भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
उपर्युक्त आद्य महर्षियों व ऋषिगणों के अलावा कालांतर में ब्रह्मा के
सान्निध्य में आए कर्दम, ऋभु व गौतम आदि ऋषियों को भी मानस-पुत्रों के ही
समकक्ष मान्यताएँ प्रदान की गईं। संभवतः अपने पूर्ववर्तियों की ही भाँति ये
सभी ऋषिगण भी ब्रह्मा द्वारा व्यक्तिगत रूप से उपर्युक्त विषयक ज्ञान से
प्रदीप्त हुए होंगे। ऋभु एक निवृत्तिपरायण ऋषि हुए तथा कर्दम ने वेद की ऋचाओं
को सृजित किया और वेदज्ञ की उपाधि से प्रतिष्ठित हुए। अक्षपाद गौतम ने प्रमाण
(Right Knowledge), प्रमेय (Object of Right Knowledge), संशय (Doubt),
प्रयोजन (Purpose), दृष्टांत (Illustrative Instances), सिद्धांत (Accepted
Conclusions), अवयव (Premisses), तर्क (Argumentation), निर्णय
(Ascertainment), वाद (Debates), जल्प (Disputations), वितंडा (Destructive
Criticisms), हेत्वाभास (Fallacy), छल (Quibble), जाति (Refutations) और
निग्रह (Points of opponent's defeat) जैसे सोलह अभूतपूर्व तत्त्वों पर
आधारित विश्व के प्रथम न्याय-सूत्र (Civil Code) को प्रतिपादित किया। इन
तीनों के अलावा रुद्र (शिव) के शिष्य रहे अगस्त्य (समुद्र शास्त्र व पोत या
जलयान तथा तमिल भाषा के प्रणेता), सिद्ध थिरुमूलर (अणिमा-Power of Smaller,
महिमा-Power of Expansion, गरिमा-Power of Heavier, लहिमा-Power of
Lightness, प्राप्ति-Faculty of knowing everything, प्राकाम्य-Power to
achieve all one's desire, ईशित्व-Supreme power over animate and inanimate
object of universe a affira-the power command overall by thought or
word-ये कुल आठ प्रकार की सिद्धियों-Super natural power के प्रवर्तक), पर्वत
(राग-रागिनी व वाद्य-यंत्र के अन्वेषक), अकृष्ट (खनिज-विज्ञान के प्रणेता),
प्रष्णि (नृप शास्त्र के रचयिता), धन्वंतरि (औषधि-विज्ञान के प्रवर्तक),
अग्नियोनि (विद्युत्, जल, अग्नि, वाष्प, रत्न, वायु, सूर्य-ताप, चुंबक व
भूगर्भ तरल द्वारा उत्सर्जित नौ प्रकार की ऊर्जा स्रोतों के अन्वेषक),
वानप्रस्थ सोम व राजपुत्र बुध (वनस्पति व हस्तिशास्त्र के प्रणेता) आदि को भी
इन नई विधाओं के प्रति किए गए उनके अभूतपूर्व योगदानों के कारण ही भारतीय
शास्त्रों में मानस-पुत्रों की श्रेणियों में रखा गया (एपिक मायथोलॉजी)।
वस्तुतः ब्रह्मा के मानस-पुत्र तथा रुद्र (शिव) के शिष्यगण ही विश्व के समस्त
ज्ञान-विज्ञान की मूल परंपराओं के सूत्रधार रहे थे। इन आद्य-मनीषाओं के
उत्तराधिकारी के रूप में विभिन्न विषयों में पारंगत ऋषियों की एक सतत शृंखला
रही थी, जिसे ब्रह्मर्षि (ब्रह्मवेत्ता), राजर्षि (भौतिकवेत्ता), विप्रर्षि
(कर्मकांडी) आदि श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया था। वृहदेवता में इन विज्ञ
पुरुषों के अतिरिक्त घोषा, गोधा, विश्वावारा, आसुरि, अपाला, निषत, जूहू,
अगस्तश्वसा, अदिति, रीति, सरमा, रोमसा, उर्वशी, मैत्रेयी, लोपमुद्रा, शचि,
नाट्य, यमी, शाश्वती, श्री, लक्षा, गौरी, वाक्, श्रद्धा, मेधा, दक्षिणा,
रात्रि व सूर्या नामधारी सत्ताईस विदुषी स्त्रियों को भी ऋषियों की श्रेणी
में रखा गया है। इस प्रकार कुत्स, मधुच्छंद, जेत, मेघातिथि, शनुःशेप, ऋषभ,
विश्वचर्षणि, सहस्रवसु, असित, प्रतर्दन, कर्णश्रुत, प्रचेता, उपमन्यु, मंकणक,
मुद्गल, मातरिश्वा, सवित्र, ऐतश, उतक, वैशंपायन, अष्टावक्र, अदिति, वाक्,
घोषा, अपाला, लोपमुद्रा, गौरी, रीति, कट, उद्दालक, यम, नचिकेता, कश्यप,
कर्दप, मार्कंडेय, सौभरि आदि (वैदिक ऋचाओं तथा उपनिषदों के रचयिता); कपिल,
आसुरि व पंचशिख (सांख्य योग यानी भौतिक शास्त्र के रचयिता); औपमन्यव,
औदुपंबरायण, वार्ष्यायणि, आग्रायण, शाकपूर्णि, और्णवाभ, तैटीक, गालव,
स्थौलाष्ठोवि, क्रौष्टुकि, मेधा, कात्थक्य, मैत्रेय, शाकटायन, गार्ग्य,
काशकृत्स्न, यास्क, अपिशलि व पाणिनि (व्याकरण शास्त्र रचयिता); कश्यप, भृगु,
बृहस्पति, लोमस, रोमसा, अत्रि, देवल, गर्ग, रात्रि, वसिष्ठ, अगस्त्य, जैमिनी,
मय, रावण, पराशर, वराहमिहिर (ज्योतिष व खगोल शास्त्र प्रणेता); हिरण्यगर्भ व
पातंजलि (योग-सूत्र प्रणेता); कणाद, कणभुक व कणभक्ष (वैशेषिक दर्शन या
अणु-विज्ञान प्रणेता); आश्वलायन, कात्यायन, याज्ञवल्क्य, शतानंद (धर्मशास्त्र
रचयिता); मय/विश्वकर्मा (वास्तुशास्त्र प्रवर्तक); भैरव (रसायन शास्त्र
प्रणेता); अश्विनी कुमार (शल्य-विज्ञान प्रणेता); पराशर (कृषि-तंत्र
प्रणेता); नाट्य, भरत व वररुचि (नाट्यशास्त्र प्रणेता); सुधन्वा, विशालाक्ष,
भरद्वाज, बुध, श्री व विष्णुगुप्त-कौटिल्य (अर्थशास्त्र रचयिता); श्वेतकेतु,
वाभ्रव्य व विष्णुगुप्त-वात्स्यायन (कामशास्त्र रचयिता); मरुत, शालकायन,
भागुरि, विश्वामित्र व विष्णुगुप्त-चाणक्य (नृप या राजनीति शास्त्र के
रचयिता); पराशर, कृष्ण द्वैपायन, शौनक, सावर्णि, लोमहर्षण शुकदेव (पुराण
रचयिता); आर्य-भट्ट (वर्गमूल व दशमलव सूत्र प्रणेता) आदि-आदि विज्ञ गण अपने
स्तरों से सरस्वती व दृषद्वती के तटों से प्रवाहित होनेवाली ज्ञानोत्री की इन
अमृत धाराओं द्वारा मानवी उत्कंठाओं को तृप्त कराते रहे थे। भौतिक-संसाधनों
को मानवी उपयोगिता के अनुरूप विकसित करने के साथ-साथ इन ऋषियों का उद्देश्य
मानवों को उस आध्यात्मिक सत्य से भी आत्मसात् कराने का रहा था, जो सभी
विचारों के मूल में मानवता को बिना किसी लिंग, जाति व वर्ग विद्वेष के
व्यवस्थित संस्कृति व संस्कार पूर्ण जीवन-यापन करने तथा विश्व-बंधुत्व के
आदर्श को अपनाने की प्रेरणा देता हो।
इन ओजस्वी ऋषियों के ज्ञानोत्रियों से प्रवाहित होनेवाली परा व अपरा विद्याओं
की धाराओं को सामान्यतः ‘श्रुति' (निगम) और 'स्मृति' (आगम) की दो शाखाओं में
विभाजित किया गया है। ऋषियों द्वारा अपनी प्रज्ञा के बल पर सुने गए
'ब्रह्मस्वर' को मानुषी अभिव्यक्ति देने के कारण ज्ञान के इस स्रोत को
'श्रुति' के सार्थक नामों से अलंकृत किया गया। श्रुतियों के अंतर्गत वेद
संहिता सहित इसके व्याख्यात्मक अंश (यानी ब्राह्मण), उपदेशात्मक अंश (यानी
आरण्यक) तथा ज्ञानपरक अंश (यानी उपनिषद्) आते हैं, जबकि मानवी आचार, व्यवहार
व व्यवस्थाओं के निमित्त रचे गए स्मृतियों में दर्शन, धर्मशास्त्र,
पुराण-इतिहास व ग्रंथों को समावेशित किया गया है। पद्य, गद्य व गेय गीत के
तीन भावों के कारण वेद को 'त्रयीविद्या' भी कहा गया है। वेद मंत्रों के सही
उच्चारण, व्युत्पत्ति के आधार पर शब्दार्थ, भाषा-भाव, स्वरूप-संस्कार,
विधि-विधानों व कालगणना के सम्यक् बोध के कारण अपौरुषेय वेद को क्रमशः शिक्षा
(मुख), निरुक्त (कर्ण), व्याकरण (नासिका), छंद (चरण), कल्प (हाथ) व ज्योतिष
(नेत्र) के षटांगों में वर्गीकृत किया गया है। महाभारतकालीन ऋषि कृष्ण
द्वैपायन व्यास ने वेद संहिताओं को इनके स्वरूपों के आधार पर चार मुख्य भागों
में विभाजित किया था। इस संहिता का सबसे प्राचीन व बड़ा भाग पद्यमय है। 'ऋक'
या 'ऋचा' (काव्य-पंक्तियों) से आवृत रहने के कारण यह भाग 'ऋग्वेद' के नाम से
प्रसिद्ध हुआ। इसका पुरातन नाम 'बृहवच्' रहा था। ऋग्वेद में दस मंडल हैं और
इन मंडलों में कुल 1028 सूक्त हैं। 'ऋग्वेद' में सृष्टि रहस्य सहित खगोल
विद्या, गणित, ज्योतिष व मानवी मूल्यों पर विशद प्रकाश डाला गया है। यजुषु
(गद्य) रूप से यज्ञयागादि विधायक मंत्रों को प्रस्फुटित करने के कारण वैदिक
संहिता के दूसरे भाग को 'यजुर्वेद' के रूप में चिह्नित किया गया है। इसका
पुरातन नाम 'विशद' रहा था। यजुर्वेद को कृष्ण व शुक्ल के दो भागों में
विभाजित किया गया है। कृष्ण यजुर्वेद में सात कांड व शुक्ल यजुर्वेद में 40
अध्याय हैं। यज्ञीय कर्मकांडों के अतिरिक्त इसमें रहस्यात्मक विद्या व
आध्यात्मिक ज्ञान से संबंधित विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है। गाए जानेवाले
मंत्रों से परिपूर्ण संहिता के तीसरे भाग को ‘सामवेद' के नाम से जाना गया है।
यह पूर्वार्चिक (650 मंत्रों) व उत्तरार्चिक (1225 मंत्रों) के दो भागों में
विभाजित है। स्तुति गायन की विशेषताओं के कारण इसे सामान्यतः 'उपासना वेद' के
नाम से भी जाना जाता है। गद्य व पद्य मिश्रित संहिता के अंतिम भाग को
'अथर्ववेद' के नाम से चिह्नित किया गया है। इसमें अध्यात्म तत्त्व के अलावा
मारण, सम्मोहन, अभिचार आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। 'अथर्ववेद' में कुल
20 कांड हैं, जिन्हें 38 प्रपाठकों में विभक्त किया गया है। ‘अथर्ववेद'
ज्ञान-विज्ञान दोनों का ही अगाध भंडार है। इसी तरह अपरा विद्या (विज्ञान)
संबंधी पक्ष को विकिरित करनेवाली सर्जनाओं को 'उपवेद' के रूप में परिभाषित
किया गया है। उपवेदों में आयुर्वेद (चिकित्सा विज्ञान), गांधर्व वेद (संगीत
शास्त्र), धनुर्वेद (अस्त्र-शस्त्र अनुसंधान) और अर्थवेद (अर्थशास्त्र /
राजनीति शास्त्र) प्रमुख हैं। इसी प्रकार ब्राह्मणों में संबंधित संहिताओं के
मंत्रों की सम्यक् व्याख्याएँ की गई हैं, जबकि एकांत वनों में गुरु द्वारा
शिष्यों को दिए गए वैदिक उपदेशों के संकलन आरण्यक कहलाते हैं। जहाँ तक
उपनिषद् का प्रश्न है तो यह उप (अजम्न रूप से प्राप्त) व नि (संपूर्ण) उपसर्ग
के साथ सद् (ज्ञान) धातु से क्विप' प्रत्यय जोड़ने पर व्युत्पन्न होता है।
व्याकरणानुसार 'उपनिषीदति प्राप्नोति इति उपनिषदः' के भावार्थवश इसका आशय
ब्रह्म के समीपस्थ होकर ज्ञान का साक्षात्कार करने से सिद्ध होता है। अतः यह
साक्षात् ब्रह्मविद्या है, जिसे जान लेने के बाद और कुछ शेष नहीं बचता।
ब्राह्मणों में ऐतरेय, कौशीतकी, तैत्तिरीय, मैत्रायणी, सत्यायनी, बल्लभी,
शतपथ, सामविधान, आर्षेय, वंश, तलवकार, तांडय, गोपथ व छांदोग्य; आरण्यकों में
ऐतरेय, कौशीतकी, तैत्तिरीय, वृहदारण्यक, जैमिनीय आदि एवं उपनिषदों में
ईशावास्य, केन, कठ, प्रश्न, ऐतरेय, तैत्तिरीय, मुंडक, मांडूक्य, श्वेताश्वतर,
छांदोग्य, वृहदारण्यक व कौशीतकी प्रमुख हैं। इसी प्रकार 'स्मृतियों' के
अंतर्गत आनेवाले धर्मशास्त्रों में सामाजिक अनुशासन को नियंत्रित करनेवाली
विधियाँ, आगमों में सांप्रदायिक विधि-विधान व दर्शनों में जीवन से संबंधित
आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक तत्त्वों का यथार्थ विश्लेषण किया गया है।
धर्मशास्त्रों में त्रिवर्ग, मानव (मनुस्मृति), याज्ञवल्क्य स्मृति, नारद
स्मृति, वसिष्ठ स्मृति, वृहस्पति स्मृति, अत्रि स्मृति, हारीत स्मृति, उशना
स्मृति, शंख स्मृति, दक्ष स्मृति, पुलस्त्य स्मृति आदि; आगमों में शैव (200),
वैष्णव (108) व शाक्त (64 अद्वैतवादी, 10- द्वैतवादी व 18-द्वैताद्वैतवादी);
दर्शनों में सांख्य (सृष्टि-रहस्य), न्याय (तर्क), वैशेषिक (द्रव्य, गुण,
कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव के आधार पर पदार्थों की तात्त्विक
विवेचना), योग (क्रिया-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व
समाधि के आधार पर चित्तवृत्ति निरोध की क्रियाएँ एवं हट), पूर्वमीमांसा (धर्म
जिज्ञासा), उत्तर मीमांसा (ब्रह्म जिज्ञासा अर्थात् आदि शंकराचार्य द्वारा
प्रतिपादित अद्वैतवाद, मध्वाचार्य द्वारा प्रतिपादित द्वैतवाद, आचार्य
रामानुज द्वारा प्रतिपादित विशिष्टाद्वैतवाद, आचार्य वल्लभ द्वारा प्रतिपादित
शुद्धाद्वैतवाद व निंबार्क द्वारा प्रतिपादित द्वैताद्वैतवाद का समष्टि रूप),
चार्वाक (अनीश्वरवाद), बौद्ध (अनात्मवाद), आहत (जैन) व गीता (ब्रह्म विद्या)
तथा पुराणों में ब्रह्म, पद्म, विष्णु, शिव, वायु, अग्नि, श्रीमद्भागवत,
नारद, ब्रह्मवैवर्त, भविष्य, मार्कंडेय, वाराह, स्कंद, कूर्म, मत्स्य, वामन,
गरुड़, ब्रह्मांड, लिंग, देवीभागवत आदि एवं कालजयी ग्रंथों में रामायण व
महाभारत प्रमुख हैं।
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