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नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर

बिना दीवारों के घर

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2782
आईएसबीएन :81-7119-759-0

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स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....


शोभा : तुम्हें अपने इस निर्णय पर अफ़सोस होता है कभी-कभी?

मीना : (कुछ सोचते हुए) जिस व्यक्ति और घर को छोड़ा उसके लिए तो कोई अफ़सोस नहीं है मन में। जो अपमान और मानसिक यातना मैंने वहाँ पाई, अनाथ और बेसहारा औरतों के स्नेह, आदर और अपनत्व के कारण ही उस व्यथा को मैं किसी तरह भूल सकी। पर अब देखती हूँ कि जिन बेसहारा औरतों को मैं अपनी ज़िन्दगी का सहारा बनाना चाहती थी, वे अपने ही सहारे की तलाश में इधर-उधर दौड़ती फिरती हैं। जिसको मिल जाता है, वह चली भी जाती है और मैं फिर बड़ा अकेला-अकेला और बेसहारा महसूस करने लगती हूँ।

(जीजी का प्रवेश)

जीजी : मीना, तुम कब आईं? और लो शोभा, मैं तो बताना ही भूल गई कि कल दोपहर में भी ये आई थीं।

मीना : कोई बात नहीं, मैं आज फिर आ गई।

जीजी : (शोभा से) अजित अप्पी को लेकर आएगा या बल्लू को भेजूं?

शोभा : मेरी तो इनसे कोई बात नहीं हुई, आप भेज ही दीजिए।

जीजी : तुम लोगों के लिए चाय भिजवाऊँ?

मीना : जीजी, चाय पीने की इच्छा तो सचमुच हो रही है! (जीजी भीतर जाती हैं) शोभा, कल जीजी से बड़ी देर तक बातें करती रही। मैं तो इतनी ज़्यादा प्रभावित हुई हूँ इनसे कि बता नहीं सकती। पहले दिन देखा था तो सोचा था कि यों ही तुम्हारी कोई विधवा ननद होंगी। कल लगा पढ़ी-लिखी चाहे अधिक न हों, पर किसी बात पर गहराई तक सोचने का ऐसा माद्दा शायद ही किसी औरत में हो।

शोभा : मेरी तो खुद इन पर बड़ी श्रद्धा है। अपनी उम्र से कहीं अधिक आधुनिक और विचारों में बेहद सन्तुलित। पर हैं बड़ी बदकिस्मत। सोलह साल की उम्र में ही विधवा हो गई।

मीना : कोई बच्चा भी नहीं है इनके?

शोभा : नहीं, शादी के छह महीने बाद ही तो विधवा हो गई थीं। उस जमाने में विधवा-विवाह होते नहीं थे। पिताजी ने ससुराल से कानपुर बुला लिया और पढ़ाई जारी करवा दी। पर तब विधवा लड़की स्कूल जाए यही बड़ी बदनामी की बात थी सो पिताजी ने तंग आकर घर बिठा लिया। मैट्रिक की सारी तैयारी की थी, बस इम्तिहान नहीं दे सकीं। इसी ग़म में माताजी की मृत्यु हो गई तो बस, कानपुर वाला घर सम्हालना इनका काम हो गया। मेरे लिए तो सास कहो, ननद कहो या माँ कहो, यही हैं।

मीना : पर कोई कंठा नहीं, कोई गाँठ नहीं। वरना ऐसी स्थिति में कोई सहज नहीं रह पाता।

शोभा : मुझे तो खुद आश्चर्य होता है। सचमुच कमाल की औरत हैं। जब मैंने कॉलेज का काम लिया था तो अप्पी छोटी थी। अजित ने इन्हें आने के लिए लिखा तो तुरन्त आ गईं। हम सबको इतने प्यार से रखती हैं कि बस।

(नौकर चाय लेकर आता है। शोभा बनाती है।)

मीना : शोभा एक बात पूछूँ? कल जीजी तुम्हारे और अजित के बारे में बता रही थीं। अजित की नौकरी के बारे में भी बता रही थीं। सारी बात जानकर बहुत दुख हुआ। तुम लोगों के बारे में तो मैं इस प्रकार की कोई कल्पना भी नहीं कर सकती हैं। जीजी चाहती हैं कि मैं तुमसे और अजित से बात करूँ।

शोभा : (खिन्न-से स्वर में) मुझसे जितनी चाहो बात कर लो, पर अजित के सामने तो यह भी न दिखाना कि तुम्हें कुछ मालूम है। कल रात जयन्त इन्हें पकड़कर ले गए। वे कई दिनों से बात करना चाह रहे थे। पर इन्होंने जिस तरह की बातें कीं-मैं तो अवाक् रह गई। अभी जयन्त से तो बात भी नहीं हुई-पता नहीं और भी क्या कहा होगा। सच मीना, मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि अजित इस स्तर पर भी उतर सकते हैं। कल रात-भर सो नहीं सकी। अब तो लगता है सारी बात पर नए सिरे से ही सोचना होगा।

मीना : आख़िर बात क्या हुई?

शोभा : छोड़ो मीना, मुझसे वह कहा भी नहीं जाएगा। दुःख इसी बात का है कि इन्हें अपने दोस्त पर विश्वास नहीं रहा, अपनी पत्नी पर विश्वास नहीं रहा-पता नहीं, क्या होता जा रहा है इन्हें? (आवाज़ भरी जाती है।)

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