भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
काव्य-उशना को यशस्विनी नामक स्त्री से त्वष्टा, अत्रि, वरुत्री, शंडमर्क
नामधारी पुत्र व देवयानी नामक एक पुत्री हुई। देवयानी का विवाह पुरुरवा के
कुल में उत्पन्न ययाति से हुआ था। त्वष्टा का प्रह्लाद की कन्या यशोधरा से
विश्वरूप, वृत्र, विश्वकर्मा (मय) नामधारी तीन पुत्र तथा संज्ञा नामक एक
कन्या हुई (प्रह्लादी विश्रुता तस्य त्वष्टुः पत्नी यशोधरा, विरोचनस्य भगिनी
माता त्रिशिरसस्तु सा-वायु पुराण 84.19)। संज्ञा का विवाह आदित्य विवस्वान
(सूर्य) से हुआ और उससे सूर्य को श्राद्धदेव (वैवस्वत मनु) एवं जुड़वाँ
नासत्य व दस्त्र (अश्विनी कुमार) नामक पुत्र तथा यमुना नामक एक कन्या हुई।
विश्वरूप व वृत्र का विवस्वान (सूर्य) के भाई इंद्र ने छल से वध कर दिया।
अकारण हुए इस वध के अपयश से पीछा छुड़ाने के लिए इंद्र को छिपना पड़ा। इंद्र
के पलायन कर जाने पर देवों ने पुरुरवा के पौत्र नहुष को देवराज के पद पर
आरूढ़ किया। विश्वकर्मा एक प्रसिद्ध वास्तुशास्त्री के रूप में विख्यात हुए।
देवताओं में वे विश्वकर्मा तथा दैत्य व दानवों में वे मय के नाम से जाने गए।
मध्य अमेरिका के मयांस इन्हीं के वंशज हैं। इन्हीं के वंशधरों द्वारा मिन का
पिरामिड, पांडवों का अद्भुत प्रासाद तथा कृष्ण के द्वारिका नगरी का निर्माण
किया गया था। पौलत्स्य-रावण की पटरानी मंदोदरी व असुर सम्राट शंबर की
राजमहिषी मायावती सगी बहनें होने के अलावा मय-कुल में उत्पन्न कन्याएँ रही
थीं। काव्य-पुत्र अत्रि का आश्रम हिमालय से पश्चिम में रहा था (मत्स्य
पुराण-118.61)। अत्रि को एक अति प्रतिभा-संपन्न पुत्र सोम (चंद्र) पैदा हुआ,
जो आगे चलकर औषधि व वनस्पतियों का विशेषज्ञ हुआ। प्रजापति दक्ष ने अपनी
सत्ताईस कन्याएँ इसी चंद्र (सोम) को दी थीं। चंद्र (सोम) का दक्षिण-पश्चिम
एशिया के निवासियों पर अच्छा प्रभाव रहा था। शायद यही वजह रही कि ईरान व अरब
की सरजमीं से विकसित धार्मिक आस्थाओं में चाँद को बहुत पाक माना गया है। ईरान
के राज्य-चिह्न के रूप में आज भी 'चाँद' को ही अपनाया जा रहा है। यहाँ के
निवासियों द्वारा रखे जानेवाले धार्मिक 'रोजा' को भी किंचित् इसी कारण 'सोम'
ही कहा जाता है। इसी तरह ईरान की ‘सोमस दरिया' व ग्रीस का ‘सोमास आइसलैंड' का
नामकरण भी संभवतः अत्रि पत्र सोम (चंद्र) से ही संबंधित रहा हो। यही नहीं
बल्कि सोम (चंद्र) का वनस्पतियों से रहे बेहद लगाव को भी यहाँ के निवासियों
ने अपनी स्मृतियों में संजोए रखा और इसी के प्रतीकात्मक अपने नए मजहब में हरे
रंग को यहाँ के लोगों ने विशेष महत्त्व दिया। भृगुवंशी ऋषियों द्वारा
अथर्ववेद के मंत्रों द्वारा उपचार की विधि विकसित की गई थी। टीक इसी के
अनुरूप ईरान व अरब आदि देशों में कुरआन शरीफ की आयतों को पढ़कर रोग-निदान का
प्रयोग किया जाता है। किंचित् यहाँ के निवासियों में अथर्ववेद परंपरा से चले
आ रहे विश्वासों के कारण ही झाड़-फूंक की यह मान्यताएँ नए स्वरूपों में
यथावत् कायम हो पाई हो। यह संयोग ही है कि हिंदुओं व इसलामिक आस्थाओं में
समान रूप से गंडा-ताबीज, राख-भभूत, कीर्तन-कव्वाली आदि को बड़ी श्रद्धा व
विश्वास के साथ अपनाया जाता है। अत्रि पुत्र सोम (चंद्र) का देवगुरु बृहस्पति
की पत्नी तारा से अवैध संबंध स्थापित हो गया था। दैत्य गुरुकुल के चंद्र
(सोम) द्वारा देवगुरु की पत्नी को भगाने के कारण ही देव-दैत्य में तारकामय
नामक एक विकट देवासुर संग्राम भी हुआ था। तारा से चंद्र (सोम) को बुध नामक एक
पुत्र हुआ (राज्ञः सोमस्य पुत्रत्वाद राजपुत्रो बुधः स्मृतः-मत्स्य
पुराण-24/3)। बुध का विवाह मनु पुत्री इला से हुआ था। पर्शिया का प्रसिद्ध
'एलवंश' तथा इनका 'एलम' नामक प्रदेश, जो आजकल 'किरमान' के नाम से जाना जाता
है, इला से ही संबंधित रहा था। अरबी में प्रयोग होनेवाला 'अल्' उपसर्ग भी
संभवतः इला से ही प्रभावित रहा था। बुध-इला के पुत्र एल-पुरुरुवा से विकसित
वंश-परंपरा को पश्चिमी एशिया में 'एलवंश' व भारत में 'चंद्रवंश' के नाम से
जाना गया। कालांतर में इसी वंश शृंखला में प्रसिद्ध कौरव व पांडव हुए।
इधर दानव-कन्या ‘पौलमी' से भृगु को एक प्रतिभा-संपन्न पुत्र हुआ। पौलमी का यह
गर्भ चूंकि आठवें माह में ही गिर पड़ा था, अतः इस गर्भ से उत्पन्न पुत्र का
नाम 'च्यवन' (गिर जाना) पड़ा (व्याधितः सोऽष्टमे मासि गर्भः क्रूरेण कर्मणा
च्यवनाच्च्यवनः सोऽथ चेतनस्तु प्रचेतसः-वायु पुराण-65.89 )। च्यवन के लिए
'शतपथ ब्राह्मण' में 'च्यवनो वा भार्गवः' कहकर संबोधित किया गया है। इस
प्रकार च्यवन तथा काव्य-उशना आपस में दायद बंधु भी रहे थे। च्यवन औषधि
विज्ञान में भी निपुण रहे थे। इनका विवाह वैवस्वत मनु के पुत्र शर्याति,
जिसका राज्य गुजरात के खंभात की खाड़ी के पास ‘आनर्त' नाम से था, की पुत्री
'सुकन्या' से हुआ था। शर्याति द्वारा अपना पुरोहित घोषित किए जाने पर च्यवन
उसी के राज्य में अपना आश्रम स्थापित करके रहने लगे। सुकन्या से च्यवन को
आत्मवान, दधीचि व ऋक्ष नामधारी पुत्र तथा सुमेधा नामक कन्या हुई (वायु पुराण
65.90 व 70.26)। आत्मवान को रुचि नामक स्त्री से और्व नामक पुत्र हुआ। च्यवन
के पश्चात् यदु के वंशज हैहयों द्वारा भार्गवों को लगातार आतंकित किए जाने की
घटनाओं से क्षुब्ध होकर और्व को अपने दायद बंधु सोम (चंद्र) के आश्रम के
समीपवर्ती क्षेत्रों में आश्रय लेना पड़ा था। कालांतर में भृगु वंशीय इसी
‘और्व' के नाम पर सुमेरु पर्वतांचल के इस क्षेत्र का नाम 'और्बस्थान' व तदंतर
भाषाई अपभ्रंश के कारण 'अरब' के रूप में विख्यात हुआ। और्व का पुत्र ऋचिक तथा
ऋचिक-सत्यवती का पुत्र जमदग्नि हुआ। जमदग्नि ने अपना आश्रम सप्तसिंधु के
सरस्वती तट पर स्थापित किया था। संयोग से इस क्षेत्र का समीपवर्ती
राज्य-आनर्त भी तब तक हैहय राज्य का एक अंग बन चुका था। जमदग्नि एक प्रसिद्ध
वेदज्ञ हुए व उन्होंने वेद की ऋचाएँ सृजित करने में भी योगदान किया। जमदग्नि
का विवाह इक्ष्वाकु कुल की राजकुमारी रेणुका से हुआ था और इससे जमदग्नि को
परशुराम सहित पाँच पुत्र हुए। इधर, हैहय वंश के शक्तिशाली सम्राट् कार्तवीर्य
अर्जुन का विवाह भी रेणुका की बहन से हुआ और इस प्रकार जमदग्नि व कार्तवीर्य
आपस में साढूभाई के रिश्ते में भी बंध गए। आपसी रिश्ते के इस प्रभाव के कारण
भार्गवों तथा हैहयों के मध्य की खाई भी काफी हद तक पट चुकी थी। इसी बीच
चरित्रगत दोषों के कारण जमदग्नि ने अपनी पत्नी रेणुका की हत्या अपने उग्र
स्वभावी पुत्र परशुराम से करवा दिया। पत्नी की बहन के इस जघन्य वध से कुपित
होकर कार्तवीर्य अर्जुन ने प्रतिशोध स्वरूप अपने सेनापति अग्निदेव के हाथों
भार्गवों के आश्रम को नष्ट करवा डाला। संयोगवश आश्रम में उपस्थित न रहने के
कारण हैहयों के इस आघात से जमदग्नि की रक्षा हो गई, किंतु भावी प्रतिघात से
आशंकित होकर उन्होंने किसी सुरक्षित क्षेत्र में आश्रय लेना उचित समझा। इस
प्रकार उन्होंने भारत के हृदय-क्षेत्र में स्थित विंध्य से उत्तर के स्यंदिका
(सई नदी) के तट पर अपना एक नया आश्रम स्थापित किया। कालांतर में यही क्षेत्र
यमदग्निपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जो अब उत्तर प्रदेश के जौनपुर जनपद के
नाम से जाना जाता है। शेरशाह सूरी के जमाने में यमदग्निपुर या यवनपुर (आधुनिक
जौनपुर) कुछ कालों के लिए भारत की राजधानी के रूप में भी प्रतिष्ठित रही थी।
इसके प्रमाण के रूप में चुनार के किले में स्थित एक तात्कालिक शिलालेख में
जौनपुर का उल्लेख 'सिराजे हिंद' (हिंदुस्थान की राजधानी) के अलंकरण से किया
गया मिलता है। प्रतिशोध की ज्वाला में धधक रहे कार्तवीर्य अर्जुन ने
यमदग्निपुर के सुरक्षित अंचल में विस्थापित हो चुके अपने साढू का पीछा नहीं
छोड़ा और हैहयों के ऐसे ही एक आक्रमण में जमदग्नि को अपने प्राणों से हाथ
धोना पड़ा। पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने व एक आततायी राजा के दासत्व को
झेल रही उत्तर भारत की प्रजा को मुक्ति दिलाने के लिए कुरुक्षेत्र में
तपस्यारत रहे परशुराम ने दासों (शूद्रों) की सेना संगठित कर क्षत्रिय हैहयों
पर इक्कीस निरंतर आक्रमण करके सहस्रार्जुन वध सहित हैहयों की माहिष्मती को ही
समूलतः नष्ट कर डाला। यही नहीं बल्कि पितृ-शोक से उद्विग्न से हो रहे परशराम
ने हैहयों के रक्त से कुरुक्षेत्र स्थित समंतक तीर्थ के पाँच कंडों को भरकर
पितरों को रक्तांजलि अर्पित कर अपने को अंततः शांत भी किया। संभवतः प्रतिशोध
की ज्वाला में धधक रहे परशुराम ने बंदी शत्रुओं को कुरुक्षेत्र में लाकर वध
कर दिया होगा। हैहयों से विजित राज्य को कश्यप गोत्रीय एक ब्राह्मण को
सुपुर्द करके परशुराम अंततः मंदराचल में जाकर साधनारत हो गए। यह घटना राम से
चौबीस पीढ़ी पूर्व घटित हुई थी, अतः इन्हीं के कुल में उत्पन्न किसी अन्य
परशुराम नामधारी पुरुष का ही त्रेता युग में दाशरथी-राम से साक्षात्कार हुआ
होगा। इसी तरह भार्गव कुल के किसी अन्य परशुराम नामधारी वंशज या गोत्र के
द्वारा द्वापर युग में भीष्म, द्रोण व कर्ण को धनुर्विद्या की शिक्षा दी गई
रही होगी। परशुराम द्वारा दान में प्राप्त भूमि के अधिकारी होने के कारण
कश्यप के उत्तराधिकारी कालांतर में भूमिधारी या भूमिहार ब्राह्मण के रूप में
जन-सामान्य में विख्यात हुए। भारत के पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार के भूमिहार
इन्हीं के आधुनिक वंशज प्रतीत होते हैं। इसी तरह मूल परशुराम के इस त्याज्य
प्रवृत्ति को सांकेतिक आधार प्रदान करते हुए कुरुक्षेत्र के समीपवर्ती
क्षेत्रों में निवास करनेवाले इनके कुछ शिष्यों ने अपने को ‘त्यागी' के रूप
में तत्पश्चात प्रतिष्ठापित किया था। भारत के पश्चिमी उत्तर प्रदेश व पूर्वी
हरियाणा की त्यागी जाते इन्हीं परशुराम-शिष्यों की ही आधुनिक वंशज दिखती है।
च्यवन-पुत्र दधीचि को सरस्वती नामक स्त्री से सारस्वत नामक एक अतिज्ञानी
पुत्र की प्राप्ति हुई। इसी के वंशज 'सारस्वत-गोत्रीय' ब्राह्मण के रूप में
आजकल पहचाने जाते हैं। अपने दायद बंधु वृत्र के सैनिकों से देवों की रक्षा
करते हुए शहीद हुए 'दधीचि' की अस्थि से निर्मित वज्र नामक आयुध से वृत्र का
वध करके इंद्र ने दधीचि की हत्या का सम्मानजनक ढंग से प्रतिशोध भी लिया था।
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