भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
|
6 पाठकों को प्रिय 145 पाठक हैं |
प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
मानस-पुत्रों की परंपरा को विकसित कर लेने के पश्चात् आदि-पुरुष (ब्रह्मा) को
शारदा नामक शिष्या से एक मैथुनी-पुत्र की प्राप्ति हुई। स्वायंभुव के नाम से
विख्यात हुए ब्रह्मा के इस औरस-पुत्र के वंशजों से ही मनुओं (समाज-सुधारकों),
प्रजापतियों व राजाओं की विश्वव्यापी परंपरा का सूत्रपात हुआ। इस प्रकार
मानवों को अनुशासित जीवन-यापन करने का पाठ पढ़ाने के लिए 'स्मति' नामक
अचार-संहिताओं की रचना के साथ-साथ सामाजिक गटबंधनों का प्राकट्य, फिर
आचार-व्यवहार के अनुरूप मानवों का समूह विशेष (कबीलों) में विभाजित होना तथा
इसी आधार पर ग्राम व जनपदों का अस्तित्व उभरकर सामने आया। कालांतर में जनपदों
को नियंत्रित करने के लिए प्रजा (जन) द्वारा चयनित 'प्रजापति व्यवस्था' तथा
इसके अनंतर से विकसित हुए जनपद समूहों को उनकी भौगोलिक स्थितियों के अनुसार
वर्ष (राज्य) विशेष में बाँटते हुए इन्हें 'राजा' नामक एक सत्ता संचालक के
अधीन कर दिया गया।
प्रस्तुत अध्याय में ब्रह्मा के औरस-पुत्र से प्रारंभ हुई मैथुनी वंशावलियों
के जलप्लावन की घटना से पूर्व की शृंखलाओं का समकालिक व्यवस्थाओं सहित
विस्तार से वर्णन किया गया है।
|