नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर बिना दीवारों के घरमन्नू भंडारी
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स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....
(शोभा का प्रवेश)
शोभा : यह क्या, फिर अप्पी ने अटैची यहीं छोड़ दी?
जीजी: छोड़ दी? सारी किताबें फैली पड़ी थीं। उधर आकर बोली-बुआजी, पेंटिंग हमने
कर ली है, तैयार कर दीजिए, पार्क जाएँगे। यहाँ आकर देखा तो काग़ज़, पानी, रंग,
ब्रश, सब फैले पड़े हैं। इसे कभी अकल नहीं आएगी।
शोभा : गई वह पार्क?
जीजी : हाँऽ! बिट्टी, टोनी आए थे, उनके साथ चली गई।
शोभा : (हँसी आ जाती है) पाजी कहीं की! दूध पिया या नहीं?
जीजी : दूध पीने में वह कौन कम फ़ितूर मचाती है? तुम्हारे लिए चाय ले आऊँ?
शोभा : आप बैठिए जीजी, मैं खुद बनाकर लाती हूँ।
जीजी : (चिट्ठियाँ देते हुए) तुम ये देखो, मैं लाई। पानी तो रखकर ही आई थी,
खौलने ही वाला होगा।
(जाने लगती है फिर एकाएक जैसे कुछ याद आता है)
तुम्हारा फ़ोन आया था, मीना का। कहा अजित जी ने इजाज़त दे दी है। अब गाना
तैयार कर लेना और ठीक समय पर पहुँच जाना।
(जीजी जाती हैं। शोभा चिट्ठी पढ़ने लगती है। थोड़ी देर में जीजी चाय लेकर आती
हैं। शोभा चाय बनाती है।)
जीजी : मीना तो मुझे बड़ी भली लगी। ग़लत या अनुचित काम करनेवाली तो लगी नहीं।
जयन्त का ही दोष होगा सारी बात में।
शोभा : ऐसी बातों में किसी एक को दोषी ठहराना ज़रा मुश्किल होता है जीजी। फिर
शुरू में तो जयन्त का दोष था भी। अपनी स्टैनो से उसके सम्बन्ध-
जीजी : मुझे भी किसी ऐसी ही बात का शक था। यों मैंने तुमसे कभी इस बारे में बात
नहीं की, पर डर मुझे कुछ ऐसा ही था। अब तुम लोगों का दोस्त है सो...
शोभा : नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है जीजी। कभी-कभी ज़िन्दगी में ऐसा हो जाता है।
उसका भी कारण था। मीना कुछ ज़्यादा ही आर्यसमाजी क़िस्म की थी। जयन्त अंग्रेज़ी
कम्पनी में काम करता था-दोनों की जिन्दगियों के ढर्रे कुछ अलग-अलग थे। इसी से
शायद जयन्त थोड़ा भटक गया। वरना इतने दिनों से यहाँ भी आ रहा है, ऐसा तो कुछ-
जीजी : बुरा न मानो तो एक बात कहूँ। आई थी तो सुना था कि जयन्त अजित का जिगरी
दोस्त है। पर इधर तो देखती हूँ अजित के पास तो वह कम ही बैठता है।
शोभा : (ज़रा-सा तेज़ होकर) जीजी, आप कहना क्या चाह रही हैं? इनके पास कोई बैठे
क्या? इन्हें इधर दो साल से फुर्सत भी मिलती है अपने ऑफ़िस से? सारे समय ऑफ़िस
में रहते हैं, घर आते हैं तो ऑफ़िस खोलकर बैठ जाते हैं। बरसों से जयन्त शाम को
यहाँ आते हैं। पहले मीना भी आया करती थी, अब अकेले आते हैं। आप जितनी अनुभवी
चाहे न होऊँ, पर थोड़ी परख आदमी की मुझे भी है।
जीजी : तुम नाराज़ मत होओ, शोभा! मुझे जैसा लगा कह दिया।
(कुछ ठहरकर) कभी-कभी आदमी अपना सुख खो बैठता है, तो चाहता है सारी दुनिया का
सुख लूट ले। पर अपनी इस भावना को शायद वह भी नहीं जानता।
शोभा : दुनिया का क्या सुख लूटेंगे बेचारे! यों ऊपर से सभी ठाठ हैं, पर भीतर ही
भीतर कितने दुखी और अकेले हैं। इसीलिए यहाँ आ जाते हैं...फिर मैं तो जब से आई
हूँ तब से ही इन्होंने यह बात मेरे दिमाग़ में भर दी थी कि अजित-जयन्त एक ही
हैं।
जीजी : (कुछ रुककर) आजकल अजित को शायद इसका आना जाना ज्यादा पसन्द नहीं। कुछ
खिंचा-खिंचा ही रहता है इससे!
शोभा : इनकी आपने भली चलाई। ये तो आजकल सारी दुनिया से ही खिंचे-खिंचे रहते
हैं। असल में ये अपनी नौकरी से बहुत परेशान हैं, तनख्वाह के लालच में इस कम्पनी
में काम ले तो लिया, पर लगा वहाँ इज्ज़त तो कुछ है ही नहीं। तो सब पर खिजलाते
फिरते हैं। एक बार इन्हें मन लायक़ काम मिल जाए, फिर आप देखिए, कैसे बदल जाते
हैं। वरना जयन्त के बिना तो इनके गले से रोटी नहीं उतरती थी एक ज़माने में।
(अजित का प्रवेश। हाथ में टॉफ़ी का डिब्बा है।)
शोभा : अरे, आप अभी से आ गए?
अजित : छह बजे किसी से मिलने जाना है, सोचा घर होकर ही जाऊँ। (डिब्बा देते हुए)
लो यह। अप्पी तो चली गई होगी?
शोभा : फिर आप यह ले आए? वह दो दिन में चर कर रख देगी।
अजित : जीजी, आप इस शोभा से मना कर दो कि यह अपना मास्टरनीपन मेरी बिटिया पर न
चलाया करे।
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