नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर बिना दीवारों के घरमन्नू भंडारी
|
180 पाठक हैं |
स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....
जयन्त : (कुछ सोचते हए) ओह, तो यह बात है? अच्छा शोभा, मुझसे जो भी होगा, जैसे
भी होगा, मैं करूँगा-ज़रूर करूँगा। अजित का कोई काम करना मेरे लिए अपना काम
करने के बराबर है। पर अजित के मन में इतना परायापन आ गया है, वह मुझसे इतना
दुराव रखने लगा है, यह आज ही मालूम हुआ। खिंचा-खिंचा और कटा-कटा तो वह कई दिनों
से रहता है, पर बात यहाँ तक।
शोभा : जयन्त! अजित का चित्त आजकल ठिकाने नहीं है, उनकी किसी बात को लेकर तुम
बुरा मत मानो। मेरे साथ तो तुम जानते ही हो, वे आजकल कैसा व्यवहार करते हैं। जब
से यह इस्तीफ़ा दे दिया तब से तो हालत और भी खराब हो गई है।
जयन्त : जयन्त अजित की बात का बुरा मानता होता शोभा, तो शायद आज से दो साल पहले
ही इस घर में आना छोड़ देता। उसके हर व्यवहार को मैंने दोस्ताना ढंग से लिया
क्योंकि मैं कभी भूल नहीं पाता कि यह मेरा वही दोस्त है जो होस्टल में मेरी
बीमारी के दिनों में महीनों रात-रात भर जागा है। मीना के अलगाव के दुख को मैंने
इसकी गोद में ही रो-रोकर हल्का किया है। उस समय इसी ने अपने घर को मेरे लिए ऐसा
बना दिया था कि मैं अपने घर की कमी को महसूस ही न कर सकूँ। सच कहता हूँ, यहाँ
आते समय मुझे कभी लगता ही नहीं कि मैं किसी दूसरे के घर जा रहा हूँ। इस घर के
बड़े-बड़े निर्णय मैं इस तरह लेता हूँ, मानो इस घर पर मेरा पूरा-पूरा अधिकार
है-
शोभा : सो तो है ही जयन्त। तुम्हारे कहने से ही तो मैंने अजित के मना करने पर
भी यह काम लिया था। तुम्हारे इस अधिकार को कौन नकारता है?
जयन्त : (ज़ोर से) अजित नकारता है। उसने ज़रूर तुमसे मना किया होगा यह सब मुझसे
कहने के लिए। वह शायद मेरा अहसान नहीं लेना चाहता।
(फिर एकाएक ही व्यथित-से स्वर में) पर यह तो सोचता कि मैं क्या अहसान जताने जा
रहा था? कभी किया है ऐसा? हमारे बीच में तो कभी ऐसी बात नहीं थी। तुम भी आज
अहसान न भूलने की बात कर रही हो।-क्या हो गया है तुम लोगों को?
शोभा : (बहुत ही स्निग्ध-से स्वर में) जयन्त, कम-से-कम मेरे बारे में तो ऐसा मत
सोचो। मैंने तो, जब से शादी होकर आई, तबसे तुम्हें देवर की तरह माना है। कभी
कोई अलगाव-दुराव नहीं रखा-इनका भी-
जयन्त : आज मैं इससे बात करके ही रहँगा। बात तो मैं इससे उस दिन से ही करना चाह
रहा था, पर बीच में ही इसके इस्तीफे की बात आ गई तो सोचा, अभी नहीं करूँगा। पर
आज-
शोभा : तुम्हारे आगे हाथ जोड़ती हूँ जयन्त, अभी नहीं। इन्हें यह काम मिल जाए,
उसके बाद तुम चाहे जितना लड़ लेना इनसे, पर अभी नहीं।
(जयन्त परेशान-सा कमरे में चक्कर लगाता है। शोभा चुप रहती है। अजित का प्रवेश।
दोनों उसे कुछ इस भाव से देखते हैं मानो चोरी करते हुए पकड़े गए हों।)
शोभा : (झिझकते हुए) तुम आ गए? क्या हुआ?
अजित : कुछ नहीं। (जयन्त और शोभा को इस अन्दाज़ से देखता है मानो सारी स्थिति
को भाँप लेना चाहता हो) तुम कब आए जयन्त?
जयन्त : बस अभी ही आ रहा हूँ! तुम क्या बहुत थके हुए हो?
अजित : नहीं तो, क्यों?
जयन्त : जरा मेरे साथ बाहर चल सकते हो? (शोभा भयभीत-सी नज़रों से देखती है।)
अजित : क्यों, कहाँ चलना है?
जयन्त : जहाँ भी मैं ले चलूँ।
शोभा : अभी यहाँ से ले जाओगे जयन्त? सारे दिन के थके-माँदे तो आए हैं।
जयन्त : तुम बीच में मत बोलो। मैं कोई रिक्शा खिंचवाने नहीं ले जा रहा हूँ।
इससे कुछ जरूरी बात करनी है, गाड़ी में ले जाऊँगा, गाड़ी में छोड़ जाऊँगा।
शोभा : तो यहाँ बैठकर कर लो न? मेरे सामने करने की नहीं हो तो मैं भीतर चली
जाती हूँ।
जयन्त : तुम इसको इतना बाँधकर क्यों रखना चाहती हो? तुम्हारा पति है तो मेरा भी
दोस्त है। चलो अजित, उठो।
(अजित एक क्षण कुछ तय ही नहीं कर पाता कि क्या करे। शोभा आँखों से जयन्त को
समझाना चाहती है। एकाएक अजित उठकर चलने को तैयार हो जाता है।)
जयन्त : घंटे-डेढ़ घंटे में छोड़ जाऊँगा। चिन्ता मत करना।
शोभा : चिन्ता की क्या बात है? मैं तो-
(दोनों चले जाते हैं। शोभा भी दरवाज़ा बन्द करके भीतर चली जाती है। धीरे-धीरे
अन्धकार होता है।)
|