भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
च्यवन के पुत्र ऋक्ष को विद् नामक पुत्र हुआ था। विद् को अद्विषेण तथा
अद्विषेण को वीतहव्य नामक पुत्र हुआ। वीतहव्य को सुमेधस, सुमेधस को पाश्वास्य
तथा पाश्वास्य को गृत्समान् नामक पुत्र हुआ। गृत्समान् को मंत्रद्रष्टा नभ
तथा नभ के वंश में वसन हुए। वसन को रत्नाकर नामक एक उदंड स्वभाव का पुत्र
हुआ, जो बड़ा होकर दस्यु-वृत्ति में संलग्न हो गया। नारद द्वारा समझाए जाने
पर दस्यु रत्नाकर ने दस्यु-वृत्ति को तिलांजलि देकर तमसा नदी के तट पर कठोर
साधनारत हुआ। समाधिस्थ रत्नाकर के शरीर को दीमकों (बल्मीक) द्वारा आवृत किए
जाने के कारण कालांतर में यह वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बुद्ध चरित्र
अध्याय प्रथम (श्लोक-43) में स्पष्ट रूप से वाल्मीकि को च्यवन गोत्रीय (यानी
भार्गव ब्राह्मण) कहा गया है (वाल्मीकिरादौ च ससर्ज पद्म जग्रंथ यन्न च्यवनो
महर्षिः)। इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि 'रामायण' के रचयिता, ऋक्ष-वाल्मीकि
दलित वर्ग से नहीं बल्कि विशुद्ध भार्गवकुलीन ब्राह्मण ही रहे थे। उन्हें
दलित प्रचारित करने का भ्रम संभवतः युवावस्था में उनके द्वारा अपनाए गए दस्यु
प्रवृत्ति के घृणास्पद सामाजिक भाव के कारण ही पनपा होगा। बहेलिया द्वारा आहत
क्रौंच पक्षी के आर्तनाद पर साधना से प्रदीप्त रत्नाकर (वाल्मीकि) के मुख से
प्रस्फुटित यह व्यथित प्रतिक्रिया कि 'मा निषाद् प्रतिष्ठांत्वमगमः शाश्वतीः
समाः यत्नोंचमिथुनादेवकमवधीः काममोहितम्' साहित्य जगत् की प्रथम कविता के रूप
में प्रतिष्ठित हुई। इसी से वाल्मीकि को आदिकवि भी कहा जाता है। इनका आश्रम
चित्रकूट से उत्तर पयस्विनी नदी के पश्चिमी तट पर स्थित था।
कालिदास के 'रघुवंश' के अनुसार वाल्मीकि दशरथ व जनक के समकालिक रहे थे।
आदिकवि वाल्मीकि के विषय में यह जनश्रुति प्रचलित है कि देवर्षि नारद की
प्रेरणा पर उन्होंने रामायण की रचना राम के जन्म से पूर्व ही कर डाली थी। इस
प्रकार की आस्थाएँ वाल्मीकि को भावी घटनाओं के मर्मज्ञ रहे एक प्रख्यात
ज्योतिषी के अप्रत्यक्ष आशय से ही परिभाषित करती दृष्टिगोचर होती हैं। परंतु
ज्योतिष के आदिकालीन अठारह सिद्धांतकारों (ब्रह्म सूर्य सोमः वसिष्ठोऽत्रिः
पराशरः कश्यपो नारदो गर्गो मरीचमनुगिरा, लोमशः पौलिश्चैव च्यवनो यवनो भृगुः
शौनकोऽष्टादश्चैते ज्योतिशास्त्रः प्रवर्तका) की सूची में वाल्मीकि को
सम्मिलित न किया जाना या फिर परवर्ती ज्योतिष के किसी फलित सिद्धांत में उनसे
संबंधित संदर्भो का नहीं पाया जाना, जहाँ इस तरह की संभावनाओं पर पूर्ण विराम
लगा देता है वहीं मात्र राम से संबंधित भावी घटनाओं के मर्मज्ञ होने की
संकीर्ण छवि उनके इस तथ्यपरक कालजयी कृति के साथ-साथ राम के ऐतिहासिक
अस्तित्व को भी काल्पनिकता की धुंध से ही ढाँपने का प्रयास करते दिखते हैं।
उपर्युक्त तर्क ही नहीं, अपितु इस ग्रंथ के रचयिता स्वयं ही वर्णित संदर्भो
के माध्यम से इन प्रश्नों का निराकरण भी कर देते हैं। वाल्मीकि रामायण
(बालकांड) के चतुर्थ सर्ग का प्रथम श्लोक (प्राप्तराज्यस्य रामस्य
वाल्मीकिर्भगवानृषिः चकार चरितं कृत्स्नं विचित्रपदमर्थवत) ही यह स्पष्ट कर
देता है कि ऋषि वाल्मीकि ने राम के सिंहासनारूढ़ होने के पश्चात् ही इस ग्रंथ
की रचना की थी। यही नहीं बल्कि इस सर्ग के संदर्भ में वह यह भी स्पष्ट करते
हैं कि रावण के पराभव के दृष्टिगत ऋषि द्वारा मूलतः इस ग्रंथ का नाम भी
'पौलस्त्यवध' ही रखा गया था। संभवतः रावण व लवणासुर वध के पश्चात् चुनौती
शून्य हुए दाशरथि-राम के एकच्छत्र शौर्य-मंडल के प्रभाववश ही इस ग्रंथ के मूल
शीर्षक को कालांतर में राम के प्रतीकात्मक भाव अर्थात् 'रामायण' में
रूपांतरित कर दिया गया होगा। चित्रकूट में राम से मंत्रणा कर वापस लौटे भरत
ने राम द्वारा दंडकारण्य वन में बिताए जानेवाले वनवास की शेष अवधि के दौरान
की गतिविधियों पर दृष्टि रखने तथा आवश्यकता पड़ने पर राम को यथायोग्य सहयोग
पहुँचाने की दृष्टि से वल्कल के छद्म वेश में अयोध्या से दूर वाल्मीकि के
आश्रम के निकट वन में ही अपना पड़ाव डाले रखा। इस प्रकार रघुवंशियों के
शुभेच्छु रहे ऋषि वाल्मीकि भी भरत के गुप्तचरों के माध्यम से वनवास काल में
राम द्वारा आद्योपांत संपादित घटनाओं से समय-समय पर अवगत होते रहे थे। यही
कारण है कि उनके द्वारा रचित 'रामायण' के संदर्भो को तात्कालिक घटनाओं के
आकलन के लिए एक प्रामाणिक स्रोत भी माना जाता है। 'वाल्मीकि रामायण' के
अनुसार इसके प्रथम छह कांड का गायन वाल्मीकि के शिष्यों (लव व कुश) द्वारा
राम-दरबार में किया जाता है (काण्डानि षट्कृतानीह पंचसर्गशतानि च
तन्त्रीलयव्यंजनयोगयुक्तं कुशीलवाभ्यां परिगीयमानम्-बा.रा., उ.का. सर्ग-94),
जबकि उत्तर कांड के कुछ भागों का वर्णन राम को अगस्त्य ऋषि ने सुनाया था।
उक्त संदर्भो द्वारा स्पष्ट होता है कि प्रचलित 'वाल्मीकि रामायण' के प्रथम
छह कांड महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित थे, जबकि सातवें कांड (उत्तर कांड) के
36 सर्ग अगस्त्य द्वारा व शेष सर्ग संभवतः द्वापरकालीन कथावाचक लोमहर्षण सूत
द्वारा जोड़े गए रहे होंगे। गुरु द्रोण द्वारा शिष्य एकलव्य से उसके अँगूठे
का बलिदान लेने की घटना या फिर कर्ण को सूत-पुत्र कहकर तिरस्कृत करना अथवा
महाभारत (अनुशासन पर्व) में भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को मुनि-शूद्र के
वृत्तांत द्वारा नीच जाति के मनुष्यों का दीक्षित करने से भी परहेज की सीख
देने आदि का संदर्भ, यह संकेत देता है कि महाभारतकालीन उच्चवर्गीय व्यवस्था
में शूद्रों को बहुत ही हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है। यही कारण रहा कि
महाभारतकालीन सृत द्वारा रचित 'उत्तर रामायण' के संदर्भों में ज्ञान प्राप्ति
के लिए प्रयासरत रहे शद्र शंबूक का स्वयं सम्राट राम के हाथों से अकारण वध
करने के क्षेपक को उचित प्रमाणित किया गया है। निश्चित रूप से उपर्युक्त
घटनाएँ दलितों के प्रति व्याप्त महाभारतकालीन घृणित मानसिकताओं के ही उदाहरण
रहे थे। इस प्रकार भृगु के प्रसिद्ध वंश में उत्पन्न वात्स्य, वैहीनरि,
लुब्ध, मांडव्य, स्तनित, सांकृत्य, गार्हायण, बालाकि, ऐलिक, जविन, कौत्स,
आलुकि, फेनप, पांडुरोचि, चातकि, गोष्ठायन, याज्ञेयि, लालाटि, नाकुलि, सोक्ति,
वांगायनि, शाकटायन, आपस्तंबि, यास्क, जाबालि, सावर्णिक, शौनक आदि-आदि के
उत्तराधिकारियों को जहाँ भारत में 'भार्गव-गोत्रीय' ब्राह्मण के रूप में जाना
जाता है, वहीं दक्षिण-पश्चिम एशिया में इनके वंशज फ्रीगीयंस जाति के रूप में
आज भी विद्यमान हैं।
नारद–ब्रह्मा के मानस-पुत्र नारद अपने विचित्र स्वभाव तथा व्यवहार के कारण
‘वामदेव' के रूप में भी विख्यात रहे थे। नृत्य, गायन व संगीत तथा देशाटन
इन्हें अधिक प्रिय रहा था। संगीत को परिभाषित करते हुए इन्होंने 'नृत्यं गीतं
च वाद्यं त्रयं संगीत मुच्यते' का दृष्टांत प्रस्तुत किया था। रुद्र के
निर्देशन में नारद ने शडज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत व निषाद (सा, रे,
ग, म, प, ध, नी) जैसे सात सुरों, इक्कीस मूर्छनाओं व उनचास तालों के स्वरमंडल
की रचना की। नारद सामवेद के कवि भी माने जाते हैं। भक्ति रस से भी इन्हें
बेहद लगाव रहा था। भक्ति सूत्र की रचना के माध्यम से इन्होंने 'नवधा भक्ति'
(श्रवण, कीर्तन, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, आत्म निवेदन, निराजन व आरती)
का सिद्धांत भी प्रतिपादित किया था। वे अर्थशास्त्र के भी मर्मज्ञ रहे थे।
अर्थशास्त्री के रूप में उनकी रचनाएँ पिशुन के छद्म नाम से लिखी गई थीं। इनके
अलावा नारद द्वारा रचित स्मृति-शास्त्र भी काफी महत्त्वपूर्ण रहा था। नारायण
के प्रति अपनी विशेष अनुरक्ति के कारण इन्हें वैष्णव भी माना जाता रहा था।
इनका अभिन्न मित्र ‘गंधपर्वत' रहा था। अपने घुमक्कड़ स्वभाव के कारण नारद
अपना कोई निश्चित स्थान नहीं बना पाए थे। निवृत्ति परायण ऋषि होने के कारण
इनका कोई वंश-वृत्तांत भी नहीं रहा था, लेकिन शिष्य-परंपरा को विकसित करने के
कारण इनके अनुरूप आचरण करनेवाले उत्तराधिकारियों को भी 'नारद' के ही नाम से
जाना जाने लगा।
यही कारण है कि ब्रह्मा से लेकर कृष्ण तक के काल में. नारद का अस्तित्व
अविच्छिन्न रूप से बना रहा।
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