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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....


ऋषियों के श्रमसाध्य प्रयासों से प्रस्फुटित उपर्युक्त ब्रह्मवाक् (आप्त-विचारों) की थाती को सहेजकर रखने तथा अपने अनुशासित व अनुकरणीय आचरणों द्वारा सामाजिक जीवन में इसका प्रचार व प्रसार करनेवाले ज्ञान के संवाहकों को भारत में ब्राह्मण यानी पथ-प्रदर्शक के रूप में जाना गया। वस्तुतः ब्रह्मणत्व का अभिप्राय उस बृहद् आध्यात्मिक सत्य से है, जो सभी धर्मों के आधार-स्तंभ व सभी विचारों के मूल में मानवता को बिना किसी लिंग, जाति व वर्ग विद्वेष के व्यवस्थित संस्कृति व संस्कारपूर्ण जीवन-यापन करने तथा विश्व-बंधुत्व के आदर्श को आत्मसात् करने की प्रेरणा देता है। मनुस्मृति (1/100) में इस तथ्य की व्याख्या 'ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिव्यामधिजायते ईश्वरः सर्वभूतानां धर्मकोषस्य गुप्तये' (अर्थात् ईश्वर ने सभी प्राणियों के धर्मरूपी धन की रक्षा के लिए ही पृथ्वी पर ब्राह्मणों को उत्पन्न किया है) के रूप में की गई है। किंचित् यही कारण रहे थे कि ब्राह्मणों के लिए 'ब्रह्म जानाति सा ब्राह्मणा' (जो ब्रह्म को जाने वही ब्राह्मण है) या फिर ‘मंत्र ब्राह्मण योर्वेद नामधोयम' (मंत्र व ब्राह्मण का समन्वय ही वेद है) जैसी परिभाषाएँ व्यवहृत हुई थीं। जैन तीर्थंकर महावीर, मुक्त पुरुष को ही 'ब्राह्मण' के रूप में स्वीकार करते थे; उनके अनुसार जो मन, वचन व काया से किसी जीव की हिंसा नहीं करता हो तथा न तो क्रोध में असत्य भाषण करता हो, न हँसी-मजाक में और न ही प्रलोभन में पकड़कर असत्याचरण करता हो, न ही भय में पड़कर उसे ही 'ब्राह्मण' कहा जा सकता है (तसपाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे, जो न हिंस इति विहेण ते वयं ब्रूम माहणं। कोहा वा जई वा हासा कोहा वा जई वा भया, मुस न वयई जो उ ते वयं ब्रूम माहणं-उत्तराध्ययन सूत्र-25/23-24)। इसी प्रकार गौतम बुद्ध, निर्लिप्त व्यक्ति को 'ब्राह्मण' की संज्ञा से परिभाषित करते थे। कमल-पत्र पर जिस प्रकार जल अलिप्त रहता है या फिर आरे की नोक पर सरसों का दाना, ठीक उसी प्रकार जो मनुष्य भोगों में अलिप्त रहता हो अथवा जिसने काया, वाणी या मन से कभी दुष्कार्य न किया हो और जो तीनों कर्मपंथों में संवृत व सुरक्षित हो उसे ही बुद्ध 'ब्राह्मण' की श्रेणी में रखते हैं (वारिपोक्खरपते व आरम्गे रिव सासपो यो न लिम्पति कामेसु ततहं बूमि ब्राह्मणं, यस्स कायेन वाचाय मनसा नल्थि दुक्कतं संवुतं तीहि ठानेहि तमहं वूम्रि ब्राह्मणं-धम्मपद-ब्राह्मणवग्गो-26/97)। मानव धर्मशास्त्र (2/20) में तो इनकी मानव प्रेरक भूमिकाओं को अंगीकार करते हुए स्पष्ट रूप से कहा गया है कि इस देश में उत्पन्न हुए अग्रजों (ब्राह्मण) के आचरणों को अपना आदर्श मानते हुए पृथ्वी के समस्त मानवों को अपने-अपने चरित्रों को उसी अनुरूप ढालने का प्रयास करना चाहिए (एतद्देश प्रसूतस्य एकाशदग्रजन्मनः स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः)। ज्ञान-विज्ञान व मानवता के प्रति समर्पित अपने कष्ट-साध्य प्रयासों के कारण ही सभी विपरीत परिस्थितियों में भी भारत का यह वर्ग वेद, उपनिषद्, स्मृति, शास्त्र, पुराण, चरित्र, गाथा आदि के रूप में आद्य-पूर्वजों के अभिनव वाङ्मय को यथावत् सहेजकर रखने तथा भारतीय वाङ्मय के मूल स्रोत यानी संस्कृत भाषा को कर्मकांडों के माध्यम से जीवित रखने में सफल रहा। जर्मन अध्यापक विष्टर्निट्ज की यह टिप्पणी कि 'जब भारतीय वाङ्मय पश्चिम में सर्वप्रथम विदित हुआ तो लोगों की रुचि भारत से आनेवाले प्रत्येक साहित्यिक ग्रंथ को अति प्राचीन युग का मानने को हुई। वे भारत पर इस प्रकार से दृष्टि डालने लगे कि मानो यही देश न्यून-से-न्यून मानवी सभ्यता की दोला रहा हो' या फिर फ्रेंच लेखक क्रुईझेर का यह कथन कि “विश्व में यदि ऐसा कोई देश है, जो मानवता का पालना होने का दावा कर सकता है या आरंभ से मानव का निवास स्थान रहा हो और जहाँ से प्रगति और ज्ञान की लहरें सर्वत्र पहुंचकर मानवी समाज को पुनर्व्यवस्थित करती रही हों, तो वह देश भारत व सिर्फ भारत ही है" निश्चित रूप से ब्राह्मणों द्वारा सहेजकर रखे गए पूर्वजों के ज्ञान-धरोहर के ही प्रतिफल रहे हैं। ऋषियों के विभिन्न गुरुकुलों से प्रवाहित हुए विचार विशेष का प्रतिनिधित्व करने के कारण सामाजिक स्तर पर ब्राह्मणों की पहचान संबंधित ऋषि विशेष के प्रवरों व गोत्रों द्वारा ही होती रही थी, जो अब मात्र गोत्र-परंपरा की धार्मिक औपचारिकताओं तक ही सीमित होकर रह गई है। कालक्रम में आई सामाजिक विकृतियों व वैचारिक प्रदूषणों के कारण लिंग, जाति, वर्ग व क्षेत्र के प्रति ब्राह्मणों का परंपरागत अन्यमनस्क भाव तथा नैसर्गिक आचरण बहुत हद तक प्रभावित तो अवश्य हुआ है, परंतु प्राचीन संस्कृति, संस्कार व संस्कृत-भाषा के प्रति इनका स्वभाविक मोह कमोबेश रूप से अब भी बना हुआ है। अपनी इन्हीं गुरुत्वपूर्ण भूमिकाओं के कारण सामाजिक वैमनस्यताओं के लिए अप्रत्यक्ष रूप से जहाँ मात्र इन्हें ही दोषी माना जा सकता है, वहीं सामाजिक सौहार्द तथा वसुधैव कुटुम्बकम् के भाव को चरितार्थ करने के इनके मानसिक सामर्थ्य पर प्रश्नचिह्न भी नहीं लगाया जा सकता है।

'ऋग्वेद' का यह मंत्र कि सत्य एक ही है, जिसे विद्वान् नाना विधि से संबोधित करते हैं (एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति-ऋग्वेद 1.16.46), निश्चित रूप से वैचारिक संतुलन स्थापित करने की ही एक कड़ी है। भौतिकता के आज के ऊहापोह में स्वार्थपरक एवं कुंठित मानसिकता से वशीभूत होने के बजाय वैश्विक संतुलन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ब्राह्मणों या बुद्धिजीवी वर्गों के लिए यह आवश्यक है कि वे वेद वर्णित विशुद्ध भारतीय भाव की गरिमा को पूरी तन्मयता के साथ आत्मसात् करते हुए समरसता के उत्कृष्ट दृष्टांत को समाज में प्रतिष्ठापित करने का प्रयास करें। सही मायने में प्रतिपादित ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्' की भारतीय अवधारणा तभी जाकर फलीभूत हो सकेगी। हमारा यह निष्कपट प्रयास ही ब्रह्मा के मानस-पुत्रों तथा उनके मेधावी उत्तराधिकारियों को दी जानेवाली सच्ची श्रद्धांजलि होगी, जिसकी उन दिव्य आत्माओं को आतुरता से प्रतीक्षा भी है।

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