लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर

बिना दीवारों के घर

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2782
आईएसबीएन :81-7119-759-0

Like this Hindi book 19 पाठकों को प्रिय

180 पाठक हैं

स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....


तीसरा दृश्य


(अगले दिन सबेरे नौ बजे। कमरा खाली पड़ा है। भीतर से अजित आता है। बाहर जाने के लिए तैयार है। मेज़ से सिगरेट और लाइटर उठाता है।)

अजित : बल्लू, दरवाज़ा बन्द कर लेना।

(अजित का प्रस्थान। शोभा प्रवेश करती है। उसकी आँखें हल्की-सी सूजी हुई हैं। दरवाज़ा बन्द करती है एक क्षण खड़ी रहकर कुछ सोचती है। फिर टेलीफ़ोन करती है।)

शोभा : हलोऽ-। हाँ जयन्त, मैं बोल रही हूँ। कल की सारी बातचीत के लिए माफ़ी माँगना चाहती हूँ। ऐंऽ-? मुझे बीच में बोलने का कोई अधिकार नहीं है?-है जयन्त, है! मैंने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि ये इस स्तर पर उतर आएँगे। सारी रात क्या गुज़री है मुझ पर कि बता नहीं सकती। किस बात की है यह कुंठा? क्या नहीं है अजित के पास?-क्याऽऽऽ? मैं नहीं समझ सकँगी? हाँ सच, अब तो यही लगने लगा है कि मैं अजित को बिलकुल नहीं समझती। इतने साल साथ रहने के बाद भी नहीं। क्या सोच रहे होगे तुम भी...कुछ नहीं सोच रहे? सच कह रही हूँ जयन्त, अभी ये बेकार नहीं होते न, तो मैं भी बता देती इन्हें कि ऐसी ऊलजलूल बातें सोचने का क्या फल होता है? क्याऽऽऽऽ बात की थी विलियम्स से? यह सब सुनने के बाद भी? मैं होती तो कभी नहीं करती। अच्छा तो अड़वानी से कहलवाओगे? वह कह देगा तो उम्मीद है?-तुम्हारी जो मर्जी हो करो। मेरा तो गुस्से और अपमान से रोम-रोम जल रहा है। यह बात तुम बिलकुल छिपा गए? मैं भी सोच रही थी कि सारे पुराण खुले, यह बात नहीं आई।-सच कह रहे हो? मेरी बात तुमने मान ली! क्या कहूँ जयन्त, तुम सचमुच महान हो। कल तो बराबर मन में यही डर बना रहा- (एकाएक दरवाजे की घंटी बजती है।) कोई आया है, अभी रखती हूँ। तुम इधर नहीं आ रहे?-क्या कहा, अब इस घर में कभी नहीं आओगे? मेरे पास भी नहीं? (फिर घंटी बजती है।) अच्छा, फिर बात करूँगी। (फ़ोन रख देती है।)

(शोभा दरवाजा खोलती है। मीना का प्रवेश।)

शोभा : अरे, मीना ! एक सप्ताह बाद आज तुम्हारी शक्ल दिखाई दी है। कहाँ गायब रहीं इतने दिनों तक?

मीना : मैं तो कल दोपहर में भी आई थी। मालूम था कि तुम लोगों से तो मुलाकात होगी नहीं, पर इधर से निकली तो आ गई। बड़ी देर तक जीजी से गप्पें मारती रही। अजित क्या घर पर नहीं हैं?

शोभा : जीजी ने तो बताया नहीं। शायद ख़याल से उतर गया होगा। वे तो बाहर गए हैं।

मीना : (शोभा की आँखों की ओर लक्ष्य करके) तुम्हारी आँखें ऐसी क्यों हो रही हैं? रोई थीं क्या?

शोभा : (टालते हुए) नहीं तो, गर्मी की वजह से! मैं तो सोच रही थी मीना कि तुम्हारा बंगाल का दौरा समाप्त हुआ, अब तुम कलकत्ता रहोगी तो कुछ दिन तुम्हारा साथ ही रहेगा। पर देखती हूँ तुम्हारी व्यस्तता का कोई अन्त ही नहीं।

मीना : नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। मैं तो चाहती हूँ और अधिक व्यस्त रहूँ, इतनी अधिक कि पता ही नहीं चले कि दिन किधर जाते हैं।

शोभा : क्यों, दिन निकालना क्या बहुत भारी पड़ता है?

मीना : नहीं, फिर भी खाली समय आदमी को बहत-सी व्यर्थ की बातें सोचने को मजबूर कर देता है। जो हम नहीं सोचना चाहते वही सब दिमाग़ को घेरे रहता है।

शोभा : (एकटक मीना को देखती रहती है) मीना, मन की बात क्या शब्दों के द्वारा ही जानी जा सकती है? तुम्हारे बिना कुछ कहे भी मैं बहुत कुछ समझ सकती हूँ।

मीना : तुमसे कुछ छिपाने का मैंने कभी प्रयत्न भी नहीं किया। (कुछ ठहरकर) आठ महीने पहले कलकत्ता आई थी, तब से बराबर गाँवों में घूम रही हूँ, पर एक अजीब-सी बेचैनी, अजीब-सा उखड़ापन बराबर ही महसूस कर रही हूँ।

शोभा : सच-सच बताना मीना, इस सारी बेचैनी में क्या कहीं भी जयन्त नहीं हैं?

मीना : एकदम नहीं हैं, यह भी नहीं कह सकती। पर एकमात्र जयन्त ही हैं यह भी ग़लत है। जयन्त शायद नहीं ही हैं। पर हाँ जयन्त को देखकर मन की रिक्तता और चुभने लगी है, ख़ालीपन और अधिक गहरा गया है!

शोभा : (बहुत स्नेह से उसकी पीठ पर हाथ फेरकर) मीना।

मीना : जानती हो शोभा, परसों दोपहर को बालीगंज वाले घर के सामने से गुजरी। पिछली बार भी इतने दिनों कलकत्ता रह गई, पर उधर से कभी नहीं गुज़री। बड़ी विचित्र-सी अनुभूति हुई। बरामदे में मैंने बड़े शौक से मनीप्लांट के जो गमले लटकाए थे, वे वहाँ नहीं थे। सारा बरामदा बड़ा सूना-सूना लग रहा था। मन हुआ एक बार भीतर जाकर देखें, कहाँ क्या-क्या बदल गया है? मन और परिश्रम से जमाए उस घर की क्या हालत है? रग्घू कैसा है? बड़ी मुश्किल से अपनी इस इच्छा को रोक पाई। बाद में बड़ी देर तक सोचती भी रही कि जिस घर को और जिन्दगी को अपनी इच्छा से छोड़ आई, उसके प्रति यह कैसा मोह?

शोभा : कितनी ही बार सोचती हूँ मीना, कि घर छोड़कर कैसा लगता होगा? घर छोड़कर ही कोई औरत क्या उस घर को भूल सकती है जिसे वह अपने हाथों से बनाती है, सँवारती है?

मीना : घर यों आसानी से छूटता भी नहीं शोभा! कोई बहुत बड़ी मजबूरी न हो, या घर से भी बड़ा कोई आकर्षण न हो, तब तक घर छोड़ा नहीं जाता।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book