नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर बिना दीवारों के घरमन्नू भंडारी
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स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....
जीजी : ठीक ही तो कहती है। तूने उसको ऐसा सिर चढ़ा रखा है कि कहना तो वह किसी
का सुनती ही नहीं।
अजित : कौन कहता है कि वह कहना नहीं सुनती? आप लोग तो उसके पीछे हाथ धोकर पड़ी
रहती हैं। लाओ, दो डिब्बा (अलमारी के ऊपर रखते हुए) देखिए, यहाँ रखता हूँ, और
गिनकर रोज़ दो सवेरे और दो शाम को दिया करूँगा। अच्छा, गरम चाय पिलवाओ।
जीजी : (चाय के बरतन समेटते हुए) अभी लाई।
शोभा : आप बैठिए, अब तो मुझे लाने दीजिए।
(बरतन लेकर भीतर जाती है। जीजी भी पीछे-पीछे जाती हैं। अजित कोट और जूते उतारकर
सोफे पर ही लेट-सा जाता है। एक सिगरेट निकालकर सुलगाता है कि फ़ोन की घंटी बजती
है। ज़रा झुंझलाकर उठता है।
अजित : कौन है! (फ़ोन उठाता है) हलोऽ-शोभाजी? (एक क्षण सोचकर) जी, मेहरबानी
करके आधा घंटा बाद फ़ोन कर लीजिए।
(फ़ोन रखता है कि शोभा का प्रवेश।)
शोभा : किसका टेलीफ़ोन था?
अजित : (लापरवाही से) पता नहीं, तुम्हें पूछ रहा था कोई। कह दिया। आध घंटे बाद
कर लेना।
शोभा : कमाल करते हैं आप भी! मैं यहीं तो थी। कौन था कम-से-कम नाम तो पूछ लेते।
अजित : क्यों भन्ना रही हो? आधा घंटे बाद कर लेगा। तुम तो चाय पिलाओ गरम-गरम।
शोभा : मैं इस तरह तुम्हारा फ़ोन रख दूं तो।
अजित : आजकल तुम बात-बात में मेरी बराबरी करने में क्यों लगी हो? कह तो दिया कि
कर लेगा आध घंटे बाद।
(शोभा चुपचाप चाय बनाती है।)
अजित : आज अप्पी के लिए नाच सीखने की व्यवस्था कर दी है।
घर आकर ही सिखा देंगे सप्ताह में दो दिन।
शोभा : क्या लेंगे?
अजित : चालीस रुपए (कुछ ठहरकर) तुमने गाना तैयार कर लिया? नहीं किया हो तो कर
लो। मीना यह न कहे कि आकर घास काट गई शोभा।
शोभा : रात को करूंगी। पर आप कल अपनी शाम खाली रख सकेंगे या नहीं? आप नहीं
चलेंगे तो मैं भी नहीं गाऊँगी।
अजित : एकदम खाली। अरे, मैं पहली पंक्ति में बैठकर तुम्हारा गाना सुनूँगा,
समझीं।
(शोभा को हँसी आ जाती है।)
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