नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर बिना दीवारों के घरमन्नू भंडारी
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स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....
मीना : (कुछ सोचते हुए) मैं तो यहाँ थी नहीं, इसलिए कुछ भी कह पाने की स्थिति
में नहीं हूँ। पर कल जीजी की बातों से भी कुछ ऐसी ध्वनि निकली अवश्य थी कि
जयन्त तुममें बहुत दिलचस्पी ले रहे हैं, तुम्हें कुछ ऐसी राह पर ले जाना चाह
रहे हैं, जिस पर चलकर तुम अजित से दूर होती जाओ।
शोभा : (खीझकर) कैसी दिलचस्पी, कैसी राह? मैं कोई नासमझ बच्ची हूँ जो कोई मुझे
मनचाही राह पर ले चलेगा? बस यह प्रिंसिपल की जगह दिलवाने में उन्होंने बहुत
कोशिश की, उन्हीं की वजह से यह काम मुझे मिला भी है-अब इसका जो चाहे अर्थ लगा
लो।
मीना : नाराज़ होने की बात नहीं है शोभा! सारी प्रतिभा और बुद्धिमानी के बावजूद
तुम शायद कहीं बहुत ज़्यादा सीधी और सरल भी हो। तुम्हारी बात मैं नहीं जानती,
पर जयन्त अनजाने में ही यह सब कर सकता है। (कुछ ठहरकर) यों जान-बूझकर वह स्वयं
भी नहीं चाहता होगा, पर अनजाने करता वही सब है। शुरू से ही तुम लोगों का सुखी
परिवार उसके लिए हल्के-से कष्ट का कारण रहा है।
शोभा : दो दिन पहले भी यदि तुम यह बात कहतीं तो मैं मान लेती, पर आज नहीं मान
सकती। तुम आईं तब उन्हीं का फ़ोन आया था। कल की सारी बात हो जाने के बावजूद वह
अजित की नौकरी के लिए कोशिश कर रहे हैं। और मैं जानती हूँ कि जब वह किसी चीज़
को हाथ में लेते हैं तो ज़मीन-आसमान एक कर देते हैं। उनका कल का व्यवहार और कल
की बातें सुनकर तो मेरा मन श्रद्धा से भर उठा है, और ये हैं कि बैठे-बैठे-
मीना : मैंने कहा न, मुझे सारी बात मालूम ही नहीं। मैंने तो यों ही अपनी धारणा
बता दी थी। हो सकता है, मैं एकदम ग़लत होऊँ।
शोभा : जयन्त तो जयन्त, कम-से-कम मुझ पर तो विश्वास रखा होता। मुझे तो ये जानते
हैं। मुझे तो सारा का सारा बनाया ही इन्होंने है। मुझ पर सन्देह? सच कहती हूँ
मीना, कल रात जब अजित के मुँह से यह सब सुना, तब से मन कर रहा है कहीं चली
जाऊँ, एक क्षण भी इस घर में नहीं रहूँ। (फूट पड़ती है।)
मीना : अरे-अरे, यह क्या? (पीठ सहलाती है) क्या कहूँ, कुछ भी तो समझ में नहीं
आता-केवल दुःख होता है। पर शोभा, इतना ज़रूर कहूँगी कि आवेश में आकर कोई ग़लत
काम न कर बैठना।
शोभा : तुम्हारी जैसी स्थिति में होती तो सचमुच ही कहीं चली जाती, पर मैं तो जा
भी नहीं सकती।
मीना : (कुछ सोचते हुए) तुम्हारी छुट्टियाँ कब से हैं?
शोभा : बस एक सप्ताह बाद से?
मीना : एक काम करो। तुम छुट्टियों में कहीं बाहर चली जाओ! सारी स्थिति से कटकर
ज़्यादा अच्छी तरह सोच सकोगी। मन बदल जाएगा।
शोभा : मैं खुद जाना चाहती हूँ। पर अभी जाऊँगी तो सोचेंगे कि लो मैं तो बेकार
हूँ और इसे सैर-सपाटे सूझ रहे हैं। प्रिंसिपल है, इसे किसी की क्या परवाह? आजकल
हर बात के दो अर्थ निकाले जाते हैं!
मीना : नहीं-नहीं, ऐसी हालत में तुम्हारा जाना और भी ज़रूरी है।
मान लो अजित को एक महीना और काम नहीं मिले तो सारे दिन तुम लोग घर में
बैठे-बैठे लड़ना। इस तरह तो स्थिति बद से बदतर हो जाएगी। (शोभा कुछ कहती नहीं,
सोचती रहती है) तुम कुछ कहकर अजित को समझा दो, लेकिन यहाँ से चली ज़रूर जाओ।
शोभा : कोशिश करूँगी।
मीना : अच्छा शोभा, इस समय तो चलूँगी। और देखो, तुम ज्यादा दुखी मत होना। घर
में यह सब तो चलता ही रहता है। एक-दो दिन में मैं फिर आऊँगी।
शोभा : (बड़े बुझे-से स्वर में) ज़रूर आना मीना! अब तो शायद यहाँ जयन्त भी नहीं
आएँगे-दो बात भी किसी से करना चाहूँ तो कोई नहीं है!
मीना : आऊँगी-आऊँगी, ज़रूर आऊँगी।
(मीना जाती है, शोभा दरवाज़ा बन्द करके भीतर चली जाती है। दो मिनट रंगमंच खाली
रहता है, फिर घंटी बजती है। नौकर आकर दरवाजा खोलता है। सेठ सम्पतलाल का प्रवेश।
वेशभूषा से ही सम्पन्न लगते हैं।)
सेठ : प्रिंसिपल साहिबा हैं घर में?
नौकर : जी हैं, आप बैठिए।
(सेठ जी बैठते हैं, चारों ओर देखते हैं। भीतर से शोभा का प्रवेश। दोनों
एक-दूसरे को नमस्कार करते हैं।)
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