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नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर

बिना दीवारों के घर

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2782
आईएसबीएन :81-7119-759-0

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स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....


अजित : क्यों, कोई ऐसी बात हुई क्या?

शोभा : नहीं, बात तो नहीं हुई, ठहरी ही तो जरा-सी देर...मुझे कल शाम को अपने समारोह में गाने का निमन्त्रण देने के लिए आई थी।

अजित : पर तुम तो उसके लिए पहले ही मना कर चुकी हो? कल ही तो कोई आया था बुलाने। शोभा : इसलिए तो वह खुद आई।

अजित : और तुमने हाँ भर दी होगी? शोभा : (भरपूर नज़रों से देखते हुए) नहीं, इनकार कर दिया।

अजित : क्या कहा?

शोभा : कह दिया मेरे पास समय नहीं है।

अजित : हाँऽ, और क्या? आखिर कहाँ-कहाँ जाएँ और क्या-क्या करें? कॉलेज, बच्ची और घर, यही काफ़ी है। फिर इन सब में जाने लगो तो कोई अन्त ही नहीं। मीना ने बुरा तो नहीं माना।

शोभा : माना भी होगा तो क्या कर सकती हूँ? सबको तो एक साथ खुश नहीं रखा जा सकता।

(फिर टेलीफ़ोन की घंटी बजती है, अजित उठाता है।)

अजित : हलोऽ-जी, जी हाँ।-जयन्त बाबू? इस समय तो वे यहाँ नहीं हैं, आए थे, चले गए। क्या? साढ़े ग्यारह तक यहाँ फ़ोन करके को कहा था?-नौकर! जी हाँ, नौकर तो यहीं चाहिए। आ तो जाना चाहिए, मकान तो बिलकुल सड़क पर है।-हाँ-हाँ, आता ही होगा। अच्छा, बहुत-बहुत धन्यवाद। (फ़ोन रखता है। शोभा से) जयन्त क्या साढ़े ग्यारह तक यहाँ रहनेवाला था?

शोभा : पता नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं हुई। आए तो मीना बैठी हुई थी। हाँ, नौकर की बात ज़रूर कही थी कि मेहता साहब कोई नौकर भेजेंगे। और जाते समय यह भी कहा था कि हो सका तो मीना को छोड़कर वापस आएँगे।

साढ़े ग्यारह बजे उन्हें इधर ही किसी से मिलना है।

अजित : हूँ! तुम्हारी क्लास कब से है?

शोभा : बारह से। अजित : तो मेरे साथ तो तुम नहीं ही चलोगी।

शोभा : अभी से जाकर क्या करूँगी? अभी तो मुझे अपना लैक्चर भी तैयार करना है।
(फिर फ़ोन की घंटी बजती है, अजित उठाता है।)

अजित : हलोऽऽ-। ओह, कौन मीनाजी? नमस्कार, नमस्कार! कहिए, कैसी हैं? देखिए, आप आईं और हमसे मिले बिना ही चली गईं?-हाँ-हाँ-क्या? मेरी इजाजत, कमाल करती हैं आप भी? बात यह है मीनाजी, कि शोभा खुद जाना पसन्द नहीं करती है आजकल। इन सब चीज़ों के लिए बहुत समय चाहिए न, और इतना समय वह निकाल नहीं पाती। यहाँ तो रोज कुछ न कुछ लगा ही रहता है। अब जिसके कार्यक्रम में भाग न लो वही नाराज़, इसीलिए.....। डॉटकर भेज दूं? आपने क्यों नहीं डाँटा? अरे मीनाजी, आजकल पति बेचारे को कौन गिनता है? क्या कहा, मेरी ज़िम्मेदारी है? बड़ी टेढ़ी ज़िम्मेदारी दे रही हैं आप! खैर, आपकी आज्ञा तो माननी पड़ेगी।-हाँ-हाँ, जाएगी। मैं? ज़रूर साहब, मैं भी ज़रूर आऊँगा। आप इधर कब आएँगी? हाँ, ज़रूर आइए, खाली होते ही। अच्छा नमस्ते-(फ़ोन रखते हुए शोभा से) मीना का फ़ोन था। कह रही थी जैसे भी हो शोभा को गाना ही होगा। आप ज़ोर देकर भेजिए। (कुछ ठहरकर) सोचता हूँ, मीना के समारोह में तुम चली ही जाओ।

शोभा : (हल्के मुस्कुराती है) क्यों, मीना के समारोह में ऐसी क्या बात है भला?

अजित : कुछ तो है ही। आख़िर उससे हमारा बहुत पुराना सम्बन्ध है, फिर वह यह न समझ ले कि जयन्त से सम्बन्ध टूटने के कारण हमने उससे भी सम्बन्ध तोड़ लिया। कल चली ही जाना।

शोभा : जाकर करूँगी क्या? कोई गाना तैयार नहीं है, रियाज़ के लिए समय ही कहाँ मिल पाता है?

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