। यद्यपि
‘Historica' नामक यूनानी दियासलाई द्वारा प्रज्वलित की गई दीप-शिखाएँ अतीत के
कुछ परिदृश्यों को उजागर करने में सफल रही थीं, तथापि इन दीपों के मंद प्रकाश
ज्यूडो-क्रिश्चियन अवधारणाओं के तमीय आवरण को पूर्णतः भेद पाने में असमर्थ ही
रहे थे। किंचित् शैशवगत संचेतनाओं की इन स्तरीय अनभिज्ञताओं के कारण ही
पूर्व-वृत्तांत की अनबूझ पहेलियों से बचने हेतु हेरोडोटस के अनुगामियों को
अंधकार-युग (Dark-Age), अनैतिहासिक (Nonhistoric) या फिर पूर्वेतिहासिक
(Pre-historic) जैसे भ्रममूलक शब्द-कवचों का आश्रय लेने के लिए विवश होना
पड़ा था। वस्तुतः आधुनिक इतिहासज्ञों (Historians) द्वारा प्रयुक्त किए गए इन
आंग्ल शब्दों का तात्पर्य यूनानी विद्वान् हेरोडोटस की कृति (Historica) से
प्रारंभ हुई पाश्चात्य की लेखन-परंपराओं की परिधि में आए कालखंडों से पूर्व
के वृत्तांतों से ही होता है, अतः प्राच्य के अद्यतन संदर्भो के लिए इनका
प्रयोग अप्रासंगिक सिद्ध होता है। इस सत्यान्वेषी भावनाओं के विपरीत
पाश्चात्यीय प्रवंचनाओं के अतिरेक में Pre-historic शब्द का हिंदी रूपांतर
प्रायः 'प्रागैतिहासिक' कहकर ही किया जाता है, जबकि अर्थभाव के
अनुसार--'इतिहास' का शाब्दिक व नैसर्गिक आशय ‘प्राग्कालीन घटनाओं' से ही
संबंधित होता है। इस प्रकार हिस्ट्री की पाश्चात्य शृंखलाओं से पूर्व के
वृत्तांतों के लिए व्यवहृत प्राच्य का 'प्रागैतिहासिक' संबोधन भाषागत दृष्टि
से दोषपूर्ण ही माना जा सकता है। इतिहास को History का पर्यायवाची मानने की
इन्हीं त्रुटिपूर्ण मानसिकताओं के कारण आधुनिक इतिहासज्ञों (Historians) की
पश्यताएँ भारतीय ग्रंथों में वर्णित पूर्व-पुरुषों के अति पुरातन अस्तित्वों
को दृक्क्षेप नहीं कर पाती हैं, सुतराङ इनकी वस्तुपरक प्राचीनता को स्वपोषित
धुंध (Myth) से आवृत मानकर निरर्थक या फिर NonHistoric (पौराणिक) ही घोषित कर
दिया जाता है।
ईसाई व इसलाम जैसे नवोदित पंथों (Cults) की घर्षणात्मक (Intolerated)
प्रतिद्वंद्विता के लंबे उतार-चढ़ावों के उपरांत चौदहवीं शताब्दी के
पुनर्जागरण अभियानों (Renaissances), सोलहवीं शताब्दी के धर्म-सुधार आंदोलनों
(Reformations) एवं अठारहवीं शताब्दी के वाष्पचालित इंजनों के आविष्कारों से
प्रतिफलित हुई औद्योगिक क्रांतियों (Industrial Revolutions) के
प्रत्युद्यमों ने यूरोप की वर्चस्ववादी अभिलिप्साओं को द्विगुणित कर दिया।
इन्हीं उद्वेगों के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आई औपनिवेशिक विकरालताओं ने
विश्व मानसिकता को समुच्य रूप से पश्चिमी अवधारणाओं का दास बनाकर रख दिया।
पाश्चात्य की इन्हीं प्रगल्भताओं के परिप्रेक्ष्य में किए गए पुरातत्त्वीय
सर्वेक्षणों के आधार पर स्ट्रैबों, ट्वायनवी, टालेमी, प्लायनी, वूली, वेल्स,
हॉल, स्मिथ, वर्न्स, राल्फ, डयुट, चाईल्ड, लर्नर, मैकडॉनल, कीथ, मैक्समूलर,
मार्शल, फ्राडली इत्यादि मूर्धन्य इतिहासज्ञों की श्रृंखलाओं ने ई.पू. 3500
की सुमेरियन सभ्यता को ही ज्ञात मानवी सामाजिकता (Zero hour of Literate
Society) का प्रारंभिक चरण माना (Sometime around 3500 BC the earliest known
civilization in shape of Sumerians was emerged out of Neolithic Culture.
Ref.- World Civilizations, Vol.-A, Chapter-one), जबकि पृथ्वी पर मानवी
सभ्यताओं के विकास का क्रम अंचल विशेष की परिस्थितियों के अनुरूप अनादिकाल से
ही गतिमान है। सन् 1990 में जब अमेरिका की खोज की 500वीं जयंती मनाने पर
यूरोप में विचार चल रहा था तव अमेरिकी मूल के इतिहासज्ञों की यह मार्मिक
टिप्पणी कि उनके लिए यह उत्सव हो सकता है, किंतु हमारे लिए तो यह विषाद का ही
क्षण होगा। कारण-इस दिन से हमारी सदियों पुरानी सभ्यता को नष्ट करने का
प्रयत्न प्रारंभ हुआ था। (It may be a matter of celebrations for Europeans,
but for us it is a matter of mourning because just is few years the
europeans destroyed our civilization developed over several thousands of
years.) स्वतः ही बहुत कुछ उजागर कर देती है। कालगत वास्तविकताओं को नेपथ्य
में ढकेलते हुए अपने पूर्वग्रहों के अनुरूप एकत्रित किए गए पुरातत्त्वीय
साक्ष्यों के आधार पर काल के इसी स्वपोषित बिंदु से आगे बढ़ते हुए आधुनिक
इतिहासज्ञों की टोलियों ने बेबीलोनियन व असीरियन आदि के क्रम में मिस्र की
सभ्यता (Egyptian Civilization) को ई. पू. 3400, यूनान की सभ्यता (Greek
Civilization) को ई.पू. 3000, हड़प्पा की सभ्यता (Indus Valley Civilization)
को ई.पू. 2500, पारसिक सभ्यता (Chaldean Civilization) को ई.पू. 2000,
यहूदियों की सभ्यता (Hebrew Civilization) को ई.पू. 1900, मध्य-अमेरिका की
सभ्यता (Mayan Civilization) को ई.पू. 1500, चीन की सांस्कृतिक सभ्यता (Shang
Dynasty) को ई.पू. 1400, अफ्रीका की सभ्यता (Kushitic Civilization) को ई.पू.
1000, प्राचीन इटली की सभ्यता (Etruscan Civilization) को ई.पू. 800 तथा रोमन
सभ्यता (Roman Civilization) को ई.पू. 625 के अनुमानित कालखंडों में निरूपित
करते हुए मानव सभ्यता के प्रकारांतर विकास को बाइबिल (जेनेसिस) में उल्लिखित
ई.पू. 4004 की सीमा-रेखा के अंदर ही रेखांकित करने का प्रयास किया। पश्चिम के
इस जीरो-ऑवर की मान्य धारणाओं के विपरीत फ्रांस स्थित लुसाक (Lussac) की
गुफाओं में आठ से दस हजार वर्ष पूर्व उत्कीर्ण की गई आकर्षक वेश-भूषावाली
मानव-आकृतियों तथा मोरक्को में प्राप्त पंद्रह हजार वर्ष पुराने मानवी कंकाल
के साक्ष्यों को पुरातन सभ्यताओं की एक कड़ी के रूप में उद्धृत किया जा सकता
है।
आल्प्स व कार्पेथियन पर्वतांचल के मध्य स्थित डेन्यूव नदी के डेल्टाई भाग पर
पाए गए 8000 वर्ष पुराने वृद्ध मानव के शीलीभूत (Frozen) शरीर पर किए गए
अध्ययनों के परिप्रेक्ष्य में अमेरिकन शोधकी प्रो. मारिया जिमबुट्स ने भी यही
प्रमाणित किया है कि समेरियन सभ्यता से भी हजारों वर्ष पूर्व अर्थात ई.पू.
6500 के आस-पास यूरोप के इस भाग में कार्पथो-डेन्यूवियन नामक अति उन्नत
सभ्यता विद्यमान रही थी (A Cultural entity namelv as Carpatho-Danubian
Civilization flourished in European heart-land dated well before the
Sumerian existance ie 6500 BC and even earlier to it.-Maria Gimbutas,
Prof. of UCLA)। किंतु सावन के अंधे (Jaundiced Eyc) की भाँति अपने परंपरागत
मंतव्यों को यथावत् बनाए रखने की उत्कंठाओं में आधुनिक इतिहासज्ञों पर दूजा
रंग किंचित् चढ़ ही नहीं पाता है, फलतः देश-काल के हिसाब से उद्घाटित किए गए
अतीत के वस्तुपरक तथ्यों को येन-केन-प्रकारेण प्रचलित मान्यताओं के खद्योतीय
चकाचौंध द्वारा उपेक्षित कर दिया जाता है।
सन् 1784 में भारत के वंग प्रांत में एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना के पश्चात्
संस्कृत वाङ्मय का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद की प्रक्रिया प्रारंभ हुई।
वैचारिक भिन्नताओं के कारण आए अनुवादगत दोषों के उपरांत भी भारतीय चिंतन से
अभिभूत हुए पश्चिमी जगत् को ब्रह्मांड व मानवता से संबंधित अपने आकलन ही
बचकाने प्रतीत नहीं हुए बल्कि बाइबिल (जेनेसिस) के प्रति सहस्राब्दियों की
उनकी आस्थाएँ भी डगमगाने लगीं। सर विलियम जोन्स ने इसी आशंका को रेखांकित
करते हुए सन् 1788 में यह लिखा कि "Some intelligent and virtuous persons
are inclined to doubt the authenticity of the accounts delivered by Moses
in terms of Indian literatures. Thus, either the first eleven chapters of
Genesis are true or the whole fabric of our national religion is false, a
conclusion which none of us, I trust, would wish to be drawn." इस स्थिति
से निजात पाने के लिए ईसाइयत के पुरोधाओं ने भारत के ऐतिहासिक स्वरूप को
विकृत करने तथा उन्हें अपने अनुकूल परिभाषित करने के उद्देश्य से मोनियर
विलियम्स, अलबर्ट वैबर, मैक्समूलर, विन्सेंट स्मिथ जैसे अनेकों विद्वानों की
सेवाएँ लीं। पूर्वग्रहों से ग्रसित इन विद्वानों की टोली ने बड़ी ही चतुराई
से यहाँ की प्रतिष्टित जाति (आर्य) को विदेशी आक्रांता घोषित करते हुए भारतीय
ज्ञान-विज्ञान के स्वर्णिम खंड यानी ऋग्वैदिक काल को ई.पू. 1500 के लगभग का
ठहरा दिया। संयोग से यूरोप में श्रमिक क्रांति के पुरोधा रहे कार्ल मार्क्स
(Karl Marx) ने भी सन् 1853 में भारतीय इतिहास के प्रति कुछ ऐसी ही टिप्पणी
की। उसके अनुसार भारतीय समाज का अपना कोई इतिहास नहीं रहा था, बल्कि इसका
सारा पुराना इतिहास इसपर आक्रमण करनेवाले विजेताओं की गाथाओं से भरा पड़ा है
(India, then could not escape being conquered, and the whole of her past
history, if it be anything, is the history of the successive conquests she
has undergone. Indian society has no history at all, at least no known
history. What we call its history, is but the history of the successive
intruders who founded their empires on passive basis of that unresisting
and unchanging society.)। यद्यपि भारतीय इतिहास के प्रति मार्क्स की यह
धारणा ब्रिटिश दृष्टिकोणों के अनुकूल ही रही थी, फिर भी वैचारिक अंतर्विरोधों
के कारण औपनिवेशिक शासन काल तक नेपथ्य में रहे मार्क्स के क्रांतिकारी विचार
स्वतंत्रता के बाद अपने को प्रगतिशील कहलानेवाले कुछ बुर्जुआ-विरोधी
(Antibourgeois) बुद्धिजीवियों के प्रमुख शगल बनकर ही उभरे।
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