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नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर

बिना दीवारों के घर

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2782
आईएसबीएन :81-7119-759-0

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स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....


शोभा : आए थे, कह गए कि बिलकुल ठीक है। अब कहीं भी आ-जा सकती है।

अजित : तो कल से उसे स्कूल जाना शुरू कर देना चाहिए।

शोभा : मैं उसे अपने साथ ले जाना चाहती हूँ।

अजित : (माथे पर बल पड़ जाते हैं) कहाँ?

शोभा : जहाँ भी मैं रहूँ। चाहती हूँ वह मेरे साथ ही रहे। पहले भी आपने व्यर्थ ही ज़िद करके उसे रोक लिया। मेरे बिना वह रह नहीं सकती।

अजित : (एक मिनट शोभा को देखता रहता है) देखो शोभा, मैं जानता हूँ कि तम्हारे किसी भी मामले में दखल देने का अधिकार मुझे नहीं है। पर अप्पी के मामले में तो कम-से-कम-

शोभा : यही सब कहकर तो आपने पहले भी रख लिया था। फिर क्या हुआ? इस बार मैं उसे साथ लेकर ही जाऊँगी!

अजित : (एक मिनट ठहरकर) सुना है तुमने नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया है, जान सकता हूँ, अप्पी के रहने की क्या व्यवस्था होगी?

शोभा : नौकरी चली भी जाएगी तो अप्पी को रखने की सामर्थ्य मुझमें है। विश्वास रखो, पापा के प्यार के अलावा उसे किसी चीज़ की कमी महसूस नहीं होने दूंगी। (स्वर भारी हो उठता है।)

अजित : (व्यंग्य से) पापा के प्यार की कमी। हुँ ऽ! (शोभा का मुँह क्षण भर को तमतमा-सा जाता है। फिर अपने को संयत कर लेती है) और यदि नहीं भेजें तो-

शोभा : आपकी यह ज़िद अप्पी के साथ कितना बड़ा अन्याय होगा, यह भी आपने सोचा है? अभी मैं यहाँ थी, आ गई। हो सकता है मैं यहाँ न रहूँ या कि यहाँ रहकर भी आना पसन्द नहीं करूँ, तब? हम अपनी कमियों और ग़लतियों की सजा इस बेक़सूर बच्ची को क्यों दें?

अजित : तुम यह कह रही हो? बच्ची का इतना ख़याल है तुम्हें?

शोभा : क्यों नहीं है? ख़याल न होता तो चली आती यों?

अजित : (तौलती हुई नज़रों से देखकर) अप्पी को भेजना तो शायद मेरे लिए सम्भव नहीं होगा!

शोभा : क्यों?

अजित : कोई आवश्यकता नहीं कि मैं तुम्हारे हर प्रश्न का उत्तर दूँ ही!

शोभा : (आवेश में) और यदि मैं भी कहूँ कि मैं अप्पी को लेकर ही जाऊँगी तो?

अजित : किस अधिकार से?

शोभा : मैं उसकी माँ हूँ। उसे ले जाने के लिए इससे बड़े किसी अधिकार की ज़रूरत नहीं है। बच्चे पर पहला हक़ माँ का होता है।

अजित : ओ-होऽ-? तो क़ानून की बात कर रही हो? तब तो शोभाजी, सोचता हूँ फिर कोर्ट में ही इसका फैसला हो तो ज़्यादा अच्छा होगा।

शोभा : उसके पापा हो। झूठे अभिमान ने तुम्हें इतना अन्धा दिया है कि तम्हें उसका भी खयाल नहीं?

अजित : यह बात तो मुझे तुमसे कहनी चाहिए।

शोभा : मैं जानती हूँ कि तुम अप्पी को क्यों नहीं भेजना चाहते हो।

अजित : क्या जानती हो?

शोभा : तुम सोचते हो कि तुम अप्पी के बहाने मुझे इस अपमानजनक स्थिति में रहने को मजबूर कर सकोगे। पर ऐसा होगा नहीं, ऐसा हो नहीं सकता!

अजित : बड़े खूबसूरत मुग़ालते हैं अपने बारे में!

शोभा : अपने बारे में कुछ भी हो, पर तुम्हें मैं खूब अच्छी तरह समझती हूँ। एक बार फिर सोच लो। अप्पी का ख़याल करके सोच लो-

अजित : कहा न, मैं तो सोच चुका, अब तो सोचने की बारी तुम्हारी है!

शोभा : (ठंडी साँस लेकर) ठीक है, तो मैं अकेली ही चली जाऊँगी। जहाँ मैंने अपने भीतर की पत्नी को मारा है, वहीं अपने भीतर की माँ को भी मार दूंगी। बच्ची की कुर्बानी से यदि तुम्हारा अहं सन्तुष्ट होता है, तो उस मासूम बच्ची की भी कुर्बानी करो!

(शोभा गुस्से से भीतर चली जाती है। अजित उस ओर ही देखता रहता है फिर उठकर भीतर चला जाता है। धीरे-धीरे अन्धकार। थोड़ी देर बाद शोभा भीतर से आती है, बत्ती जलाती है। उसके हाथ में एक अटैची और कुछ फ़ाइलें आदि हैं। वह बड़ी उदास-सी नज़रों से कमरे में देखती है। अप्पी के जमे हुए खिलौने, उसकी तस्वीर, सब पर नज़र ठहरती है, फिर एकदम तेजी से निकल जाती है।)

(पर्दा गिरता है।)

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