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नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर

बिना दीवारों के घर

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2782
आईएसबीएन :81-7119-759-0

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स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....


जीजी : सत्संग में सबेरे न जाने से मुझे लगता है जैसे सारा दिन बिगड़ गया। (मीना की ओर से) आप कलकत्ता तो नहीं रहतीं शायद?

मीना : जी अभी आई हूँ। (उठते हुए) अच्छा, अभी तो चलूँगी।

(शोभा से) तो मैं दस-साढ़े दस बजे के बीच अजित को फ़ोन करूँगी! यों थोड़ी भूमिका तुम बाँधकर रखना।

जयन्त : तुम्हें जाना किधर है मीना?

मीना : यहाँ से तो चौरंगी ही जाऊँगी। जयन्त : चलो, तो मैं तुम्हें छोड़ देता हूँ (शोभा से) और हाँ देखो, मेहता साहब एक नौकर भेजेंगे। बात करके देखना। अच्छा जीजी, इन्हें ज़रा छोड़ आऊँ। (नमस्ते करके दोनों चलने लगते हैं। जीजी भीतर चली जाती हैं।)

जयन्त : तुम्हारी क्लास कितने बजे है?

शोभा : बारह से।

जयन्त : हो सका तो मीना को छोड़कर एक चक्कर लगा लूँ। साढ़े ग्यारह पर मुझे इधर ही किसी से मिलने जाना है।

शोभा : फिर कब आ रही हो मीना? आज के आने को मैं आना नहीं मानूँगी, समझीं?

मीना : (हँसते हुए) इतना आऊँगी कि तुम तंग आ जाओगी। बस मुझे जरा फुरसत मिलने दो।

(जयन्त और मीना जाते हैं। शोभा दरवाज़ा बन्द करके भीतर जाती है। कुछ देर रंगमंच खाली रहने के बाद फिर घंटी बजती है। शोभा आकर दरवाजा खोलती है।
अजित का प्रवेश।)

शोभा : अरे, आप आ गए?

(अजित बैग एक तरफ़ फेंककर बैठता है।)

शोभा : मीना आई थी।

अजित : (आश्चर्य से) मीना? कितनी देर ठहरी? हाँ, वह आजकल कलकत्ते आई हुई है। तो आई यहाँ!

शोभा : तुम्हें याद कर रही थी। अभी तो उसे कहीं जाना था सो ठहरी नहीं, बाद में आएगी।

अजित : अच्छाऽ! मुझे याद कर रही थी? वैसे क्या हाल हैं उसके?

शोभा : उसी समय जयन्त भी आ गए।

अजित : जयन्त, इस समय? (ज़रा-सी भृकुटि चढ़ जाती है जिस पर शोभा का भी ध्यान जाता है। पर तुरन्त अपने को सहज बनाता हुआ) कोई ऐसी-वैसी बात तो नहीं हुई न?

शोभा : नहीं-नहीं, बिलकुल नहीं। जयन्त ही उसे छोड़ने गए हैं।

मुझे तो लगा दोनों के मन में हल्का-सा अफ़सोस ही है शायद।

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