भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
क्रतु-ब्रह्मा का यह मानस-पुत्र सप्त महर्षियों में गिना जाता है। इनकी
सहधर्मिणी का नाम 'क्षमा' था। इनके वंश वृत्तांत में साठ हजार बालखिल्य
वंशधरों का संदर्भ मिलता है। इन वंशधरों में पारावत, धैवशस्यस, वामन्य, गोप,
देवायत, देव, यज, दुरोण, आप, महौजा, चिकित्वान, निभृत व अंश प्रमुख रहे थे।
इनके वंशजों में से किसी ने वैनतयों का याजक बनना स्वीकार करके तुर्किस्तान
के गरडेशिया (गरुड़ों के राज्य) में अपना आश्रम स्थापित किया था। इन्हीं के
वंशजों की कोई शाखा किंचित् चीन में भी जाकर बसी होगी, कारण चीन की प्राचीन
'किलितो' जाति व इसका भारतीय उच्चारण 'किरात' का स्रोत शब्द 'क्रीत' ही रहा
था। क्रीत व क्रतु की आपसी समानता इस प्रकार की संभावनाओं की पुष्टि करते
प्रतीत होते हैं। भारतीय शास्त्रों में भी इस बात के प्रमाण उपलब्ध हैं कि
क्रतु गोत्रीय किसी ऋषि ने अगस्त्य पुत्र इध्मवाह को गोद लिया था (मत्स्य
पुराण-202/8)। यह सर्वविदित है कि स्याम द्वीप के अपने प्रवास के उपरांत ऋषि
अगस्त्य ने चीन प्रांत में भी भ्रमण किया था। संभवतः चीन-यात्रा के दौरान ही
क्रतु गोत्रीय ऋषि से उनका संपर्क हुआ होगा और ऋषि की याचना पर अगस्त्य ने
अपना पुत्र उन्हें सौंप दिया होगा। क्रतु के इसी दत्तक-पुत्र के उत्तराधिकारी
ही कालांतर में किलितो के नाम से प्रसिद्ध हुए होंगे।
वसिष्ठ-ब्रह्मा के इस मानस-पुत्र का भी स्थान सप्त महर्षियों में ही रहा था।
वसिष्ठ को ऊर्जा से रज, रज को गोत्र, गोत्र को उर्ध्ववाहू तथा उसे सवन नामक
पुत्र हुआ। सवन को अनंघ, अनंघ को सुतावा तथा सुतावा को शुक्र नामक पुत्र हुआ।
शुक्र को विरज नामक एक प्रतापी पुत्र हुआ। ब्रह्मा के मानस-पुत्र वसिष्ट ने
इलावर्त (पर्शिया) में सर्वप्रथम अग्निहोत्र की स्थापना तथा सूर्य-पूजन की
विधि विकसित की थी। पारसियों में आज भी अग्नि-पूजा का विशेष महत्त्व है।
कालांतर में नारद के बढ़ते वर्चस्व के कारण वसिष्ठ के उत्तराधिकारी शाक-द्वीप
(अरब) में आश्रम बनाकर रहने लगे और यहीं गाद में सूर्य मंदिर की स्थापना भी
की। जेंद अवेस्ता में मिथ्र (सूर्य के लिए वैदिक ग्रंथों में प्रयुक्त शब्द
'मित्र' का अपभ्रंश) की उपासना करनेवालों को मग या मगी कहा गया है। वसिष्ट
द्वारा प्रचलित यज्ञ विधि के कारण मिस्र के ग्रंथों में अरब का संदर्भ
सुगंधित वातावरणवाले देश के रूप में भी उल्लेखित हुआ है। प्रसिद्ध अंग्रेज
कवि मिल्टन ने भी अपनी कविताओं में अरब के बयार से सागर के सुगंधित बने रहने
का वर्णन किया है। संस्कृत में 'मखः' का अभिप्राय 'यज्ञ' तथा 'मेदिनी' का
अर्थ 'पृथ्वी की नाभि' से संबंधित है। संभवतः यज्ञों की इस बाहुल्यता के कारण
‘अर्वस्थान' (अरब) के इस क्षेत्र विशेष को तात्कालिक युग में ‘मख-मेदिनी' के
नाम से ही चिह्नित किया जाता रहा होगा और इसलामिक काल में हुए भाषाई बदलावों
के कारण इसी उच्चारण के अनुरूप यहाँ के धार्मिक वैशिष्ट्यवाले दो नगरों को
'मक्का' व 'मदीना' के नाम से पुकारा जाने लगा होगा। उपर्युक्त दृष्टांतों के
परिप्रेक्ष्य में प्राचीन अरब की मग, मिहिर व मूक आदि जातियाँ इन वसिष्ठ
गोत्रियों के ही वंशधर रही प्रतीत होती हैं। अरब के महरा, मक्का, मोखा,
मकरनियत व मैरवा आदि स्थान इन्हीं जातियों के द्वारा ही बसाए गए थे। संयोग से
शाक द्वीप में भी वासिष्टों की प्रतिद्वंद्विता दैत्यगुरु काव्य उशना से हो
गई। दैत्यराज गुरु से टकराने की अपेक्षा वसिष्ट गोत्रियों को शाक द्वीप
छोड़ना अधिक श्रेयस्कर प्रतीत हुआ। तत्पश्चात् अस्तित्व में रहे वासिष्ट ने
भारतवर्ष के सरस्वती व दृषद्वती नदी के मध्य क्षेत्र (सरहिंद) में अपना आश्रम
स्थापित करके सूर्य उपासना के साथ-साथ गुरुकुल परंपरा का भी सूत्रपात किया।
वासिष्ठियों द्वारा स्थापित यहाँ का जगत् विख्यात सूर्य मंदिर महमूद गजनवी के
अंतिम आक्रमण तक अस्तित्व में बना रहा था। भरतखंड में वसिष्ट के वंशजों की
ख्याति मग या शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के रूप में प्रतिष्ठित हुई। किंचित् इसी
क्षेत्र में रहते हुए ही वासिष्ठियों ने वेद की ऋचाओं को सृजित करना प्रारंभ
किया था, उनकी ऋचाओं में उल्लेखित सरस्वती नदी का संदर्भ भी इस तथ्य को
प्रमाणित करता है।
ब्रह्मा के इस मानस-पुत्र (अमैथुनीय मानव) के अलावा भारतीय शास्त्रों में एक
और वसिष्ठ का भी संदर्भ मिलता है। सुषानगरी (एलम के सूशन नगर) के सम्राट वरुण
व उनके अनुज मित्र की संयुक्त सेवा में अभिसार निमग्न रही अप्सरा उर्वशी को
असावधानीवश एक बार गर्भ ठहर गया। देव समाज में गर्भ धारण को चूँकि एक अपराध
माना जाता रहा था, अतः दंडस्वरूप गर्भिणी उर्वशी को अप्सरा के स्वाभाविक
दायित्वों से मुक्त करते हुए देवलोक से निर्वासित कर दिया गया। मान-अपमान के
इस उपालंभ से अपने को बचाए रखने के उद्यम में उर्वशी ने प्रसव के लिए एकांत
स्थान की तलाश में दासियों समेत सप्तसिंधु प्रदेश के सरस्वती तट के एक निर्जन
क्षेत्र में अपना बसेरा किया। नियत समय पर उर (मेसोपोटामिया) की इस सद्यः
किशोरी बाला ने दो मैथुनीय पुत्रों को जन्म दिया। सामाजिक लांछन तथा निर्वासन
की पीड़ा झेल रही उर्वशी ने गर्भ-निवृत्ति के पश्चात् अविलंब इन नवजात शिशुओं
को घड़े में रखकर सरस्वती नदी में प्रवाहित कर दिया और स्वयं दासियों सहित
देवलोक को प्रस्थान कर गई। ब्रह्म-मुहूर्त में सरस्वती में स्नान कर रहे
कुंडी ऋषि को घड़े में बहते ये दोनों बालक प्राप्त हुए। नालछेदन (मेघाजनन या
जातक) संस्कारविहीन इन बालक द्वय को तदनुसार घड़े में ही जनमा मानकर 'कलशजा',
'कुंभयोनि', 'कुंभसंभव' व 'घटोद्भव' आदि विशेषणों से संयुक्त कर दिया गया।
जन्म संबंधी परिस्थितियों से अवगत होने के उपरांत भी वास्तविक पिता की
संदिग्धता के कारण इन बालकों को 'मैत्रावारुण' या फिर ‘और्वस्य' के नामों से
भी संबोधित किया जाने लगा। आश्रम के परिवेश में संस्कारित ये बालक ही कालांतर
में 'अगस्त्य' व 'वसिष्ठ' के नाम से प्रख्यात ऋषि हुए। रुद्र (महादेव) द्वारा
दीक्षित होकर अगस्त्य ने जहाँ दक्षिण भारत को अपनी कर्मभूमि बनाया, वहीं
गुरुकुल व्यवस्था से प्रभावित होकर वसिष्ठ ने उत्तर भारत के परिवेश को अपनी
रुचि के अनुकूल पाया।
विंध्याचल को पार कर दक्षिणांचल में प्रविष्ट हुए अगस्त्य की पहली मुठभेड़
दंडकारण्य के असुर अधिपति सुंद से हुई। पाँच फीट से भी कम कद, किंतु बलिष्ट
काठी के अगस्त्य एक प्रखर ऋषि होने के साथ-साथ कुशल योद्धा तथा प्रसिद्ध
धनुर्धारी भी थे। सुंद-वध के पश्चात् उसकी पत्नी ताड़का व पुत्र मारीच से भी
अगस्त्य को जूझना पड़ा था। इस अंचल से इन्हें विधिवत् खदेड़ने के पश्चात्
अगस्त्य ने अपना आश्रम दंडकारण्य वन के उत्तरी सीमा पर स्थित प्राचीन पंचवटी
(नासिक से कुछ मील उत्तर) में स्थापित किया (एषा गोदावरी रम्या प्रसन्न सलिला
शुभा अगस्त्यऽश्चैव दृश्यते कदलीवृतः-व.रा.-युद्धकांड-123वाँ सर्ग,
श्लोक-46)। दस्यु उन्मूलन के अपने दायित्व से मुक्त होने के पश्चात् अगस्त्य
ने विदर्भ राजकुमारी लोपमुद्रा से विवाह कर एक अति प्रतिभावान् पुत्र को
उत्पन्न किया। कालांतर में वातापि व इलबिल नामक दुर्दीत असुरों का विनाश करके
अगस्त्य ने कृष्णा की सहायक नदी मलप्रभा के तट पर स्थित 'वातापिपुर' (कर्नाटक
के बीजापुर जनपद के बदामी से तीन मील पूरब), जो कि दक्षिणकाशी या मालकुट के
नाम से भी विख्यात है, में अपना दूसरा आश्रम स्थापित किया। यहाँ आकर अगस्त्य
को दस्युओं के आतंक से पीड़ित जनता के आर्तनाद ने झकझोरकर रख दिया। समुद्री
टापुओं में रहनेवाले दस्युओं के आतंक व लूटमार से जनस्थान के निवासियों की
रक्षा के लिए अगस्त्य ने एक योजनाबद्ध अभियान की रूपरेखा तैयार की। सामरिक
पोत निर्माण करके उन्होंने दस्युओं को उन्हीं के टापुओं (निवास स्थान) पर धर
दबोचा। उनके द्वारा निर्मित पोतों के माध्यम से अगम व अथाह जलराशि में भूमि
जैसा ही प्रदर्शित युद्ध-कौशल से चमत्कृत लोगों ने अगस्त्य की महिमा को
'समुद्र को पी जानेवाला' कहकर विश्लेषित करना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार
गोदावरी से लेकर कृष्णा नदी के मध्य के क्षेत्र को दस्यु (असुर) विहीन करते
हुए अगस्त्य ने दक्षिण में प्रविष्ट होने का एक निष्कंटक मार्ग प्रशस्त किया।
यही कारण है कि अगस्त्य के पंचवटी आश्रम से वातापिपुर आश्रम तक के क्षेत्र को
'दक्षिणापथ' के नाम से जाना जाता रहा है। वाल्मीकि रामायण (अरण्यकांड-एकादश
सर्ग) के संदर्भ 'दक्षिणेन महाञ्छ्रीमानगस्त्यभ्रातुराश्रमः' के अनुसार
अगस्त्य के आश्रम से पूर्व उनके भाई का आश्रम पड़ता था, जबकि अगस्त्य व
वसिष्ठ दोनों ही उर्वशी के गर्भ से घड़े में निरूपित होकर जनमे थे। वाल्मीकि
रामायण का यह संदर्भ संकेत देता है कि मूल अगस्त्य के अतिरिक्त और भी कई
अगस्त्य हुए होंगे और उन्हीं में से किन्हीं अगस्त्य नामधारी, इस कुल के किसी
परवर्ती ऋषि से वनवासी हुए दाशरथी राम की भेंट उनके पंचवटी स्थित आश्रम पर
हुई थी, जिसके भाई के आश्रम का वर्णन वाल्मीकि रामायण में हुआ है। रावण वध के
उपरांत सप्तद्वीपों की सांस्कृतिक विरासतों को अक्षुण्ण बनाए रखने के
उद्देश्य से अगस्त्य ने सुदूर दक्षिण को अपना केंद्र बनाते हुए सप्तद्वीपों
का भ्रमण करना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार दक्षिणांचल के अपने तीसरे व अंतिम
पड़ाव पर अगस्त्य ने अपना आश्रम नीलगिरि व अन्नामलाई पहाड़ियों के दक्षिण
कार्डमम उपत्यका में बगाई नदी के तट पर स्थित 'पोथिगाई' (चेन्नई के
तिरुनेलवेली जनपद) में स्थापित किया। सुदूर दक्षिण के अपने इस आश्रम में रहते
हुए अगस्त्य ने औषधि, वनस्पति, योग, दर्शन, ज्योतिष, पोत शास्त्र व धार्मिक
कर्मकांडों के साथ-साथ इस क्षेत्र विशेष के लिए तमिल भाषा व व्याकरण की रचना
भी की थी। वित्य वाग्दम अयरित अन्युरु, तुनमुंद्री-वाग्दम, कंड-पुरानुम,
पुषावेदी, दीक्षावेदी, पेरुनुल, पूर्णनूल, पूर्णशूश्तु, कूर्मकंडम, अगस्तैर
वैदम, अगस्तैर-नाडी, अगस्तैर-वैद्यक, मुनुरु, मुपु आदि अगस्त्य रचित विविध
विषयक तमिल ग्रंथ इसके प्रमाण हैं। मदुरै के पांडियन वंश के मूल संस्थापक
कुलशेखर के सहयोग से अगस्त्य ने 'द्रविड़' (द्र-द्रष्टा, विद्-ज्ञानी) नाम से
चिह्नित की गई उत्तर-दक्षिण की मिश्रित संस्कृति तथा इस प्रयोजन के लिए
विकसित की गई 'तमिल' भाषा के व्यवस्थित विकास के लिए 'संगम' नामक एक
साहित्यिक पीठ की स्थापना भी की थी, जिसे थिरुवल्लूर नामक इनके एक शिष्य ने
आगे चलकर काफी विकसित किया। भाषाविद् भी यह मानते हैं कि तमिल भाषा के विकास
में 'संगमकाल' का विशेष योगदान रहा था। उनके अनुसार प्रथम व द्वितीय संगमकाल
अब्राहम से पूर्व का रहा था जबकि तृतीय संगमकाल की समय सीमा पहली से लेकर
तीसरी शताब्दी तक रही थी।
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