भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
कल्माषपाद के राजमहल में शक्ति सहित अपने शेष पुत्री के घृणित नरसंहार से आहत
व अशक्त से हो चुके वसिष्ट को अपनी पत्नी व पुत्रवधू सहित हस्तिनापुर नरेश
संवरण के राज्य में जाकर शरण लेने के लिए विवश होना पड़ा। यहीं पर विधवा
अदृश्यंती ने स्वर्गीय शक्ति मुनि के पुत्र पराशर को जन्म दिया। यही पराशर
आगे चलकर प्रसिद्ध ज्योतिष विशारद व प्रख्यात ब्रह्मवेत्ता ऋषि के रूप में
प्रतिष्ठित हुए। इन्हीं के द्वारा निरूपित ज्योतिष के सूत्र को 'पराशर
सिद्धांत' के नाम से जाना जाता है। निषादराज की कृष्णवर्णा (काली) कन्या
'सत्यवती' से संसर्ग के कारण इन्हीं पराशर को परम ऐश्वर्यशाली
'कृष्णद्वैपायन' (वेदव्यास) नामक एक पुत्र की प्राप्ति हुई। द्वैपायन के
संयोग से 'अरणी' नामक स्त्री को 'शुक' नामक एक परम गुणवान पुत्र उत्पन्न हुआ
(अरुन्धत्यां वसिष्ठस्तु शक्तिमुत्पदयद्विजाः सागरं जनयच्छक्तेर दृश्यन्ती
पराशरम्, काला पराशराज्जज्ञे कृष्णद्वैपायनं प्रभुम् द्वैपायनादरण्यां वै
शुको जज्ञे गुणान्वितः-वायु पुराण-70/83-84)। इधर वासिष्ठों व विश्वामित्रों
के मध्य छिड़े शीत युद्ध की समाप्ति पर ब्रह्मर्षि की उपाधि से विभूषित
(पूर्व राजर्षिशब्देन तपसा द्योतितप्रभः ब्रह्मर्षित्वमनुप्राप्तः-बा.रा.,
बालकांड, अष्टादश सर्ग) किए गए राजर्षि परंपरा के इस अंतिम पुरुष
(विश्वामित्र) को 'गालव' नामक एक तपोनिष्ट पुत्र की प्राप्ति हुई। ब्रह्मर्षि
की पदवी से सम्मानित हुए विश्वामित्र के 'कौशिक' गोत्रीय वंशजों के ही अनुरूप
वसिष्ठ के वंशधरों के रूप में 'वासिष्ठ' व 'पाराशर' गोत्रीय ब्राह्मण इस कुल
परंपरा को नियमित गति देते हुए भारत में आज भी विद्यमान हैं।
दक्ष (अग्निष्वात्)-ब्रह्मा का यह मानस-पुत्र एक प्रसिद्ध पुरोहित हुआ। अग्नि
का मूल प्रवर्तक इसे ही माना जाता है। शमी वृक्ष की टहनियों को आपस में
रगड़कर जिस ज्वलनशील पदार्थ को इसने प्रकट किया, उसे ही 'अग्नि' के नाम से
जाना गया। अग्नि को प्रकट करने के कारण इसे भारतीय ग्रंथों में ‘अग्निष्वात्'
के रूप में देवों का देव या पितर भी माना गया है। 'ऋग्वेद' की पहली ऋचा
'अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नंघातमम्' द्वारा अग्नि
की अभ्यर्थना इसी के प्रभाववश ही की गई प्रतीत होती है। इसके विषय में यह
मान्यता रही है कि यह सर्वव्यापक, सर्वपूजित तथा यज्ञ-विधि का प्रवर्तक रहा
था। मूल गायत्री मंत्र को उसी ने सृजित किया था, जिसे आत्मसात् करने के कारण
ही विश्वामित्र राजर्षि से ब्रह्मर्षि के पद को प्राप्त कर सके थे। दक्ष
(अग्नि) को स्वाहा से पावक, पवमान व शुचि ये तीन अति प्रतापी पुत्र हुए। इनके
द्वारा पल्लवित अग्नि के वंश में सहरक्ष, कव्यवाहन, हव्यवाह, शुक्राग्नि,
सभ्य, हव्यवाहन, आवसध्य, वैधुत, ब्रह्मौदभाग्नि, अथर्वण, दध्यंग, वासृजवान,
रक्षोहा, पितकृत, सुरभि, अनागत, कृशानु, सम्राट्, पर्वत, नभ, वसु,
विश्वस्याय, सुज्योति, अजैकपाद, शांति, सत्य, विश्वदेव, अचक्षु, अच्छवाक्,
सर्वीय, व्यरंति, हृच्छय, मन्युमान, संवर्तक, सहदक्ष, क्रव्याद, पावक, सौरि,
आयु, महिमान, शावान, अद्भुत, महाविविध, अर्क व अनीकवान-कुल पैंतालीस दिव्य
पुरुष हुए। दक्ष सहित इस कुल के ये सभी उनचास अग्रणी पुरुष ही अग्नि के
स्वरूपों में जाने गए। वेद ऋचाओं के सृजन में इनका कोई योगदान न होने के कारण
अग्नि (दक्ष) को महर्षियों की श्रेणी में नहीं रखा गया है। दक्ष (अग्नि) के
अलावा शिव पत्नी सती के पिता दक्ष व प्राचेतस-दक्ष (तेरह दिव्य कन्याओं के
जनक) जैसे दक्ष नामधारी और भी कई प्रजापतियों का संदर्भ भारतीय शास्त्रों में
मिलता है।
भृगु-ब्रह्मा का यह मानस-पुत्र प्रथम प्रजापति हुआ। यह मंत्रद्रष्टा ऋषि भी
रहा था। भृगु को ख्याति से धाता व विधाता नामक दो पुत्र तथा श्री नामक एक
कन्या हुई। श्री का विवाह स्वायंभुव मनु के कुल में उत्पन्न नारायण से हुआ
था। धाता को आयाति से पांडु तथा पांडु को पुंडरीका से द्युतिमान, द्युतिमंत
तथा सृजवान तीन पुत्र हुए। विधाता को नियति से मृकुंडु तथा मृकुंडु को
मनस्विनी से मार्कंडेय नामक पुत्र हुआ। मार्कंडेय को मूर्धन्या से वेदशिरा व
वेदशिरा को पिवरी से उन्नत नामक पुत्र हुआ। इन्हीं के वंशजों में भुवन, भौवन,
सुजन्य, क्रतु, वसु, मुर्द्धा, द्रोण, ज्योतिर्धामा, वेदश्री, राजवान, सुतार,
दमन, सुहोत्री, प्रभव, श्वेत, कंक, वसुद, जैगिषव्य, ऋषभ, उग्र, अत्रि, वालि,
गोकर्ण, शिखंडी, दंडी, नडायन, वैगायन, जटामाली, अट्टहास, दारुक, पैल, लांगली,
शूली, मुंडीश्वर, सहिष्णु, नकुली व सोमशर्मा नामधारी पुरुष हुए। भृगु-वंशीय
ये सभी पुरुष रुद्र के अनन्य भक्तों के रूप में स्मरण किए जाते हैं।
ब्रह्मा के इस मानस-पुत्र के अलावा प्राचेतस-दक्ष की दुहिता ‘अदिति' के गर्भ
से जनमे ‘आदित्य वरुण' (ब्रह्मदेव) को भी 'भृगु' नामधारी एक पुत्र हुआ था
(भृगुहं वारुणिः-जैमिनी ब्राह्मण)। संभवतः भृगु आश्रम में दीक्षित होने के
कारण ही वरुण के इस पुत्र को 'भृगु' कहा गया होगा। इस भृगु की हिरण्यकशिपु
दैत्य-पुत्री दिव्या व पुलोमा तथा दानव-पुत्री पौलोमी नामक दो स्त्रियाँ थीं।
दैत्यों से अपने पारंपरिक वैरभाव के अतिरेक में कश्यप-अदिति के पुत्र विष्णु
ने मौका पाकर भृगु की दैत्य-पत्नी दिव्या का सिर काट डाला था। इस अकारण वध से
कुपित होकर भृगु ने सामाजिक स्तर पर प्रताड़ित करने के उद्देश्य से पंचायत
में उपस्थित भद्रजनों के समक्ष विष्णु की छाती पर लात से प्रहार ही नहीं
किया, अपितु संपूर्ण देवकुल से अपना संबंध विच्छेद कर लेने का संकल्प भी लिया
था (एपिक मायथोलॉजी-पृष्ठ-180)। किंचित इसी घटना का ही परिणाम रहा था कि
भृग-दिव्या के वंशज जहाँ विष्णु व इंद्रादि देवों के विपरीत रुद्र के प्रबल
उपासक हुए, वहीं देवों के घोषित शत्रु रहे दैत्यों के गुरु के पद को भी सहर्ष
स्वीकार करते गए। भृगु का आश्रम बेबीलोनिया के आस-पास ही रहा था। बाबल के
राजाओं की सूची में 'वर्न वुरियस' का उल्लेख मिलता है, जो 'भृगुर्हवारुणिः'
(जै.ब्रा.-1/142) का ही अपभ्रंश प्रतीत होता है और भृगु के यहाँ रहे होने की
भी पुष्टि करता है। 'The Ancient History of Persia' नामक ग्रंथ में भृगु के
लिए 'Brygy' संज्ञा का प्रयोग किया गया है।
दैत्यबाला दिव्या से भृगु को एक परम होनहार काव्य-उशना नामक पुत्र हुआ, जो
आगे चलकर दैत्यगुरु के पद पर शुक्राचार्य के नाम से प्रतिष्ठित हुआ। जेंद
अवेस्ता (छंद-व्यवस्था का भाषाई अपभ्रंश) में इसे 'कवि-उसा' तथा अरबी शाहनामा
में 'कैक-ऊस' कहकर संबोधित किया गया है। भृगु-पुत्र काव्य उशना एक प्रसिद्ध
शिवभक्त तथा शस्त्र विज्ञानी हुआ। रुद्र के निर्देशन में इसने पाँच प्रकार के
आयुधों का अन्वेषण किया था। ‘अग्नि पुराण' में इनके वर्गों को यंत्रमुक्त
(यानी यंत्र द्वारा प्रहार करनेवाले आयुध-मिसाइल आदि), पाणिमुक्त (हाथ द्वारा
प्रहार करनेवाले आयुध-धनुष-बाण व माला आदि), अमुक्त (यानी तलवार, गदा आदि जो
छोड़े नहीं जाते हों), मुक्त संघारित (यानी प्रहार के बाद पुनः प्रहार
करनेवाले आयुध-सुदर्शन चक्र सरीखे) तथा आग्नेयास्त्र (बारूद आदि प्रयुक्त
होनेवाले शस्त्र-शतघ्नी यानी सैकड़ों व्यक्ति का अंत करनेवाले शस्त्र अर्थात्
तोप-टैंक आदि) में बाँटा गया है। यद्यपि शुक्राचार्य, दैत्यों तथा असुरों के
ही गुरु रहे थे, तथापि इनपर अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए इंद्र ने अपनी
पुत्री 'जयंती' का विवाह इन्हीं से किया था। काव्य-उशना (शुक्राचार्य) ने
अपना आश्रम शाक द्वीप (अरब) के 'कुरिशि प्रांत' में स्थापित किया था और यहीं
पर इन्होंने अपने इष्ट देव (शिव) का भव्य मंदिर बनवाकर उसमें जामुनी आभावाले
एक विराट् ज्योर्तिलिंग को भी प्रतिष्ठापित किया था। साइक्स ने भी 'History
of Persia' नामक अपने इतिहास ग्रंथ में शुक्राचार्य का दस वर्षों तक अरब में
बने रहना ही स्वीकार किया है। ‘मख-मेदिनी' (पृथ्वी की नाभि में स्थित
यज्ञभूमि) में स्थापित इस शिवलिंग को भविष्य पुराण नामक भारतीय ग्रंथ में
'मक्खेश्वर' कहकर चिह्नित किया गया है। आज भी इस स्थान का उल्लेख 'Navel of
the world' (विश्व के नाभिकेंद्र) के रूप में ही किया जाता है। शुक्राचार्य
के दिव्य प्रभावों तथा स्थापत्य कला की उत्कृष्ट सजीवता के कारण धीरे-धीरे
'काव्य के मंदिर' के रूप में इसकी ख्याति दूर-दूर तक फैलती चली गई। कालांतर
में भाषा में आई विकृति के कारण 'काव्य' का यह मंदिर मात्र 'काबा' के लघु रूप
में तथा कुरिशि प्रांत में स्थित इस मंदिर के पुरोहितों को 'कुरैशी' एवं
'मख-मेदिनी' को 'मक्का' व 'मदीना' के अपभ्रंश से उच्चारित किया जाने लगा।
प्रलयांतर अस्तित्व में आए विभिन्न कबीलों के अपने-अपने धार्मिक विश्वासों व
मान्यताओं के उपरांत भी यहाँ के जनमानस में इस मंदिर विशेष तथा आदिगुरु
शुक्राचार्य के प्रति श्रद्धा का पुरातन भाव यथावत् बना रहा था। लंबे समय तक
अस्तित्व में बने रहने के कारण ही कालक्रम में 'प्रधान देव प्रतीक' के
अतिरिक्त इस मंदिर में विभिन्न आस्थाओं की देव-प्रतिमाएँ भी स्थापित होती
गईं। Sir William Drummond द्वारा रचित 'Origins' नामक ग्रंथ के अनुसार,
'लात' अर्थात लिंग के अलावा 'उज्ज' यानी ऊर्जा या माया, 'मनात' यानी मदन या
कामदेव, 'अल दवरान' यानी वरुण, 'दुआ-सारा' यानी देवेश्वर या इंद्र, 'साद'
यानी सिद्धि, ‘सेर' यानी श्री या लक्ष्मी, ‘ओवेदेस' यानी भूदेवस या भूदेव
(ब्रह्मा), 'बग' अर्थात् भगवान् या विष्णु, 'अल शरक्' यानी शुक्र, 'शम्स'
यानी सोम, 'आद' यानी सूर्य, 'वध' यानी बुध, Dsaizan यानी सटन या शनि, 'याऊक'
यानी यक्ष, 'वजर' यानी वज्र, 'अव्वल' Dsual, Haba, Gaebar, Manaf, Allat,
Nayala, यानी प्रथम देव या गणेश, 'कबर' यानी कुबेर, ‘अलनस्त्र' यानी गरुड़
समेत आदि देवमूर्तियाँ काबा में स्थापित रही थीं। इसके अतिरिक्त इसलाम धर्म
के संस्थापक हजरत मुहम्मद के काल तक यहूदी अब्राहम या इब्राहीम तथा उसके वंशज
रहे इसमाईल समेत ईसामसीह तथा उसकी माँ मेरी (मरियम) तथा अन्य कई पैगंबरों व
कबीलाई देवताओं की यहाँ कुल 360 मूर्तियाँ स्थापित हो चुकी थीं। इसलाम धर्म
कबूल करने से पूर्व तक कुरैश के जिन चार सम्मानित कुल (खोजा) द्वारा चार फुट
ऊँचे व दो फुट चौड़े ‘मदजान' (Madjan), जो कि 'महादेवम्' का ही भाषाई अपभ्रंश
लगता है, नामक इस प्राचीनतम लिंग के साथ लात, मनात आदि देवमूर्तियों व लिंगों
की विधिवत् पूजा अर्चना की जाती रही थी, हजरत मुहम्मद सल्ल उन्हीं में से एक
'हाशिम' के वंशज रहे थे। हजरत मुहम्मद के जन्म से पचपन दिन पूर्व यानी ईसाई
सन् 570 में यमन के हाकिम अबराहा द्वारा काबा पर किए गए भयंकर हमले में यह
लिंग सात टुकड़ों में बँट गया था, जिसे बाद में पुरोहितों ने चाँदी की परत
चढाकर उसके वास्तविक ढाँचे में लाने का प्रयास किया था। इस हमले में मनात
(Manat) नामक लिंग काबा के परिसर से गायब हो गया, संभवतः यमन की फौजें लूट के
माल के साथ इसे भी अपने साथ पूरब की ओर ले गई हों। कालांतर में अरब से पूरब
की ओर सौराष्ट्र स्थित सोमनाथ ज्योतिर्लिंग व गायब होने के कारण हजरत मुहम्मद
सल्ल के फरमानों के बावजूद नष्ट नहीं की जा सकी। सु-मनात् की उच्चारणगत
साम्यताओं के भ्रम में पड़कर गजनी के सुल्तान महमूद ने सन् 1025 में
सौराष्ट्र पर चढ़ाई कर इस ज्योतिर्लिंग को चार टुकड़ों में भग्न करते हुए
मंदिर की अगाध संपत्ति को भी लूटा था। मौलाना मिन्हाज-अस्-सिराज द्वारा रचित
‘अबक्वेत् नासरी' के मुताबिक पैगंबर के हुक्म को तामील करने के एवज में
तात्कालिक खलीफा से 'उलेमा' का खिताब पाने हेतु इस सुल्तान ने ज्योतिर्लिंग
के दो टुकड़ों को क्रमशः मक्का व मदीना भी भिजवाया था, जबकि शेष दो टुकड़ों
को वह अपने साथ गजनी ले गया था (Ref.- The Shade of Swords by M.J. Akbar)।
सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञा रोमिला थापर भी अपनी पुस्तक 'Somanath : The many
voices of a history' में कुछ इसी तरह का संकेत करती हैं (Mahmud of Ghazni
believed the Somnath icon to be that of an early Arabic Goddess, Manat,
for Somnath might even be a bastardisation of the Arabic Su-manat.) इसलाम
धर्म कबूल कर लेने के पश्चात् भी गुरु शुक्राचार्य तथा उनके द्वारा स्थापित
मंदिर व लिंग के प्रति परंपरा से चला आ रहा श्रद्धा का भाव यहाँ के निवासियों
में यथावत् बना रहा था। किंचित् इसी का ही प्रभाव है कि मुसलिम संप्रदाय में
जहाँ शुक्राचार्य के नाम के अनुरूप पड़नेवाले साप्ताहिक दिन 'शुक्रवार' को
'जुम्मा' के रूप में आज भी एक पाक दिन माना जाता है, वहीं इसलामिक मान्यताओं
के अनुरूप 'काबा' एक अति पाक स्थान के रूप में आज भी प्रतिष्ठित है। यही कारण
भी रहा होगा कि सन् 630 में मक्का को अधिकृत करने के पश्चात् हजरत मुहम्मद
मुस्तफा सल्ल के निर्देशों पर इस लिंग तथा ईसा व मेरी के चित्रों को छोड़कर
शेष सभी मूर्तियाँ काबे के परिसर से हटा दी गई थीं। सन् 683 में लगे आग के
कारण काबे का अधिकतर हिस्सा नष्ट हो गया और इसी दुर्घटना में ईसा व मेरी के
चित्र भी विनष्ट हो गए। तदुपरांत सीरियाई हमलावरों द्वारा इस लिंग के अपहरण
कर लिये जाने तथा बाईस वर्षों बाद पुनः उसे लौटाए जाने पर इस तरह की किसी भी
घटना से बचने के लिए अरबों द्वारा चाँदी की परत चढ़े इस 'संगे असवद्' को काबे
के दक्षिणी-पूर्वी दीवार के बाहरी हिस्से में भूमि से चार-पाँच फुट की ऊंचाई
पर पक्का जड़ दिया गया। अरबी का 'असवद्' शब्द वस्तुतः संस्कृत के 'अश्वेत' का
ही भाषाई अपभ्रंश है। अमेरिका के New York University के इसलामिक वास्तुकला
के जानकार Prof. David King के अनुसार काबे का वर्तमान स्वरूप सन् 1627 ई.
में हुए जीर्णोद्धार का ही प्रतिफल है। गुरु शुक्राचार्य, इब्राहीम, इसमाईल व
मुहम्मद साहब के कुरैश खानदान के सनातन प्रभावों के कारण ही इसलामिक जन-मानस
में 'सूरा-तौबा' की आयतों के द्वारा 'मुश्रिकों' व 'काफिरी' (बुतपरस्ती) पर
लगाए गए तमाम बंदिशों के उपरांत भी इस भग्न लिंग के प्रति श्रद्धा का यह
अन्यमनस्क भाव येन-केन-प्रकारेण बना रहा। यही कारण है कि हजरे-अल-असवद् के
नाम से पुकारे जानेवाले काबा में स्थित इस पाक जामुनी (लाल मिश्रित काले
रंगवाले) संगे असवद् को मुसलिम हाजी आज भी बहुत ही आदर के साथ चूमते व स्पर्श
ही नहीं करते हैं, बल्कि घड़ी के उलटे क्रम में (अर्थात् बाएँ से दाएँ की ओर)
इसकी ‘सात परिक्रमा' (तवायफ) भी करते हैं। हजरत मुहम्मद से पूर्व परिक्रमा की
यह परिपाटी नंगे बदन से की जाती रही थी, किंतु उनके द्वारा हस्तक्षेप किए
जाने पर अब अरहम (बिना सिलाईवाले दो सफेद चादरों) को पहनकर (एक को कमर के
नीचे बाँधकर तथा दूसरे से सिर, कंधे व शरीर को ढककर) ही इस रस्म को सिजदा
(प्रणिपात) के साथ अदा किया जाता है। यह संयोग ही है कि भारत स्थित
रामेश्वरम् के ज्योतिर्लिंग का दर्शन भी बिना सिलाई के श्वेत वस्त्र को ओढ़कर
ही किया जाता है। आश्चर्यजनक रूप से इसलामिक मान्यताओं में भारतीय रीतियों से
मिलती-जुलती परिक्रमा की यह इजाजत मात्र काबा के लिए ही दी गई है, जो कि
संभवतः इसके इसलामिक पूर्व की मान्यताओं (अर्थात् काव्य-उशना या शुक्राचार्य
की प्रतिष्ठा) को ही इंगित करती प्रतीत होती है।
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