नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर बिना दीवारों के घरमन्नू भंडारी
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स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....
अजित : अप्पी कैसी है?
जीजी : एकदम अच्छी है।
(बल्लू का प्रवेश)
नौकर : जी, आपने बुलाया, साब?
अजित : चाय लाओ बल्लू। (नौकर का प्रस्थान)
जीजी : अजित, चार दिन हो गए शोभा को आए! एक बार भी तुम उससे नहीं बोले। भीतर
आना तुमने एक तरह से बन्द कर रखा है। आख़िर क्या चाहते हो तुम?
अजित : मैं? मैं तो कुछ नहीं चाहता, जीजी!
जीजी : समझदारी से काम लो अजित! डोरी इतनी ही खींचनी चाहिए कि टूटे नहीं।
अजित : (खिन्न से स्वर में) डोर तो शायद टूट चुकी है जीजी!
जीजी : पागल है, कहीं कुछ नहीं टूटा। जो कुछ टूटा भी है उसे जोड़ लो!
अजित : क्या करूँ, कैसे जोड़ लूँ?
जीजी : यह सब मेरे बताने की बातें नहीं हैं, तुम्हारे अपने समझने-करने की बातें
हैं! शोभा भी तो आजकल कुछ नहीं बोलती। पहले तो मन की बात कहा करती थी, अपने।
सुख-दुख बताया करती थी। अब तो हाँ-ना के सिवाय उसके मुँह से भी कुछ नहीं
निकलता। सारे दिन बैठी-बैठी कुछ सोचती रहती है। कभी-कभी अप्पी को चिपटाकर रोती
है। उसका दर्द मैं समझती हूँ, अजित वह लौटकर आई और तुमने फूटे मुँह से बात तक
नहीं की उससे! कितना अपमानित महसूस कर रही होगी वह!
अजित : मेरी कुछ समझ में नहीं आता जीजी, मैं क्या बात करूँ?
(कुछ ठहरकर) कॉलेज में इस्तीफ़ा भेज ही दिया क्या? कॉलेज तो नहीं जाती!
जीजी : हो सकता है भेज दिया हो! मैंने कहा न वह मुझसे भी कोई बात नहीं करती है
आजकल। (नौकर चाय रखकर चला जाता है। जीजी चाय बनाती हैं) शोभा अब किसी की
बात नहीं सुन सकती, चाहे साहनी साहब हों चाहे लाट साब! वे कॉलेज के सेक्रेटरी
हैं, निजी बातों से उन्हें क्या मतलब?
(नौकर का फिर प्रवेश)
नौकर : मालकिन, पीछे वालों की बिटिया आपको बुलाने आई है, उधर की बीबीजी ने
बुलाया है।
जीजी : किसे, मुझे?
नौकर : जी, कोई जरूरी काम है।
जीजी : अच्छा, चलो।
(नौकर और जीजी का प्रस्थान। अजित अकेला बैठा चाय पीता रहता है। भीतर से शोभा का
प्रवेश। एक क्षण खड़ी रहती है।)
अजित : चाय बना दूँ तुम्हारे लिए?
शोभा : (बैठते हए) मैं बना लूँगी। (चाय बनाने लगती है)
अजित : अप्पी अब तो बिलकुल ठीक है न? डॉक्टर आए थे?
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