नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर बिना दीवारों के घरमन्नू भंडारी
|
19 पाठकों को प्रिय 180 पाठक हैं |
स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....
शोभा : (चाय पीते-पीते) एक बात पूछूँ?
अजित : एक क्यों, सैकड़ों बातें पूछो। एक घंटे तक जो मर्जी आए पूछो!
शोभा : एक प्रस्ताव आया है मेरे पास।
अजित : प्रस्ताव? कैसा प्रस्ताव, किसका प्रस्ताव?
शोभा : यहाँ के महिला विद्यालय में प्रिंसिपल की जगह खाली है। तुम कहो तो अर्जी
दे दूँ।
अजित : पर प्रस्ताव आया कहाँ से?
शोभा : बस समझ लो, आ गया। तुम कहो तो अर्जी दे दूँ?
अजित : (समझते हुए) प्रस्ताव अपने आप तो चलकर आया नहीं होगा। तुम चाहे न बताओ,
पर मैं जानता हूँ कि जयन्त के सिवा और कोई ला नहीं सकता।
शोभा : हाँ, जयन्त ही लाए हैं, पर उससे क्या फ़र्क पड़ता है?
अजित : (स्वर एकाएक ही बदल जाता है) मुझसे क्या पूछती हो? जो तुम्हारी समझ में
आए करो। न हो तो जयन्त से सलाह ले लो।
शोभा : (गरम होकर) क्या मतलब?
अजित : मतलब क्या, कुछ नहीं। वह प्रस्ताव लाया है, उसे मालूम होगा कि यह
प्रस्ताव तुम्हारे लायक़ है या नहीं। या कि तुम काम के लायक़ हो या नहीं।
शोभा : मैं तुमसे पूछ रही हूँ, तुम क्या चाहते हो?
अजित : आदमी को उतना ही बढ़ना चाहिए, जितनी उसकी औक़ात हो।
शोभा : यदि मैं सोचती हूँ कि सम्हाल लूँगी तब तो आपको कोई आपत्ति नहीं है न?
अजित : (कुछ देर चुप रहकर) देखता हूँ, पिछले कुछ दिनों से तुम्हें अपने को लेकर
काफ़ी भ्रम हो चला है। कॉलेज में पढ़ाना और कॉलेज चलाना दो अलग-अलग बातें हैं,
समझीं? फिर महिला विद्यालय अच्छा कॉलेज है। यह जयन्त है कि झूठ-मूठ तुम्हें
आसमान पर चढ़ाने की कोशिश करता रहता है।
शोभा : और तुम हो कि मुझे रात-दिन धरती पर घसीटने की कोशिश करते रहते हो! मैं
पूछती हूँ आखिर क्यों?
अजित : (उत्तेजित होकर) इसलिए कि मैं तुमसे ज़्यादा तुमको, तुम्हारी योग्यता और
तुम्हारी सीमाओं को समझता हूँ। एक घर तो तुम ठीक तरह से चला नहीं सकतीं, कॉलेज
चला लोगी!
शोभा : तो तुम चाहते हो मैं अर्जी नहीं दूँ?
अजित : चाहने की बात क्या है, मैं ऐसा सोचता हूँ।
शोभा : मुझे तो पहले से ही मालूम था कि तुम मना करोगे।
अजित : पहले से ही मालूम था तो फिर पूछा क्यों?
शोभा : इसलिए कि एक बार तुम्हारे ही मुँह से सुनना चाहती थी। मैं कुछ कहती
नहीं, इसका यह मतलब नहीं कि मैं तुम्हें समझती नहीं। तुम्हारी हर बात, हर
मनोभाव खूब अच्छी तरह समझती हूँ। मैं अर्जी दूंगी, और यह काम मुझे मिल गया तो
दिखा भी दूँगी कि तुम जितना अयोग्य मुझे समझते हो, उतनी मैं हूँ नहीं।
अजित : (आवाज को संयत करके) तुमने बेकार ही यह बात चलाई शोभा! जब तुम अपने बारे
में, अपनी योग्यता के बारे में, इतनी आश्वस्त हो तब बेकार ही मुझे बीच में
घसीटा। ऐसी हालत में तो न मुझे पूछने की ज़रूरत थी, न मेरी राय लेने की।
(शोभा चुपचाप चाय के बरतन उठाकर अन्दर चली जाती है। अजित एक नई सिगरेट सुलगाकर
सोफे पर लेट-सा जाता है। सिगरेट का धुआँ उसके चारों ओर छाने लगता है। धीरे-धीरे
अन्धकार हो जाता है।)
|