भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
उपर्युक्त वर्णित साहित्यिक वाङ्मयों व परंपरागत अनुश्रुतियों के अलावा पूर्व
घटित सभी वृत्तांतों को समष्टि रूप में ज्ञात करने के लिए भारत में अपने ढंग
का एक अनूठा प्रयोग भी व्यवहार में लाया जाता रहा था। मत्स्य पुराण (53/63)
के अनुसार पुरातन काल की घटनाओं को जानने की इस विधा को 'पुराण' कहा गया है
(पुरातनस्य कल्पस्य पुराणानि विदुर्बुधाः)। पुराणों के रूप में प्रचलित इस
विधा की कुछ शाखाएँ आज भी भारतीय ग्रंथकोश में सहजता से उपलब्ध हैं।
उपर्युक्त आशयों के अनुरूप किन्हीं प्राचीनतम घटनाओं का उनके भूतकालीन
कारणों, तात्कालिक कारकों व संभावित परिणामों सहित विवेचना करने की भारतीय
विधा को ही 'पुराण' के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इस प्रकार पुराण
मात्र के उद्बोधन से भूत, वर्तमान व भविष्य का सम्यक् स्वरूप (भूतं भव्यं
भविष्य च त्रिविधं कालसंज्ञितम्-महाभारत-1-1-63) ही उद्भाषित होता है। ‘वायु
पुराण' (1/ 203) में निर्दिष्ट 'यस्मात्पुरा ह्यनिन्तीदं पुराणं तेन
तत्स्मृतम्' के भाव के अनुसार 'पुरा' अर्थात् आद्य वृत्तियों को 'अनन' यानी
परवर्ती स्वरूपों तक लयबद्ध करने की विधि को ही 'पुराण' कहा गया है। यद्यपि
पुराणों की सर्वमान्य संख्याएँ ('देवी भागवत पुराण' व 'भविष्य पुराण' को
छोड़कर) कुल ‘अठारह' (ब्रह्म, अग्नि, वायु, पद्य, ब्रह्मांड, शिव, कूर्म,
लिंग, विष्णु, वराह, मत्स्य, वामन, नारद, गरुड़, स्कंद, ब्रह्मवैवर्त,
मार्कंडेय व श्रीमद्भागवत महापुराण) एवं 'उप-पुराणों' की संख्याएँ 'उनतीस'
(नरसिंह, हरिवंश, सौर, कल्कि इत्यादि) ही मानी गई हैं, तथापि ‘स्कंद पुराण'
में वर्णित ‘पञ्चाशतु पुराणानि सेतिहासानि मानवाः' का अर्थ यह संकेत देता है
कि उपर्युक्त अठारह पुराणों की रचनाओं (अष्टादशपुराणसारसंग्रह कारिन्) से भी
पूर्व में पचास विभिन्न पुराणों के अस्तित्व विद्यमान रहे होंगे। 'वायु
पुराण' का यह श्लोक 'पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतं अनंतरं च
वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिगताः (अर्थात् सभी शास्त्रों की रचना से पूर्व
ब्रह्मा ने पहले पुराण को ही स्मरण किया था और तदंतर उनके मुख से वेद निकले
थे) तथा 'पुराणमेकमेवासीत्तदा कल्पान्तरेऽनघ' (यानी कल्पांतर में एक ही पुराण
रहा था) की उक्तियाँ यह सिद्ध करती हैं कि पुराणों का अस्तित्व अद्यतन काल से
निरंतर गतिमान रहा था और पुराणों का आधुनिक स्वरूप इन्हीं गत्यात्मकताओं का
ही प्रतिफल रहा है। पुराणों में विशेषतया सर्ग यानी सृष्टि रहस्य
(Cosmology), प्रतिसर्ग यानी प्रलयों (Catastrophes or Deluges) तथा
मन्वंतरों यानी प्राणी उद्भवों व उनके क्रमिक विकासों (Zoology &
Anthropology), काल-प्रभागों (Chronology) पर प्रकाश डालने के साथ-साथ वंश
यानी ईश्वरीय सत्ता (Theology) तथा वंशानुचरित यानी अस्तित्व में रही विभिन्न
मानवीय वंशावलियों के क्रमों व कृतित्वों (Subject relating to history) का
कारण, कारक व परिणाम सहित वर्णन किया गया है (सर्गश्च प्रतिसंर्गश्च वंशो
मन्वन्तराणि च वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम्-अमरकोष)। विषयगत विराट्
तत्त्व का इसका यह समष्टि रूप स्वतः ही प्रमाणित करता है कि बिना पुराणों के
सम्यक् अध्ययन के अद्यतन इतिहास के लयबद्ध क्रमों को उजागर नहीं किया जा सकता
है। किंचित इन्हीं वैशिष्टयों के आधार पर ही पुराण को इतिहास की आत्मा के रूप
में भी विश्लेषित किया गया है। इतिहास-पुराण के इस अंतर्निहित भेद को आचार्य
रजनीश बड़े ही सुंदर व स्पष्ट रूप में व्यक्त किया करते थे। उनके अनुसार
'पुराण का मतलब : जो पहले हुआ, अभी भी हो रहा है और आगे भी होगा, जबकि इतिहास
का मतलब : जो हुआ और. चुक गया है, वैसा कुछ अब नहीं हो रहा है और आगे कुछ
अन्य होगा। इतिहास लेखा-जोखा है ऊपरी घटनाओं का, पुराण लेखा-जोखा है अंतरतम
का। उसमें तिथियों का नहीं, बल्कि कालों का मूल्य होता है। कथा का विस्तृत
वर्णन नहीं, बल्कि सार ही यथेष्ट होता है-अंतस्तल में अंकुरित करने के लिए।'
व्यावहारिक रूप से सृष्टि के प्रारंभ-काल से चली आ रही वृत्तियों की शृंखलाओं
को तिथिक्रम के उबाऊ तथा असाध्य बंधनों में आबद्ध करने की धृष्टता की अपेक्षा
इन्हें काल के संक्षिप्त स्वरूपों में समेटकर ही सुरक्षित तथा पठनीय बनाए रखा
जा सकता था। यही कारण है कि तिथिक्रम के हिसाब से इतिहास को लेखनीबद्ध करने
के पाश्चात्य के लघु-आयामी दृष्टिकोण के विपरीत भारत में काल के संक्षिप्त
क्रमों के आधार पर अद्यतन इतिहास के बृहद् खंडों को बिना किसी काट-छाँट के
सहज बोधगम्य बनाए रखने की स्वाभाविक प्रक्रिया को ही वरीयता प्रदान की गई।
यद्यपि काल के लंबे प्रवाह के कारण समय-समय पर पल्लवित हुए विश्वासों के
परिप्रेक्ष्य में सृजित हुए क्षेपकों के जुड़ने से इनका मूल स्वरूप प्रभावित
होता रहा, तथापि अर्थ-अनर्थ की तमाम व्याधियों के उपरांत इनके अंतस् में
प्रवाहित अविरल धारा की अनुभूति सभी गोताखोरों को सहजता से हो ही जाती है।
किंचित् इसी का परिणाम है कि विश्व के अन्यान्य शास्त्रों की तुलना में
भारतीय संदर्भ बहुत ही सहजता व प्रभावी ढंग से प्राचीनतम घटनाओं के सूत्रों
को आधुनिक परिवेशों के साथ स्थापित करते दृष्टिगोचर होते हैं।
वेदों को गड़रियों के गीत तथा भारतीय आख्यानों को काल्पनिक (Myth) रूप में
प्रचारित करने में सिद्धहस्त रहे अंग्रेज राजनीतिज्ञ थॉमस बैबिंगटन मैकाले
(भारत की आधुनिक शिक्षा पद्धति के जनक) के सहयोगी तथा व्यक्तिगत पत्रों
द्वारा अपने पुत्र (would you say that anyone scared book is superior to
all others in the world?... I say the New Testament. After that, I should
place the Koran, which in its moral teachings, is hardly more then a later
edition of the New Testament. Then would follow...the Old Testament, the
Southern Buddhist Tripitaka... and finally so on, the Veda and the Avesta)
व सेक्रेटरी इंडिया, ड्यूक ऑफ आर्गइल (The ancient religion of India is
doomed and if Christianity does not step-in, whose fault will it be?) को
ईसाइयत की उत्कृष्टता का बोध करानेवाले, जर्मन मूल के एवं ऑक्सफोर्ड
विश्वविद्यालय के प्राध्यापक फ्रेडरिक मैक्समूलर (Frederich Max Mueller) को
भी अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर भारतीय ग्रंथों में वर्णित इतिहास के अकाट्य
प्रमाणों के समक्ष अंततः झुकना ही पड़ा था (उपर्युक्त उद्धरण पंडित
भगवद्दत्तजी के 'भारत का बृहद् इतिहास-प्रथम भाग' व स्व. गुरुदत्त द्वारा
रचित 'इतिहास में भारतीय परंपराएँ' से लिये गए हैं)। किंचित् भारतीय साहित्य
का आद्योपांत अध्ययन करने के उपरांत इसकी सारगर्भित झलकियों से अभिभूत हुए
मैक्समूलर को, मृत्यु पूर्व प्रकाशित अपने ग्रंथ 'इंडिया व्हाट इट कैन टीच
अस' (पृ.-21) में यह स्वीकार करना पड़ा था कि 'हिंदुओं के ऐतिहासिक दस्तावेज,
ग्रंथ, साहित्य आदि सर्वाधिक प्राचीन तो हैं ही, तथापि वे इतने अच्छे,
सुदृढ़ता से बने और व्यवस्थित उल्लेख हैं कि अतीत के खंडित इतिहास को सुसंगत
करने की सामग्री जो अन्यत्र नहीं मिलती, वह संस्कृत ग्रंथों में मिल जाती
है।'
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