भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
प्राकृतिक त्रासदियों के प्रभाववश विश्व के कुछ अंचलों में उत्पन्न हुए जैविक
व्यवधानों के कारण अद्यतन काल से अविरल गतिमान रहे पौराणिकताओं के इस
प्रवाह-पथ में अनेकानेक क्षेत्रीय गतिरोध पैदा होते गए। इन गतिरोधों के
परिणामस्वरूप इन क्षेत्र विशेषों में इतिहास की अविच्छिन्न परंपराओं के सूत्र
ही बाधित नहीं होते रहे, अपितु नित नवीन अवधारणाओं के प्रस्फुटनों से यहाँ
मानुषी-वृत्तियों का भ्रमित तथा खंडित स्वरूप ही शनैः-शनैः स्वीकार्य होता
गया। पिछले हिमयुगी महाविनाश से लेकर ई.पू. 3200 तक की अवधि में घटित विभिन्न
प्राकृतिक आपदाओं के फलस्वरूप जहाँ संपूर्ण यूरोप समेत पश्चिम व मध्य एशिया
के जन-जीवन निरंतर नष्ट-भ्रष्ट होते रहे, वहीं इन विभीषिकाओं में किसी तरह
बचे रहे उत्तरजीवियों द्वारा यहाँ नई सभ्यता का विकास भी होता रहा था। काल के
लंबे अंतराल में कई स्तरों पर हुए सामाजिक उथल-पुथलों से क्रमशः अस्तित्व में
आई इन सभ्यताओं के परिणामस्वरूप यहाँ के लोगों के आचार-विचार व भाषा-बोली में
भी गुणात्मक परिवर्तन आता गया। इस प्रकार देश-काल के हिसाब से विस्थापित हुए
इन उत्तरजीवियों के मिश्रित वंशज अपने मूल स्रोतों से ही विलग नहीं हुए,
बल्कि परिस्थिातजन्य कारणों से सांस्कृतिक तथा भाषाई आधार पर भी एक-दूसरे से
शनैः-शनैः दूर होते ही चले गए। कबीलाई परिवेश में पल्लवित हुई कूप-मंडूक
मानसिकता के चलते अतीत के प्रति इनका दृष्टिकोण अपनी जाति तथा क्षेत्र विशेष
की परिधि में ही सिमटकर संकुचित हो गया। यही कारण रहा कि इनके द्वारा रचित
इतिहास का सूत्र अपने कबीला या जाति के प्रथम पुरुष पर ही जाकर समाप्त हो
जाता था और उससे पूर्व की स्थिति से पल्ला झाड़ने के लिए इनके इतिहासज्ञ
प्रायः अंधकार-युग की सहज व भ्रांतिदायी कल्पना कर लिया करते थे। क्षेत्रीयता
के व्याप्त भँवर में उलझी पड़ी रही पश्चिम की इन अवधारणाओं को बाह्य दृश्य
दिखाने का सर्वप्रथम श्रेय यूनानी विद्वान् हेरोडोटस को ही जाता है।
देश-निष्कासन के दंडवश मिन आदि देशों के भ्रमण के उपरांत 'एथेंस' नामक यूनानी
नगर में ई.पू. 447 के आस-पास पुनः विस्थापित हए 'हेरोडोटस' (Herodotus,
484-425 BC) ने अपने यात्रा-संस्मरणों में संकलित की गई ऐतिहासिक सामग्री के
आधार पर क्षेत्रीयता के इस व्याप्त कवच को खंडित करने का प्रयत्न किया।
'Historica' शीर्षक से रचित उसकी कृति में मिस्र व यूनान समेत बेबीलोनिया आदि
देशों की तात्कालिक परिस्थितियों के साथ-साथ यहाँ के पूर्व वृत्तांतों का भी
उल्लेख हुआ था। चूंकि हेरोडोटस की इस अनुसंधानात्मक प्रवृत्ति से अभिप्रेरित
होकर पाश्चात्य जगत् के परवर्ती विद्वानों में विश्व इतिहास को जानने तथा इसे
लेखनीबद्ध करने की प्रेरणा जाग्रत् हुई थी, अतः इन्हीं योगदानों के
प्रतीकात्मक ही इस ग्रीक विद्वान् को उसके अनुगामियों द्वारा 'Father of
History' (आधुनिक इतिहास के पिता) की मानद उपाधि से भी विभूषित किया जाने
लगा। यद्यपि सुनी-सुनाई बातों या गल्पों पर आधारित हेरोडोटस के अधिकतर बचकाने
संदर्भो की तुलना में 'थ्यूसिडिडस' (Thucydides, 460-396 BC) नामक उसके एक
अनुगामी की समीक्षात्मक कृतियाँ (The Peloponnesian War) अधिक सुव्यवस्थित
रही थीं, तथापि तैथिक अनुक्रमों से इतिहास को प्रवाहमय बनाने का श्रेय
प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात (Socrates, 469-399 BC) के प्रखर शिष्य रहे 'जेनफन'
(Xenophone, 445-335 BC) को ही जाता है। अपने 'Hellenica' (हेलेनिका) आदि
ग्रंथों के माध्यम से इसने यूनानी इतिहास का प्रारंभ वहीं से किया था जहाँ से
थ्यूसिडिडस की कृतियाँ विराम को प्राप्त हुई थीं। यूनानी विद्वानों द्वारा
प्रचलित की गई इस परिपाटी से सम्मोहित होकर पश्चिम के अनेक शासकों में भी
अपने अतीत के प्रति जागरूकता अंकुरित होने लगी। इसी के परिणामस्वरूप इन
शासकों में अपने-अपने राजवंशों के इतिहास को लेखनीबद्ध कराने की एक अघोषित
प्रतिस्पर्धा भी प्रारंभ हो गई। राजपोषित बाध्यताओं के कारण इस कार्य के लिए
अनुबंधित किए गए विद्वानों की निष्ठाएँ प्रायः अपने स्वामियों के हितों के
प्रति ही मुखर होती थीं, अतः स्वभावतः इनके द्वारा सृजित ग्रंथों का स्वरूप
भी निरपेक्ष नहीं रह पाया था। स्वार्थजनित दोषों से परिपूर्ण रहने के उपरांत
भी इन उद्यमों से पश्चिमी परिवेश में तैथिक अनुक्रमों की जिस लिखित परंपरा का
सूत्रपात हुआ, उसी के आधार पर ही आधुनिक इतिहासज्ञों को वहाँ के अतीत को
परिभाषित करने में अपेक्षित सहयोग प्राप्त हो पाया था। वंशानुराग की इन्हीं
स्वपोषित अवधारणाओं के अतिरेक में अपने पूर्वजों की कतिपय श्रृंखलाओं की
विज्ञता से गर्वित रहे यहूदियों में यह विश्वास दृढ़ होता गया कि उनका संबंध
विश्व की प्राचीनतम जाति से ही रहा है। एडम (हजरत आदम), नोह (हजरत नूह) व
अब्राहम (हजरत इब्राहीम) आदि के क्रम से रहे यहूदी पूर्वजों की समान रूप से
स्वीकार्यताओं के कारण तदंतर अस्तित्व में आई ईसाई व इसलामिक मान्यताओं में
भी मानवीय इतिहास का उद्भव प्रोफेट एडम या हजरत आदम से ही रेखांकित किया जाने
लगा। ज्यूईस परंपराएँ एडम के काल को ई.पू. 4004 का निर्धारित करती हैं।
किंचित् इन्हीं आधारों पर ही सन् 1650 ई. में आयरलैंड के आर्क विशप जेम्स उशर
तथा उनके समकालिक रहे कैंब्रिज विश्वविद्यालय के तात्कालिक उपकुलपति जॉन
लाईटफूट ने समवेत रूप से यह रहस्योद्घाटित किया था कि 'मानव का सृजन 23
अक्तूबर, 4004 ई.पू. की सुबह नौ बजे त्रिदेवों द्वारा ही हुआ था' (Man was
created by the trinity on 23rd Oct., 4004 BC at nine O'clock in the
morning)। इसी तरह कुरआन-ए-मजीद (सूरा-56, आयत-13 से 26) की तफसीर करते हुए
इब्नेकसीर, दुनिया के इनसानी जमात की कुल उम्र को आठ हजार वर्ष के लगभग ही
ठहराते हैं (जिस मिंबर के आखिरी सातवें दर्जे पर तुमने मुझे देखा इसकी ताबीर
यह है कि दुनिया में इनसानी कौम की उम्र सात हजार साल की है और मैं, मुहम्मद
मुस्तफा, इसके आखिरी हजारवीं साल में मौजूद हूँ....')
कालांतर में विकसित हुई काल-विवेचनाओं की वैज्ञानिक विधियों के द्वारा
विभिन्न उत्खननों (Excavations) में पाए गए पुरातात्त्विक अवशेषों
(Archaeological Remnants) के परीक्षणों ने इतिहास लिखने की पश्चिमी विधा को
और अधिक सुव्यवस्थित तथा प्रामाणिक बनाया। आधुनिक वैज्ञानिक परिवेश में
पुरातन-अवशेषों के काल निर्धारण के लिए स्ट्रैटोग्राफिक (Stretographic) तथा
विघटन संकेत (Decay Index) की विधियों का प्रयोग किया जाता है। पहली विधि से
जहाँ मिट्टी या चट्टानों पर जमी परतों (Layers of Sediments) के आधार पर कुछ
हजार वर्षों के पूर्वानुमान को सुनिश्चित किया जा सकता है, वहीं कार्बनिक
विघटन यानी Dating of C14 की प्रक्रियाओं द्वारा पचास हजार वर्ष पूर्व तक की
स्थितियों का सहजता से आकलन किया जा सकता है। इससे अधिक की अवधियों को ज्ञात
करने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा प्रायः पोटैशियम आर्गन (Potassium Argon) या
फिर रूबीडियम स्ट्रांशियम (Rubedium Strontium) की जटिल पद्धतियों का सहयोग
लिया जाता है। वैज्ञानिक विधियों के त्रुटि रहित प्रभावों के कारण ही
पुरातन-वृत्तियों की सत्यता की परख के लिए आधुनिक इतिहासज्ञ, मानवी-परिवेशों
में व्याप्त आनुवंशिक तत्त्वों के जीवंत-दृष्टांतों की अपेक्षा खुदाइयों से
प्राप्त प्राचीन लिपियों (Old Scripts), मूर्तियों (Idols), स्तूपों
(Monuments), खंडहरों (Ruins), शिलालेखों (Inscriptions), ताम्र-पत्रों
(Copper Plates), मुद्राओं (Coins), भित्तिचित्रों (Folk Arts or
Sculptures), शिल्पकलाओं (Architectures) व चट्टानों पर पाई गई परतों (Layers
of Sediments) आदि मर्त्य-साक्ष्यों पर ही अधिक निर्भर रहते हैं। यद्यपि
व्यावहारिक दृष्टि से पुरातन वास्तविकताओं की पुष्टि के लिए इन मर्त्य
अवशेषों की भूमिकाएँ अत्यधिक निरापद ही मानी जा सकती हैं, तथापि निश्चित रूप
से यह प्रमाणित नहीं किया जा सकता है कि मानवी-वृत्तियों के सभी पुरातन अवशेष
काल के इन लंबे अंतरालों तक अक्षुण्ण रह पाए हैं या फिर इन सभी को उत्खननों
आदि के माध्यम से चिह्नित कर संरक्षित किया जा चुका है। वस्तुतः मानवी
जिज्ञासाओं की गत्यात्मकताओं के कारण सर्वेक्षणों व अनुसंधानों की सतत
प्रक्रियाओं का अविरल प्रवाह सदैव गतिमान रहता है और इन्हीं के परिणामस्वरूप
मर्त्य-साक्ष्यों पर आधारित निष्कर्षों के स्वरूप भी नित्य नए आयामों के साथ
उद्भाषित होते रहते हैं। वैचारिक परिमार्जनता की इन्हीं नियतियों के कारण
ई.पू. 4004 की हास्यास्पद ज्यूडो-क्रिश्चियन अवधारणाओं की कोख से निकले
आधुनिक इतिहासज्ञों के सीमित दृष्टि-बोध ने मानुषी-सभ्यताओं के क्रमिक विकास
को जिस परंपरागत साँचे में संकुचित करना चाहा, वैज्ञानिक अनुसंधानों से
उद्घाटित हुए मानवी काल-परिमाण के आधारभूत तथ्यों ने उनके औचित्यों को
अनेकानेक अवसरों पर प्रश्नांकित ही किया है। तंजानिया (Olduvai Gorge) के
उत्खननों में पाए गए लाखों वर्ष पुराने मानवी जीवाश्म व फ्रांस के बैलोनेट
गुफा (Vallonet cave) में पाए गए मानवी उपयोगिता से संबंधित दस लाख वर्ष
पुराने औजारों के अति उत्कृष्ट स्वरूप या फिर सैंतालीस हजार वर्ष पुरानी
रोडेशिया की ताम्र-खदानों के अवशेष इन्हीं अन्वेषणों के कुछ प्रमाणित अंश रहे
हैं। इन मर्त्य-साक्ष्यों के अतिरिक्त प्राग्युगीन परंपराओं के जीवंत सूत्रों
को बड़ी सहजता से आध-पुरुषों द्वारा प्रसूत हुए कुल-गोत्रों के अर्वाचीनीय
प्रतिबिंबों में भी अनुभूत किया जा सकता है।
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