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आँधी

गुलजार

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2819
आईएसबीएन :81-8361-004-8

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बेहद चर्चित फिल्म ‘आँधी’ का मंजरनामा...

Aandhi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

साहित्य का मंजरनामा एक मुकम्मिल फॉर्म है। यह एक ऐसी विधा है जिसे पाठक बिना किसी रूकावट के रचना का मूल आस्वाद लेते हुए पढ़ सके। लेकिन मंजरनामे का अंदाजे-बयान अमूमन मूल रूप से अलग हो सकता है या यूँ कहें कि वह मूल रचना का इन्टरप्रेटेशन हो जाता है। मंजरनामा पेश करने का एक उद्देश्य तो यह है कि पाठक इस फॉर्म से रूबरू हो सकें और दूसरा यह कि टी. वी. और सिनेमा से दिलचस्पी रखने वाले लोग यह देख-जान सकें कि किसी कृति को किस तरह मंजरनामे की शक्ल दी जाती है।  टी. वी. की आमद से मंजरनामों की जरूरत से बहुत इफाजा हो गया है। कथाकार शायर गीत कार पटकथाकार गुलजार ने लीक से हटकर शरतचन्द्र की-सी संवेदनात्मक मार्मिकता, सहानुभूति और करूणा से ओत-प्रोत कई उम्दा फिल्मों का निर्देशन किया जिनमें मेरे अपने, अचानक, परिचय, आँधी, मौसम, खुशबू, मीरा, किनारा, नमकीन, लेकिन, लिबास और माचिस जैसी फिल्में शामिल हैं। अपने समय की बेहद चर्चित फिल्म ‘आँधी’ का मंजरनामा वरिष्ठ साहित्यकार कमलेश्वर के उपन्यास ‘काली आंधी’ से कुछ अलग भी है और नहीं भी। फिल्म में किरदारों के एटिट्यूड से भरी कथावस्तु के बीच दो दिलों के प्रेम की अतःसलिल धारा भी बह रही है जो पाठकों की संवेदना को छू लेती है। यह पुस्तक पूरी फिल्म की एक तरह से औपन्यासिक प्रस्तुति है जो पाठकों की अपेक्षाओं पर खरा उतरेगी।

1

भोपाल शहर में इलेक्शन का तूफ़ान मचा हुआ था। हर पार्टी के लोग अपना चुनावी निशान जीपों पर लगाए शहर में कन्वेसिंग कर रहे थे। किसी का चुनाव निशान कुर्सी था, किसी का चुनाव निशान चिड़िया था।
एक बहुत बड़े पंडाल में लोग इकट्ठे थे। शहर के बहुत बड़े नेता चन्द्रसेन, जिनका चुनावी निशान लालटेन था, एक बड़े से स्टेज से उनका भाषाण चल रहा था।

‘‘यक़ीन मानिए मुझे कोई शौक़ नहीं है इलेक्शन लड़ने का, और न ही किसी डॉक्टर ने कहा है कि मैं इलेक्शन लड़ूँ, लेकिन मुझे इलेक्शन लड़ना पड़ता है। अपने हक़ूक़ के लिए, जनता के हक़ूक़ के लिए। वो जो समझते हैं, एक डिब्बा मिट्टी का तेल देकर, या एक मुट्ठी अनाज झोली में डाल देने से जनता बिक जाएगी, वह भूल कर रहे हैं, जनता बिकेगी नहीं, वो अपनी भूख नहीं बेचेगी। वो इतना सस्ता सौदा नहीं करेगी।

जनता के हक़ूक़ बिकेंगे नहीं.... जनता के हक़ूक़ नीलाम नहीं होंगे....’’ यह सुनकर-वहाँ बैठी जनता ने ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ बजाईं और लोग चिल्लाने लगे : ‘‘चन्द्रसेन ज़िन्दाबाद !’’ ‘‘चन्द्रसेन ज़िन्दाबाद !’’ चन्द्रसेन ने भाषण फिर शुरू किया।
‘‘मुझे इस बात का कोई अफ़सोस नहीं है। न ही कोई शिकायत है कि आरती देवी ने अपने चुनाव कार्यालय में लंगर क्यों खोल रखे हैं। क्यों गरीबों को रोज़ खाना खिलाया जाता है। मैं तो ख़ुश हूँ कि मेरे मुफ़लिस शहर निवासियों को एक वक़्त की रोटी तो मिली, मुझे उनकी अमीरी से कोई शिकायत नहीं है, न अपनी ग़रीबी पर शर्मिन्दगी है। मैं तो सिर्फ़ इतना पूछता हूँ कि इस इलेक्शन से पहले वे कहाँ थीं। यह काले दामों से ख़रीदी, अनाज की बोरियाँ, कौन से गोदामों में छिपी पड़ी थीं, जो पहले पैसे देकर मुट्ठी-भर अनाज नहीं मिलता था। अब जैसे ही इलेक्शन आया, मिलने लगा सब कुछ। अगर मुझे यक़ीन होता कि इलेक्शन के बाद भी इसी तरह सब कुछ मिलेगा मेरे शहर निवासियों को तो भाइयों मैं पहला आदमी होता, उन्हें अपना वोट देनेवाला, लेकिन जानता हूँ, यह सब ढकोसला, दिखावा है। आप लोगों से वोट लेने का। भाइयों, ये पंछी किसी के नहीं होते, ये पंछी किसी के नहीं होंगे, उड़ जाएँगे आपका दाना, पानी, वोट लेकर और जाकर बैठेंगे किसी राजधानी की शाख़ पर और आपको हमेशा-हमेशा के लिए भूखा-प्यासा छोड़ जाएँगे...’’

मैदान में लगे आरती देवी के दफ़्तरों पर एक हुजूम उमड़ पड़ा, और देखते-देखते हर तरफ़ आग भड़कने लगी। आरती देवी और पंछी निशान के बड़े-बड़े कटआउट आग की लपेट में आकर गिरने लगे। हर तरफ़ एक कोहराम मच गया...

2

आरती देवी अपने आलीशान बँगले की सीढ़ियों से उतरती हुई अपने ऑफ़िस के कमरे में आई जहाँ उनकी पार्टी के लोग बैठे थे। उनके आते ही सब लोग खड़े हो गए। आरती देवी अपनी कुर्सी पर बैठ गई और लोगों को बैठने के लिए कहा।
‘‘सिट-डाउन...सो ! ऑपोज़िशन ने जला दिए हमारे ऑफ़िस...?’’
कमल ने हामी भरी।
‘‘जी हाँ...चन्द्रसेन ने जलाए हैं...शरारत उसी की है।’’ ‘‘वो कैसे ?’’
बलदेव ने तेज़ी से कहा।
‘‘खाते हमारे यहाँ थे, काम उनका करते थे।’’ कमल ने सफ़ाई दी।
‘‘दरअस्ल, झगड़ा वहीं से शुरू हुआ। हमने उन्हें घुसने नहीं दिया। बात चन्द्रसेन तक पहुँची...और उसने उठकर, धुँआधार लेक्चर दिया...’’ बलदेव ने आगे बतया।
‘‘और स्पीच तो...आप जानती हैं कमाल की करता है...मेरा मतलब है...बोलती तो आप भी कमाल हैं। मगर आप यहाँ बैठी हैं न...अगर वहाँ होतीं तो हम देखते कैसे निकलती आवाज़ चन्द्रसेन की।’’ ‘‘मैं तो चन्द्रसेन, चन्द्रसेन ही सुन रही हूँ...सारी कान्स्टीट्यून्सी में...’’ कमल ने कहा।

‘‘सबसे बड़ा फ़ैक्टर यह है...उनके पास पैसे बहुत हैं। पूरी बिज़नेस कम्यूनिटी उनके पीछे है।’’ ‘‘जहाँ पैसा न हो ख़र्च करने के लिए-वहाँ ख़र्च करने के लिए अक़्ल चाहिए चौधरी साहब !’’ ‘‘अग्रवाल फ़ेमिली का भोपाल में बहुत रसूख़ है। और चन्द्रसेन के बहुत पुराने मुरीद हैं, मिल मालिक हैं, बड़े-बड़े कारख़ाने हैं। लाखों का धन्धा है, और ज़ाहिर है, चन्द्रसेन को वहाँ से पैसा मिलता है।’’ ‘‘तो अग्रवाल को क्यों नहीं खड़ा कर दिया अब तक ?’’
दोनों ने हैरत से उनकी तरफ़ देखा। गुरुसरन बोला।
‘‘जी, पहले दो ही सँभालने मुश्किल हैं। एक तरफ़ चन्द्रसेन और दूसरी तरफ़ गुलशेर ख़ान...’’ बलदेव भी झुंजलाया।
‘‘बिज़नेस कम्यूनिटी सारी चन्द्रसेन की तरफ़ चली गई है और जो मुस्लमान वोट हैं वो शेर ख़ान की तरफ़....’’ कमल मायूस-सा बोला।
‘‘मज़दूरों के वोट मिलने की उम्मीद थी, वो भी हाथ से निकल जाएँगे...’’ ‘‘क्यों ?’’ आरती ने तेज़ी कहा।
‘‘उनका अपना मिल मालिक इलेक्शन में खड़ा होगा तो वोट उसको देंगे-और किसे देंगे ?’’ इतना सुनते ही आरती देवी तमतमाते हुए अपनी कुर्सी से खड़ी हो गई।

‘‘क्या हो गया है आपकी अक़्ल को-क्या मिल मालिक और मज़दूर हाथ में हाथ डालकर चलेंगे ? किराएदार का सबसे बड़ा दुश्मन मकान मालिक होता है, चाहे वो कितना ही भला आदमी हो !’’
फिर मुड़कर कमल से पूछा : ‘‘और प्रेस किसकी तरफ है....?’’ ‘‘प्रेस भी चन्द्रसेन के हक़ में है।’’ ‘‘क्यों ?’’
‘‘क्योंकि एक ही Important Paper ‘वतन’ है और कोई ज्ञानी एडीटर है उसका....’’ ‘‘वह क्या चन्द्रसेन की पार्टी में है ?’’ बलदेव ने बताया।
‘‘जी नहीं...यूँ तो ज्ञानी किसी की तरफ़दारी नहीं करता, जो ख़बरें मिलती हैं वही छापता है।’’ कमल ने चिढ़ के बात काटी।
‘‘और चन्द्रसेन, वह तो हर रोज़ कोई-न-कोई बयान देता ही रहता है।
‘‘तो आप भी न्यूज़ दीजिए उसे, ऐसी न्यूज़ दीजिए कि वह फ्रंट पेज पर छपे...’’

3

चन्द्रसेन अपने पार्टी ऑफ़िस में बैठा-‘वतन’ पेपर के एडीटर ज्ञानी से बात कर रहा था और उसे समझाते हुए कहा :
‘‘देखिए जब तक चुनाव चल रहे हैं, हमारी मुख़ालिफ़ पार्टी की फ्रंट पेज पर न्यूज़ न आनी चाहिए।’’
‘‘तो आप क्या चाहते हैं कि मैं न्यूज़ न छापूँ।’’ ‘‘नहीं...ज्ञानीजी, आप ग़लत समझ रहे हैं। छापिए-ज़रूर छापिए, लेकिन जिस ख़बर पर आप भी यक़ीन से नहीं कह सकते हैं-उसे फ्रंट पेज पर क्यों छापते हैं ? थर्ड पेज पर, फ़ोर्थ पेज पर कहीं भी अन्दर डाल दीजिए और...’’ तभी पार्टी का कोई कार्यकर्ता आया और कोई काग़ज दिया।
‘‘सर यह डिज़ाइन है मेन पोस्टर का-यह हैंडबिल है और यह ऑर्डर हैं ‘वतन’ प्रेस के लिए।’’ ‘‘तुम जाओ-यह लीजिए ज्ञानीजी...जिस काम के लिए बुलाया था...वह यह है। कुछ देते हुए।

‘‘यह पोस्टर है, पचास हज़ार छपेंगे-यह हैंडबिल एक लाख, यह ऑर्डर...’’ चन्द्रसेन के चेक पर साइन कर दिए।
‘‘यह advance चेक....! आइन्दा हमारा सारा काम आप ही के प्रेस में होगा...ठीक है न...’’ ‘‘हूँ...! यह रिश्वत तो नहीं है ?’’
चन्द्रसेन मुस्कुराता है। (मुस्कुराया) ‘‘क्या बात कर रहे हैं ज्ञानीजी, यह तो आपस का लेन-देन है। हम आपके लिए इतना कुछ कर रहे हैं। आप भी तो कुछ कीजिए हमारे लिए...’’ ‘‘अच्छा मैं ख़्याल रखूँगा...’’
यह कहकर ज्ञानी चलने को तैयार हुआ तभी चन्द्रसेन फिर से बोले।
‘‘इलेक्शन से पहले आप हमारा ख़्याल रखिए- इलेक्शन के बाद हम आपका ख़्याल रखेंगे।

4

आरती देवी अपने ऑफ़िस में बैठी कुछ सोच रही थीं। माथे को हाथों से सहलाते हुए बोलीं।
‘‘गुरुसरनजी...चन्द्रसेन कैंसर की तरह छा रहा है सारे इलेक्शन पर...उनका ज़ोर दिन-ब-दिन बढ़ रहा है। उसे तोड़ना बहुत ज़रूरी है। मैं इसीलिए कह रही हूँ, अग्रवाल को इलेक्शन में खड़ा करने की कोशिश कीजिए। आप समझने की कोशिश कीजिए-अग्रवाल के खड़े होने का सबसे बड़ा फ़ायदा यही है कि चन्द्रसेन टूटेगा-चन्द्रसेन के पीछे जितना पैसा है बन्द होगा।
‘‘हमें क्या फ़ायदा होगा उससे....?’’ आरती देवी समझाते हुए :
‘‘ये दस आदमी जो एक जगह हैं, उन्हें जीतने के लिए आपको ग्यारह वोट चाहिए। अगर उन्हें पाँच-पाँच में बँटवा दें तो जीतने के लिए सिर्फ छः वोट की ज़रूरत पड़ेगी-And then- हर चीज़ की क़ीमत होती है। अग्रवाल से भी सौदा किया जा सकता है।’’
‘‘लेकिन इतना पैसा कहाँ है हमारे पास...?’’
‘‘अक़्ल तो है-लल्लू लाल काफ़ी समझदार हैं, सँभाल लेंगे...!’’

5

एक बहुत बड़े होटल के लॉन में, एक जीप तेज़ी से अन्दर आई, जीप पर आरती देवी का पोस्टर लगा हुआ था। जोप होटल में बिल्डिंग के सामने आकर रुकी। जीप में से लल्लू लाल कुर्ते-पाजामे में उतरे, सिर पर गांधी टोपी थी, कन्धे पर एक झोला लटक रहा था। होटल के अन्दर आए और रिसेप्शन पर आकर, वहाँ खड़े आदमी से पूछा :
‘‘भइए, मैनेजर साहब कहाँ हैं...?’’
सहायक मैनेजर ने घड़ी देखकर जवाब दिया।
‘‘जी...वो इस वक़्त बाग़ में होंगे....!’’
‘‘...(घड़ी देखकर) हवाख़ोरी करते हैं....?’’
‘‘हवाख़ोरी नहीं-बाग़ में काम करवा रहे हैं।’’
‘‘तो उन्हें बुलाकर लाइए....’’
‘‘आपको कोई कमरा-वमरा चाहिए....?’’
‘‘कमरा नहीं...मुझे कमरे चाहिए...आप ज़रा मैनेजर साहब को तो बुलाइए...’’
‘‘जी...वो वहीं बाग़ में होंगे...आप वहीं चले जाइए....!’’
लल्लू लाल जाने को मुड़ा फिर रुककर पूछा।
‘‘उनका नाम क्या है....?’’
‘‘जी जे.के. साहब कहकर बुलाते हैं....’’
‘‘मैंनेजर ही हैं न...?’’
‘‘मैनेजर भी हैं...और कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर भी हैं।’’
लल्लू लाल चले गए।

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