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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....


सुदूर दक्षिण भारत को अपनी विचारधारा से आप्त करने के पश्चात् सप्तद्वीपों की अपनी यात्रा पर निकले अगस्त्य मलय द्वीप (मलेशिया), सुवर्ण द्वीप (सुमात्रा), यव द्वीप (जावा), बहरीण द्वीप (बोर्नियो), वाराह द्वीप (न्यू गिनी व पापूआ) व कलिंग द्वीप (फिलिपींस) का क्रमशः भ्रमण करते हुए स्याम द्वीप (थाईलैंड) तक पहुँचे थे। आज भी इन देशों की संस्कृति के विकास में ऋषि अगस्त्य के योगदान को किसी-न-किसी रूप में याद किया जाता है। जावा के प्रांबानान व स्दाक-काक-थॉम शहरों, चंपादेश (वियतनाम) के ट्राक्य, मिसोन, यानमुम, ड्रानलाय व डांगफुक नगरों तथा स्याम देश के सीसफॉन (आधुनिक बैंकॉक) में स्थित शिव लिंगों का संबंध बट्टार शिवे (अगस्त्य का ही एक नाम) नामक एक अति प्राचीन संत से रहा था। जावा में 'अगस्त्य पर्व' नामक एक प्राचीन ग्रंथ है, जिसमें अगस्त्य ऋषि के पुत्र 'द्रघस्यु' उनसे सृष्टि उत्पत्ति के रहस्य के विषय में प्रश्न करता है। कलिंग द्वीप में अपने मत के प्रचार-प्रसार का कार्य अगस्त्य ने अपने जिस शिष्य को सौंपा था, वही कालांतर में यहाँ का ‘कलांगी नाथर' नामक प्राचीन सिद्ध के रूप में विख्यात हुआ। अगस्त्य के उपदेशों का प्रचार करता हुआ कलांगी नाथर चीन प्रांत में पहुँचा और दीर्घकाल तक यहाँ रहने के पश्चात् यहीं पर इसने समाधि ले ली। गुरु के समाधिस्थ हो जाने के उपरांत तमिलनाडु निवासी इसके शिष्य-परंपरा के सिद्ध रहे 'बोगनाथर' ने अगस्त्य उपदेशों का प्रचार-प्रसार करते हुए सहस्रों चीनी शिष्य व अनुयायी बनाए। क्रियायोग की कुंडलिनी (सर्प के बैठने की एक मुद्रा) विद्या में पारंगत रहे इन सिद्धों के कारण ही आज भी चीन को 'ड्रैगनों' के देश के रूप में पहचाना जाता है। कायाकल्प विद्या द्वारा जीवन के अंतिम क्षणों में यह दीर्घजीवी सिद्ध मृत्यु-शय्या पर आखिरी साँस ले रहे बो-यांग नामक एक तरुण चीनी के शरीर में प्रविष्ट कर गया। इसी बो-यांग द्वारा विकसित शिष्य परंपरा में 'लाओत्जु' नाम का एक प्रख्यात सिद्ध हुआ, जो लाओत्से (Lao-Tse) के नाम से भी प्रसिद्ध रहा था। इसी लाओत्जु ने पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में चीन के प्रसिद्ध विचारक कन्फ्यूसियस को दीक्षा दी। ताओज्मि के इस प्रस्तोता ने 'ताओ चिंग' व 'ते चिंग' नामक दो ग्रंथों की रचना भी की थी। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में यह अपने शिष्य 'यू' (जिसका भारतीय नाम पुलिपानी रखा गया था) व अन्य अनुयायियों के साथ भू-मार्ग से चीन का क्षेत्र छोड़कर तिब्बत में आकर बस गया। संभवतः तिब्बती लामा इसी के अनुयायियों के वंशज रहे होंगे। इसी तरह स्याम द्वीप की पुरानी गाथाएँ यह बताती हैं कि अगस्त्य ऋषि ने यहाँ की एक अति लावण्यमयी कन्या यशोमती से विवाह किया था। इस नागकन्या से अगस्त्य को कंबु नामक एक पुत्र हुआ था। अगस्त्य के प्रभाव के कारण कंबु एक प्रसिद्ध शिवभक्त रहा था। कंबु के नाम पर ही कंबोज राज्य (कंबोडिया) अस्तित्व में आया और इसी कंबु से जो राजकुल चला उसी में महेंद्रवर्मन, जयवर्मन, इंद्रवर्मन व यशोवर्मन नामक प्राचीन राजपुरुष हुए। कंबोडिया में वर्मनों का यह राजवंश सूर्यवर्मन द्वितीय के पश्चात् व फ्रेंचों के आगमन से पूर्व अर्थात् ईसा की सोलहवीं शताब्दी के अंत तक विद्यमान रहा था। इंडोनेशिया से संबंधित अगस्त्य ऋषि के उपर्युक्त योगदानों का विवरण ‘क्रियायोग पब्लिकेशन, कनाडा' द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'BABAJI and the 18 Siddha Kriya Yoga Tradition' एवं 'रादेन मॉस' नामक यवद्वीप निवासी एक मुसलिम विद्वान द्वारा डच भाषा में रचित 'Poerbatjaraka' नामक पुस्तक के अनुवादित संदर्भो से लिया गया है।

इधर उत्तर भारत में प्रतिष्ठित होकर वसिष्ठ ने मनु पुत्र इक्ष्वाकु के कुलगुरु व मंत्री के पद को स्वीकार कर भरतखंड में राजपुरोहित की एक ऐसी प्रथा को विकसित किया, जो बहुत काल तक भारत के राजनीतिक हलचलों को प्रभावित करती रही थी। राजपुरोहित नियुक्त कर लिये जाने के पश्चात् वसिष्ठ का अपना नाम भी राजगुरु के पद से ही जुड़ गया और इनके उत्तराधिकारी भी अपने नाम के बजाय वसिष्ठ के ही नाम से संबोधित किए जाने लगे। ऋग्वेद (10/66/4) के अनुसार मैत्रावारुण वसिष्ठ द्वारा दूसरे वासिष्ठों को यह स्मरण कराना कि उनके ब्रह्मबल द्वारा ही इंद्रादि देवताओं के उत्कर्ष की भी रक्षा संभव हो सकती है, स्वतः ही एक से अधिक वासिष्ठों के होने का प्रमाण प्रस्तुत करता है। मूल वसिष्ठ के कुल में व्याघ्रपाद, वैक्लव, औपगव, शाद्वलायन, कपिष्ठल, औपलोम, अलब्ध, आपव, कठ, वास्यक, वालिशय, पालिशय, ब्राह्मपूरेयक, लोमायन, स्वस्तिकर, शांडिलि, गौडिनि, सुमना, उपावृद्धि, चौलि, ब्रह्मबल, पौलि, श्रवस, पौडव आदि के क्रम से मूर्धन्य ऋषि हुए थे। गुरुकुल के आंतरिक दायित्वों के सम्यक् निर्वहण के लिए अवसर अनुरूप वसिष्ठ ने उत्तम गुणों से विभूषित, किंतु नीच कुल में उत्पन्न अक्षमाला को अपनी सहधर्मिणी अंगीकार किया (अक्षमाला वसिष्ठेन संयुक्ताधमयोनिजा)। वसिष्ठ की मंत्रणा पर ही इक्ष्वाकु ने अपने पुत्र विकुक्षि को अयोध्या से निर्वासित भी कर दिया था (एवमिक्ष्वाकुना त्यक्तो वसिष्ठवचनात्सुतःवायु पुराण 88/19)। इक्ष्वाकु के पश्चात् विकुक्षि को वापस बुलवाकर राजा बनवाने के पश्चात् वसिष्ठ इस कुल के प्रसेनजित से लेकर त्रय्यारुण तक की ग्यारह पीढ़ियों में, फिर सत्यव्रत (त्रिशंकु) व विश्वामित्र की बढ़ती प्रगाढ़ता से खिन्न होकर राजपुरोहित के पद से अलग हुए वसिष्ठ नौ पीढ़ियों के बाद सगर के उत्कर्ष से लेकर नाभाग तक की सात पीढ़ियों में पुनः कोशल के राजगुरु के रूप में रहते हैं। शास्त्रों के संदर्भ स्पष्ट करते हैं कि दिग्विजयी सगर के अयोध्या लौटने पर आपव वसिष्ठ नामक पुरोहित द्वारा ही उसकी अगवानी की गई थी। इसके आगे अंबरीष द्वारा विश्वामित्र को अपनाए जाने के कारण सिंधुद्वीप से लेकर सुदास तक की पाँच पीढ़ियों में वसिष्ट फिर राजगुरु के रूप में दिखते हैं (वसिष्ठो वय सुदासः पैजवनस्य ऐक्ष्वाकस्य राज्ञः पुरोहित आस-जै.ब्रा.-3/23)। तदंतर कल्माषपाद से रुष्ट होने के कारण छह पीढ़ियों के अंतराल के पश्चात् वसिष्ट पुनः राजगुरु के रूप में दिलीप-द्वितीय से लेकर राम तक की छह पीढ़ियों में बने रहते हैं। संभवतः राजगुरु के पद तथा वसिष्ठ गोत्री होने के कारण उपजी व्यक्ति विशेष के नामों की एकरूपता ने ही इक्ष्वाकु वंश के इन राज-पुरोहितों (वासिष्ठों) को दीर्घजीवी होने का भ्रम उपस्थित करा देता है। इक्ष्वाकु (सूर्य) वंशीय राजाओं के मूल राजपुरोहित ने 'योग वसिष्ठ' नामक ग्रंथ की रचना की थी, जिसे उसके अंतिम उत्तराधिकारी (पौडव वसिष्ठ) ने दशरथी राम को सुनाया था। दशरथकालीन इस राजगुरु का विवाह नारदीय परंपरा के एक ऋषि की भगिनी अरुंधती से हुआ था। अरुंधती से इस वसिष्ठ को शक्ति नामक एक तेजस्वी पुत्र के अलावा और भी बहुत से होनहार पुत्रों की प्राप्ति हुई। समय पाकर युवा हुए शक्ति मुनि का विवाह अदृश्यंती नामक एक परम विदुषी तरुणी से हुआ था। इधर कामधेनु प्रकरण के कारण त्रय्यारुण के समय से ही वसिष्ठों से चले आ रहे वैरभाव की पृष्ठभूमि में कोशल नरेश सौदास (कल्माषपाद) के शुभेच्छु हुए विश्वामित्र ने अपने एक अंतरंग यक्ष किंकर को राजकीय पाकशाला प्रमुख के पद पर नियुक्त करा दिया। कालांतर में यक्ष किंकर के उपकृत वंशजों ने राजकीय भोज के एक उपयुक्त अवसर पर शक्ति समेत राजगुरु वसिष्ठ के शेष सभी पुत्रों का वध करके उनके मांस को अन्य व्यंजनों के साथ पकाकर राजपुरुषों को खिलाते हुए विश्वामित्र के उपकारों का बदला चुका दिया।

ऋषित्व से विभूषित होने से पहले 'विश्वरथ' के नाम से विख्यात रहे विश्वामित्र कान्यकुब्ज के राजा रहे थे। विश्वामित्र (विश्वरथ या विश्वबंधु) के पिता 'गाधि' को कान्यकुब्ज के निःसंतान नरेश ‘कृशिक' ने गोद लिया था। यही कारण है कि विश्वामित्र को 'कौशिकेय' या 'कौशिक ऋषि' के रूप में भी संबोधित किया जाता रहा है। गाधि को सत्यवती नामक एक कन्या हुई, जिसका विवाह भृगु वंशीय च्यवन के प्रपौत्र ऋचीक से हुआ था। परशुराम के पिता जमदग्नि इसी ऋचीक व सत्यवती के पुत्र थे। जमदग्नि के जन्म के कुछ समय उपरांत गाधि को भी एक पुत्र प्राप्त हुआ। गाधि ने इसका नाम विश्वरथ रखा था (कहीं-कहीं इसे विश्वजीत या विश्वबंधु के रूप में भी उल्लेखित किया गया है)। लगभग समवयस्क रहे ये मामा-भानजे (विश्वरथ व जमदग्नि) ऋचीक ऋषि के सरस्वती तट स्थित आश्रम में रहते हुए वेद व शस्त्र विद्याएँ अर्जित की थीं। गुरुकुल की शिक्षा के पश्चात् जमदग्नि जहाँ एक वेदज्ञ ऋषि के रूप में प्रतिष्ठित हो भृगु वंशीय परंपराओं को आगे बढ़ाते गए, वहीं विश्वरथ कान्यकुब्ज नरेश के पद पर आरूढ़ होकर अपने राज्य की सीमाओं को विस्तार देना प्रारंभ कर दिया। अपने सामरिक प्रयाणों के क्षण संयोगवश कान्यकुब्ज नरेश विश्वरथ एक बार वसिष्ट के अतिथि हुए। त्रय्यारुण के अंतिम युग में दुर्भिक्ष झेल रहे उस क्षेत्र में सेना सहित अपने अभूतपूर्व आतिथ्य से चमत्कृत नरेश ने कौतूहलवश वसिष्ट आश्रम के इस अन्नपूर्णा रहस्य को समझने का प्रयास किया। गुप्तचरों द्वारा प्राप्त सूचना के आधार पर उन्होंने वसिष्ट से इस कामधेनु-स्रोत को हस्तगत करने का प्रयास किया। इस उपक्रम में असफल रहने पर क्षत्रियोचित दंभ ने उन्हें सामाजिक स्तर पर श्रद्धेय रहे ऋषि आश्रम पर आक्रमण करने को उत्प्रेरित किया। नरेश विश्वरथ के इस दुराग्रह से उनके विरुद्ध जन-आक्रोश भड़क उठा और जातिगत खाइयों की सर्वथा उपेक्षा करते हुए स्वाभिमान के प्रश्न पर एकजुट हुए वहाँ के पल्लव, हिरात, किरात, कंबोज, बर्बर, शबर, म्लेच्छ आदि जातियों तक ने ब्रह्मर्षि वसिष्ठ के पक्ष में विश्वरथ की सेना का पूरी शक्ति से प्रतिकार किया। इस युद्ध में विश्वरथ के सभी पुत्र तथा यूथपति वीरगति को प्राप्त हुए। सामान्य जनता का ऋषि आश्रम के प्रति प्रदर्शित प्राणों से अधिक इस लगाव से अभिभूत होकर विश्वरथ ने क्षत्रियोचित हठधर्मिता के प्रभाववश ऋषि बनकर ही वसिष्ठ को अपमानित करने का संकल्प लिया। अपने प्रण को चरितार्थ करने के लिए राज-पाट त्यागकर विश्वरथ ने कठिन साधना के लिए पत्नी समेत वन को प्रयाण किया। साधनापूत विश्वरथ का ऋषि अवतार ही विश्वामित्र के रूप में प्रसिद्ध हुआ। ऋषित्व ग्रहण करने के पश्चात् भी विश्वामित्र का वसिष्ठ के प्रति वैरभाव यथावत् बना रहा। इसी क्रम में वसिष्ट के कोपभाजन बने कोशल नरेश त्रय्यारुण के पुत्र सत्यव्रत (त्रिशंकु), कल्माषपाद आदि को उन्होंने समय-समय पर प्रश्रय भी दिया। इस तरह वसिष्ट गोत्रियों का अनवरत टकराव कौशिकेय विश्वामित्रों से होता रहा था, जो राम के काल में ही जाकर समाप्त हो पाता है।

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