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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....


अंगिरा-यह भी सप्त महर्षियों में से एक थे। वेद की पैंतीस प्रत्यंगिरस ऋचाएँ इन्हीं के द्वारा सृजित हुई थीं। अंगिरा को स्मृति से भरताग्नि व कीर्तिमान नामक दो पुत्र हुए। कीर्तिमान् को धेनुका से वरिष्ठ और उनके हविध्मान् हुए। हविधमान् के धृतिमान, धृतिमान के ऋषभ और ऋषभ के हिरण्यरोमा हुआ। इसके पश्चात् बृहस्कीर्ति, बृहस्कीर्ति के बृहत्ज्योति तथा उसके बृहटब्रह्मा नामक पुत्र हुआ। बृहटब्रह्मा का बृहन्मना, बृहन्मना का बृहमंत्र व इसका पुत्र बृहदभाष हुआ। उतथ्य, गौतम, तौलय, क्षीर, आरुणायनि, कोशल्य, रेवाग्नि, मूलप, अग्निवेश्य, कांडवायन, गार्ग्य, गालविद्, पतंजलि के क्रम से इनके वंशजों में अनेक गोत्र-कर्मा ऋषि हुए।

ब्रह्मा के इस मानस-पुत्र के अलावा आदित्य वरुण को भी अंगिरा नामक एक पुत्र हुआ था और इसका पुत्र प्रसिद्ध देव-याजक बृहस्पति हुआ (वृहस्पतिर्वा आंगिरासो देवानां पुरोहित आसीद्)। मूल बृहस्पति के वंशजों ने सौवेष्ठ्य, वालिशायनि, चैकेपी, वाराहि, वाष्कलि, सौटि, प्रावहि, आश्वालायनि, उडुपति, कौचकि, धर्मित, सोमतन्वि, ब्रह्मतन्वि, सालडि, बालडि, देवस्थानि व प्रातेणि आदि मूर्धन्य ऋषि हुए थे। किंतु देव-युग तक देव-गुरु के पद पर इसी वंश के पुरुषों का आधिपत्य रहने के कारण बृहस्पति के नाम से ही ये सभी ऋषिगण संबोधित होते रहे थे। इस प्रकार बृहस्पति का व्यक्तित्व एक दीर्घजीवी पुरुष के रूप में उभरकर सामने आया। अंतिम देव-गुरु बृहस्पति का पुत्र भरद्वाज हुआ, जिसका आश्रम आज भी संगम (प्रयागराज) के तट पर स्थित है। त्रेता युग में राम व भरत इन्हीं के आश्रम में आकर ठहरे थे। द्वापर में भरद्वाज के वंश में आचार्य द्रोण हुए, जो ‘भारद्वाज' के नाम से भी विख्यात हुए। भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण के रूप में अंगिरा के वंशधर आज भी विद्यमान हैं। चाक्षुष मनु के पुत्र ऊरू के भी अंगिरा नामक एक पुत्र हुआ था, जिसका पुत्र प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य च्यवन हुआ। अफ्रीका के धर्मग्रंथों में ऊरोंगोरा के विजय अभियानों की गाथाएँ प्रचुरता से पाई जाती हैं। संभवतः ऊरू-गोत्री अंगिरा ही अफ्रीका के अंगोरा-पिक्यूना के निर्माता रहे थे। इसी तरह ग्रीक की 'आर्गिनोरिस' जातियाँ भी किंचित् अंगिरस गोत्रियों से ही संबंधित रही थीं।

पुलत्स्य-ब्रह्मा के यह मानस-पुत्र भी सप्त महर्षियों में से एक तथा पुलत्स्य वेद के मंत्रद्रष्टा ऋषि रहे थे। पुलत्स्य का भूति से दत्तालि नामक पुत्र हुआ। दत्तालि का देववाहू तथा उसका विनीत हुआ। विनीत का पुत्र चैत्र, चैत्र का वेदवाहू और उसका अतिमान नामक पुत्र हुआ। अतिमान का पुत्र भी पुलत्स्य ही कहलाया। दैत्य सम्राट् वाण के आग्रह पर अतिमान पुत्र पुलत्स्य उनके याजक बनकर आधुनिक जॉर्डन (जो कि जनार्दन का ही अपभ्रंश है) के पास आश्रम बनाकर रहने लगे थे।

इस पुलत्स्य का मनुपुत्र नरिष्यंति के पुत्र तृणबिंदु की कन्या ईलविला से निदाध नामक एक पुत्र हुआ। निदाध को तत्त्वज्ञान की शिक्षा ब्रह्मा के पुत्र ऋभु से प्राप्त हुई थी। पौलत्स्य निदाध को हविर्भू से विश्रवा नामक पुत्र हुआ। विश्रवा को भरद्वाज पुत्री देववर्णिनी से कुबेर नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो कालांतर में यक्ष तथा गंधर्वो का संयुक्त राजा तथा शंकरजी का प्रिय पात्र बना। विश्रवा अपने पिता निदाध के नाना तृणबिंदु, जो अस्त्रालय (ऑस्ट्रेलिया) के राजा थे, के राज्य में आश्रम स्थापित करके रहने लगे। यहीं पर दैत्य सेनापति सुमाली की पुत्री कैकसी से विश्रवा को सप्ताधिपति लंकेश्वर रावण, महाबली कुंभकरण व विभीषण नामक तीन पुत्र तथा वज्रमणि (सूर्पणखा) नामक पुत्री हुई। सूर्पणखा का विवाह विद्युज्जिह नामक दानव से हुआ था। सेनापति सुमाली की भतीजियों (पुष्पोत्कंटा व बाका) से विश्रवा को प्रहस्त, खर, दूषण, त्रिशरा व महोदर आदि विकट योद्धा पुत्रों की प्राप्ति हुई। रावण को मय दानव-पुत्री मंदोदरी से अति प्रतापी पुत्र मेघनाद हुआ, जो इंद्र को परास्त करके 'इंद्रजीत' के नाम से विख्यात हुआ। पौलत्स्य-रावण भी अपने अग्रज कुबेर की ही भाँति शंकरजी का प्रिय पात्र रहा था। इस प्रकार राम द्वारा कुटुंब सहित रावण-वध के पश्चात् दक्षिण के सुदूर द्वीपों में शेष बचे इनके कुछ वंशधर पश्चिम के द्वीपों की ओर पलायन कर गए। कालांतर में उपकृत राक्षसराज विभीषण द्वारा कुश द्वीप (अफ्रीका) का स्वामित्व श्रीराम के ज्येष्ठ पुत्र कुश को सौंपने पर पुलत्स्य गोत्रीय यहाँ के राक्षसगण उत्तरी दिशा में स्थित भूमध्यसागरीय अंचलों में छिपे तौर पर जीवन यापन करने लगे होंगे। मूसा के नेतृत्व में मिस्र से कैनान की ओर निकले यहूदियों के दल का गंतव्य तक पहुँचने से पूर्व ही, संभवतः ई.पू. 1220 के आस-पास, गाजा व जाफा के मध्य स्थित इजराइल के तटीय भाग को भूमध्य सागरीय जिस लड़ाकू जाति ने अपने अधिकार में कर लिया था, उसका सूत्र भी इन पुलत्स्य गोत्री राक्षसों से ही जुड़ा रहा होगा। मिन के इतिहास में इस भूमध्य सागरीय जाति को 'पुलेसाती' (Pulesati) तथा यूनानी इतिहास में इन्हें 'पिलेसगियंस' कहकर संबोधित किया गया है। वस्तुतः यह जाति अपने आपको 'पुलस्तिन' कहकर ही चिह्नित करती थी। इस तरह कालक्रम में हुए उच्चारणगत बदलावों के कारण इन्हें 'पैलेस्टीनियन' तथा इनके क्षेत्र को 'पैलेस्टाइन' कहकर पुकारा जाने लगा। इस तरह पुलेसाती-पिलेसगियंस-पुलस्तिन-फिलीस्तीनी आदि क्रम से बदलती उपर्युक्त संज्ञाएँ पौलत्स्य रावण के शेष बचे वंशधरों के ही आधुनिक उत्तराधिकारिओं के लिए प्रयुक्त हुई प्रतीत होती हैं। इस प्रकार विभीषण व कुबेर के कुल-स्वजनों का आर्योत्तर जातियों में हुई अंतर्भुक्तियों के उपरांत भी पेलेस्टीनियन के रूप में ऋषि पुलत्स्य के वंशधर पश्चिम एशिया में आज भी विद्यमान हैं।

पुलह-सप्त महर्षियों में स्थान रखनेवाले पुलह ने वेद में रुद्र स्तुति संबंधित ऋचाओं का निर्माण किया था। इनके कुल के पुरुष शिवभक्त हुए तथा काशी में पुलहेश्वर नामक शिवलिंग की स्थापना की। पुलह को संभूति से कर्दम नामक पुत्र हुआ। कर्दम को श्रुति से शंखपाद तथा इसे धावान् नामक पुत्र हुआ। धावान् को बनपीठ तथा बनपीठ को पर्जन्य हुआ। पर्जन्य को सहिष्णु तथा उसे सुमध्मना नामक स्त्री से कामदेव नामधारी पुत्र हुआ। कामदेव को शरभ, शरभ को सिंह, सिंह को किंपुरुष तथा इसे व्याघ्रऋक्ष नामक पुत्र हुआ। पुलह के वंशजों से ही अक्षपाद गौतम को तत्त्वज्ञान की शिक्षा मिली थी। इन्हीं वंशजों में से किसी पुलह-गोत्रीय ने अगस्त्य ऋषि के पुत्र दृढास्य को गोद ले लिया था और तदंतर इसके वंशज भी अपने को पुलह-गोत्रीय मानने लगे थे। यही कारण है कि अगस्त्य व पुलह-गोत्रियों में आपसी विवाह वर्जित रहा है। यूनान के प्राचीन ग्रंथों में उनके मूल पुरुष के रूप में किसी 'पुलिह' नामधारी संत का संदर्भ मिलता है। पुलिह व पुलह के इस उच्चारणगत भेद का आधार भाषाई अंतर के कारण भी हो सकता है। संभवतः रुद्र भक्त रहे इस ‘पुलिह' के प्रभाववश ही प्राचीन यूनान में ‘फल्लुस' नामधारी लिंगनुमा पत्थर की पूजा-अर्चना की जाती रही थी। शिवलिंग के अतिरिक्त यूनान के 'कॉरिंथ' नगर का प्राचीन पार्वती मंदिर इसके प्रमाणस्वरूप आज भी अस्तित्व में बना हुआ है। किंचित् यही सब कारण रहे थे कि शिव के अर्धनारीश्वर भाव के ही अनुरूप यूनान में अपोलो व डायना को नर-नारी का उभय प्रतिनिधि या आदर्श माना जाता रहा है। यही नहीं बल्कि शिव की ही भाँति यूनान के अपोलो मंदिरों में जीवित सर्प भी पाले जाते रहे थे, जिन्हें प्रथा के अनुसार स्त्रियाँ निर्वस्त्र होकर भोजन कराती थीं।

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