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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....

ब्रह्मा के औरस-पुत्र एवं उनके वंशज


सनकादि मुनियों, मरीचादि महर्षियों तथा भृगु आदि ऋषिगणों को अपना मानस-पुत्र स्वीकार कर लेने के कुछ काल बाद शारदा नामक एक परम विदुषी शिष्या से आदि-पुरुष ब्रह्मा को भी एक औरस-पुत्र की प्राप्ति हुई। ‘स्वयंभू' अर्थात् स्वतः प्रकट अपने अस्तित्व की गरिमा के अनुरूप ही ब्रह्मा ने अपने इस पुत्र का नाम 'स्वायंभुव' रखा (ततो ब्रह्मऽऽत्मसम्भूतं पूर्व स्वायम्भुवं प्रभुः आत्मानेव कृतवान्प्रजापाल्ये मनुं द्विज-विष्णु पुराण-1.7.16)। इधर ब्रह्मा के समकालिक अमैथुनीय सृष्टि के मानवी-युग्मों द्वारा उत्पन्न मैथुनीय संतानें कालक्रम में शारीरिक आवश्यकताओं के अनुरूप भोजन, निवास तथा सर्दी आदि से बचने के लिए पशु-चर्म या वृक्षों की छाल व पत्तों का प्रयोग करना तो सीख चुके थे, किंतु उनके आपसी रहन-सहन का दायरा मात्र पारिवारिक इकाई तक ही सीमित था। माता की ममता से आप्त तथा सर्वज्ञ पिता से विधिपूर्वक दीक्षित होकर स्वायंभुव ने लगभग आचार-शून्य से यत्र-तत्र बिखरे पड़े इन मानवी-परिवारों को सामाजिक अनुशासन का पाठ पढ़ाते हुए इन्हें सांगठनिक-सूत्रों में पिरोना शुरू कर दिया। अपनी जन्मस्थली मेरु (हिमालय) क्षेत्र से प्रारंभ किए गए स्वायंभुव के इन श्रम-साध्य प्रयासों के फलस्वरूप पृथ्वी का एकांगी मानवी परिवेश धीरे-धीरे सामाजिक ढाँचे में परिवर्तित होने लगा। ब्रह्मा के त्रिवर्ग-शास्त्र पर आधारित स्वायंभुव का कुल चौबीस मानवी प्रकरणों पर दिया गया अनुशासन उपदेश कालांतर में 'बृहच्छास्त्र' नामक एक स्वतंत्र कृति के रूप में विख्यात हुआ। मानवी सुधार के अपने समर्पित उद्देश्यों के कारण जन-समुदाय में ब्रह्मा का यह पुत्र 'मनु' के अतिरिक्त विशेषण से संबोधित किया जाने लगा। इस प्रकार ब्रह्मा के मानस-पुत्रों द्वारा संचालित गुरुकुलों व आश्रमों में जहाँ मानवी उपयोगिताओं से संबंधित भौतिक संसाधनों व आध्यात्मिक ज्ञान के विकास पर जोर दिया जाता रहा, वहीं ब्रह्मा के औरस पुत्र स्वायंभुव मनु का सारा प्रयास मानवों में सामाजिक अनुशासन को प्रतिष्ठापित करने का ही रहा था। भारतीय शास्त्रों में ब्रह्मा से लेकर विश्वप्रसिद्ध जलप्लावन (प्रलय) के काल तक के विभिन्न अंतरालों में मानवी-अनुशासन के प्रणेताओं के रूप में 'स्वायंभुव मनु' के अलावा कुल छह और मनुओं के होने का संदर्भ मिलता है। भारतीय समाज में इन मनुओं को क्रमशः स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष व वैवस्वत के नामों से स्मरण किया जाता रहा है।

प्रजापति व्यवस्था


इस तरह मनु के प्रयासों से निर्मित सामाजिक धरातल पर शनैः-शनैः मानवी बस्तियाँ अंकुरित होती चली गईं। साथ ही इन विकसित हुए विभिन्न कबीलों में आपसी अहं की टकराहटों का दौर तथा निरंतर बढ़ रही प्रजा के भोजन, रहन-सहन, कार्य विभाजन व सुरक्षा की समस्याएँ भी उट खड़ी हुईं। इसके निदान के लिए मनु को एक सर्वमान्य, योग्य व सक्षम व्यवस्थापक की नियुक्ति की आवश्यकता अनुभव हुई। तदनुसार सृजित इस तरह के पद को 'प्रजापति' कहकर पुकारा जाने लगा। वस्तुतः सर्वमान्य तथा प्रजा द्वारा चयनित होने के कारण जनता का प्रजापति के प्रति शासक की अपेक्षा श्रद्धा का अन्यमनस्क भाव ही जुड़ा रहा। यही कारण रहा कि प्रजापतियों द्वारा किए गए जनहित के प्रबंधनों को बिना किसी शंका या शासन भय के जनता द्वारा सहर्ष स्वीकार किया जाने लगा।

स्वायंभुव मनु को शतरूपा नामक स्त्री से प्रियव्रत व उत्तानपाद नामक दो पुत्र तथा आकूति, देवहूति व प्रसूति नामक तीन कन्याएँ हुईं (यस्तु तत्र पुमान् सोऽभून्मनुः स्वायम्भुवः स्वराट् स्त्री याऽऽसीच्छतरुपाख्या महिष्यस्य महात्मनः तदा मिथुनधर्मेण प्रजा येधाम्बभूविरे च चापि शतरूपायां पंचापत्यान्यजीजनत् प्रियव्रतोत्तानपादौ तिस्त्रः कन्याश्च भारत आकूतिर्देवहूतिश्च प्रसूतिरिति सत्तम-भागवत-3/12/53-55)। मनु के इन्हीं दोनों पुत्रों से मानवी समाज में मनुओं के अतिरिक्त प्रजापतियों की भी परंपरा विकसित हुई। प्रियव्रत की शाखा में कुल तीन मनु तथा पैंतीस प्रजापति हुए, जबकि उत्तानपाद की शाखा में दो मनु तथा दस प्रजापति हुए। इनके अलावा प्रियव्रत व उत्तानपाद की सम्मिलित शाखा में उत्पन्न अदिति नामक स्त्री का महर्षि मरीचि के कुल में उत्पन्न कश्यप के पुत्र विवस्वान (सूर्य) व भृगुवंशीय त्वष्टा पुत्री रेणु (संज्ञा) के पुत्र के रूप में श्राद्धदेव (शतपथ ब्राह्मण) इस क्रम के अंतिम प्रजापति हुए, जो कालांतर में वैवस्वत मनु के नाम से प्रसिद्ध हुए (मनुर्विवस्वतो ज्येष्ठः श्राद्धदेवः प्रजापति-वायु पुराण-84.38)। स्वायंभुव मनु ने प्राथमिकता के आधार पर अपने सुयोग्य ज्येष्ठ पुत्र प्रियव्रत को मेरु क्षेत्र से संबंधित आसमुद्र भूखंड (यूरेशिया व अफ्रीका) का तथा उत्तानपाद को इसके उत्तर के द्वीप का प्रजापति नियुक्त किया। इसी तरह उन्होंने अपनी कन्या प्रसूति को दक्ष, देवहूति को कर्दम तथा आकृति को रुचि को समर्पित किया (आकूति रुचये प्रादात्कर्दमाय तु मध्यमाम् दक्षायादात्प्रसूति च यत आपूरितं जगत्-भागवत्-3/12/56)।

प्रियव्रत-शाखा


स्वायंभुव मनु के ज्येष्ठ पुत्र प्रियव्रत को प्रजावती नामक स्त्री से आग्नीघ्र, मेघातिथि, वपुष्मान, द्युतिमान, ज्योतिमान, भव्य, सवन, मेघा, अग्निवाहु व मित्र ये कुल दस पुत्र तथा सम्राट् व कुक्षि नामक दो कन्याएँ हुईं (विष्णु पुराण-2.1.5)। वीर प्रजापति प्रियव्रत के इन दस पुत्रों में अंतिम तीन वीतरागी मुनि हो गए, अतः पिता द्वारा अपने हिस्से में मिले आसमुद्र भूमिखंड (यूरेशिया व अफ्रीका के क्षेत्र) को वे शेष बचे सातों पुत्रों में बाँटते हुए इसकी व्यवस्था के लिए उन्हें संबंधित क्षेत्रों का प्रजापति नियुक्त कर दिया। इस प्रकार आग्नीघ्र को जामुन अर्थात् जंबू वृक्ष की अधिकतावाला क्षेत्र यानी जंबूद्वीप (एशिया), मेघातिथि को प्लक्ष वृक्षों की भूमि यानी प्लक्ष द्वीप (मध्य यूरोप-जर्मनी, यूगोस्लाविया, हंगरी, रोमानिया), वपुष्मान को सेमल वृक्षों की धरती यानी शाल्मल द्वीप (स्कैंडेनेविया), द्युतिमान को क्रौंच पक्षियों का क्षेत्र यानी क्रौंच द्वीप (पश्चिमी-दक्षिणी यूरोप-पुर्तगाल, स्पेन, फ्रांस, इटली, स्विट्जरलैंड, आस्ट्रिया, यूगोस्लाविया, बल्गारिया, अल्वानिया व यूनान), ज्योतिमान को कुश नामक तृण से आवृत क्षेत्र यानी कुश द्वीप (अफ्रीका), भव्य को शाक नामक वनस्पति की प्रचुरतावाला भू-भाग यानी शाक द्वीप (अरब व ओमान का क्षेत्र) तथा सवन को पुष्कर द्वीप (लैपलैंड व उत्तरी रूस) प्राप्त हुआ।

प्रियव्रत के ज्येष्ठ पुत्र आग्नीघ्र को कुल नौ पुत्र हुए। यथासमय तक प्रजापति का दायित्व निभाने के बाद जंबूद्वीप के क्षेत्र को अपने नौ पुत्रों में बाँटकर वे शालग्राम में जाकर तपस्यारत हो गए। इस तरह आग्नीघ्र के पुत्रों में नामि को हिमवर्ष (अपगणस्थान या अफगानिस्तान व बर्मा या म्यांमार सहित हिमालय से दक्षिण का क्षेत्र), किम्पुरुष को हेमकुट (तुर्कमान या काराकुरम का क्षेत्र), हरिवृत को नैबध (निस्सा पार्वत्य क्षेत्र-पूर्वी एशिया), इलवृत को इलावर्त (पर्शिया या ईरान), रम्य को नीलांचल (काकेशियस क्षेत्र व उससे सटा पश्चिमी व उत्तरी हिस्सा), हरिष्यान् को श्वेतांचल (साइबेरिया का क्षेत्र), कुरु को शृंगवान प्रदेश (मेसोपोटामिया या इराक, टर्की, सीरिया, जॉर्डन, इजराइल का क्षेत्र), भद्राश्व को माल्यवान देश (तिब्बत व मंगोलिया का प्रांत) तथा केतुमाल को गंधमादन देश (हिंदुकुश से सुदूर उत्तर का उजबेकिस्तान का क्षेत्र) प्राप्त हुआ।

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