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दर्द ही दर्द

नारायणदास जाजू

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :123
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2851
आईएसबीएन :81-85828-86-5

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आदमी दिमाग की तेज आँच से निजात पाने के लिए जब दिल के पास आता है तब ऐसा ही कुछ घटित होता है जैसा इन कविताओं के रूप में नुमाया हुआ है।

Dard Hi Dard

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


आदमी दिमाग की तेज आँच से निजात पाने के लिए जब दिल के पास आता है तब ऐसा ही कुछ घटित होता है जैसा इन कविताओं के रूप में नुमाया हुआ है।
पुरानी चोटें जरा कुछ ज्यादा ही कसकती हैं, खासकर तब जब बादल घिरे होते हैं और उमस कुछ ज्यादा हो गई होती है। इस किताब में शामिल थी नारायणदास जाजू की कविताएँ हमारे इसी अहसास को बल देती हैं।

कोई माने या न माने, दिल आदमी की जिन्दगी का अनिवार्य हिस्सा है-
और दिल है तो दर्द होगा ही। लिहाजा ‘दर्द-ही-दर्द’ की कविताओं को इनके दिली सरोकारों से जोड़कर ही इनका मजा लिया जा सकता है।

इस किताबों में शामिल श्री नारायणदास जाजू की कविताएँ कवि की इसी भाव प्रवण मनोदशा की सूचना देती हैं और सहयात्री बनने का निमत्रंण भी। यह दर्द के रिश्ते का तकाजा है कि दर्द ही दर्द की कविताएँ फॉर्मेट से सरकी हुई होने के बावजूद अपने पाठकों की रस-ग्रंथि को स्पंदित करने में सफल सिद्ध होंगी।

पद्मश्री डॉ. बशीर बद्र की ओर से


भोपाल की सुबह हो रही है।
सुबह की पूजा, अजान, डी-डी.-1 की मिली-जुली आहटें। सेफिया कॉलेज के ऑल इंडिया मुशायरे—खंडहरों में तरक्की-पसंद शायरी, केफ, शेरी, ताज, ताबिश की यादें—आज की फर्नीचर की दुकान में जिन वादी वारनिश, उर्दू रसम, ‘अलखत’ में अलिफ का दबना और ये का गिरना, टी.वी. स्टेशन का दरवाजा कब खुलेगा ?

नए शहर का बनता हुआ अधूरापन, लोहे और सीमेंट के पिलर्स, सीमेंट, गिट्टी और बालू में नए-नए लोग—पुरानी मेहनतें।
उर्दू मुशायरों और हिंदी कवि सम्मेलनों का असर धुँधला-धुँधला, किताबों को अपने तोर पर पढ़ना। अपने अंदर के शायर को दबे से निकालना। शायरी पर इंसानियत का कर्ज उतारने की पुरानी रविश और नई आरजू—इनसान का दर्द-ही-दर्द, मोहब्बत का फैलाव, दूर से मजहबी मिजाज की शायस्तगी, अच्छे मआशरे को पाकीजा इनसानी रिश्तों की जज्बाती, शायराना आरजुएँ—इस कच्चे दूध की खुशबू में कोई तो ताकत है, के पंद्रह-बीस रोज घर, बीवी और बच्चे से दूर रहने का इस गरमी में आनेवाला सफर याद नहीं आया।
ट्रेन को चार घंटे बाकी हैं—
मैंने जब नारायणदास जाजू का ‘दर्द-ही-दर्द’ उठाया तो आनेवाली सुबह की धुँधली-धुँधली खुशबू थी। अब धूप निकल आई है।
मेरी दुआएँ,

-बशीर बद्र

(*यह मूलतः उर्दू में लिखा गया था। यह उसी का हिंदी अनुवाद है।)


दर्द-ही-दर्द’ का कवि और उसकी कविताएँ
‘दि इंस्टीट्यूट ऑफ कॉस्ट एंड वर्क्स अकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया’ की सम्मानित ‘फेलोशिप’ से नवाजा गया आदमी दिमाग की तेज आँच से निजात पाने के लिए जब दिल के पास आता है तब ऐसा ही कुछ घटित होता है जैसा इन कविताओं के रूप में नुमाया हुआ है।

पुराने चोटें जरा कुछ ज्यादा ही कसकती हैं, खासकर तब जब बादल घिरे होते हैं और उमस कुछ ज्यादा ही हो गई होती है। इस किताब में शामिल श्री नारायादास जाजू की कविताएँ हमारे इसी अहसास को बल देती हैं।
कोई माने या न माने, दिल आदमी की जिंदगी का अनिवार्य हिस्सा है—और दिल है तो दर्द होगा ही। लिहाजा ‘दर्द-ही-दर्द’ की कविताओं को इनके सरोकारों से जोड़कर ही इनका मजा लिया जा सकता है।

इस किताब में शामिल श्री नारायणदास जाजू की कविताएँ कवि की इसी भाव-प्रवण मनोदशा की सूचना देती हैं और सहयात्री बनने का निमंत्रण भी। यह दर्द के रिश्तों का तकाजा है कि ‘दर्द-ही-दर्द’ की कविताएँ फॉर्मेट से सरकी हुई होने के बावजूद अपने पाठकों की रस-ग्रंथि को स्पंदित करने में सफल सिद्ध होंगी।
मैं इनका सानुराग स्वागत करता हूँ।

-राजेंद्र अनुरागी
38, पत्रकार कॉलोनी
माधवराव सप्रे मार्ग, भोपाल-462016

दर्द-ही-दर्द


दर्द का इतिहास सबसे पुराना है। आदिकाल से आज तक दर्द ही हर क्रिया-कलाप का आधार बिंदु रहा है। दर्द सेहत का हो, दौलत का हो, शोहरत का हो या सत्ता का हो, शाश्वत रूप से वह इतिहास का एक अनिवार्य एवं अविभाज्य अंश रहा है। दूसरे शब्दों में, इतिहास की उत्पत्ति एवं आकृति दर्द के विवेचन, आकलन एवं विश्लेषण से ही संभव हुई है। जीवोत्पत्ति, विकास, विलास, अथवा विनाश—सबका स्रोत दर्द ही रहा है। कोई भी निर्माण अथवा उत्थान या पतन बिना दर्द के संभव ही नहीं है। हर काव्य एवं साहित्य दर्द में लिखा गया है। दर्द श्रृंगार का हो, सौंदर्य का हो, प्रकृति का हो, काल का हो, घटनाओं का हो, वियोग का हो, मानसिक एवं शारीरिक हो—सबकी अभिव्यक्ति कविता से सँवर उठती है, निखर उठती है। वाल्मीकि, कालिदास, तुलसी, सूर, मीरा या अन्य किसी भी रचनाकार का काव्य बिना दर्द अथवा चुभन के संभव ही नहीं था। दर्द की भावपूर्ण अभिव्यक्ति ही काव्य है, साहित्य है।

दर्द की अनुभूति ने ही इनसान को कहाँ से कहां पहुँचा दिया है। अनादि काल का अधूरा मानव अब एक सर्वसंपन्न इनसान बन हर पल, हर दिन नए युग का आह्वान कर रहा है। सृष्टि का पाषाण युग कलयुग में परिवर्तित हो गया है। नई दुनिया की नई सभ्यता और नई संस्कृति का प्रादुर्भाव कहीं-न-कहीं छुपे हुए दर्द की परिणति ही है। दर्द से ही प्रेरित हो किए गए आधे-अधूरे प्रयास, धीरे-धीरे विकास की राह बन, दुनिया के उत्थान की परिधि बन गए हैं। दर्द से प्रयास, प्रयास से विकास, विकास से उत्थान और उत्थान से ही मानवता का निष्पादन संभव है। विकसित मानवता का नकारात्मक पहलू दो अथवा विविध राष्ट्रों के मध्य एटमी बमों की लड़ाई एवं रासायनिक युद्ध भी हो सकते हैं। इसी की रोकथाम के लिए आवश्यक है कि सतत साहित्य का सर्जन हो, जिससे जन-जन में दूसरों की पीड़ा के प्रति करुणा भाव उत्पन्न हो और सही मानवता का चिंतन हो। दर्द के माध्यम से विकास का सकारात्मक एवं भावात्मक विवेचन कविता का उद्देश्य होना चाहिए। उल्लेखित गद्य का पद्य में भाषांतर निम्नानुसार है—

जीवन अधूरा दर्द बिन, जीवन बिना इतिहास,
दर्द से प्रेरित जीवन, प्रयास से होता विकास।
विकास से ही फैलता रहा चारों ओर प्रकाश,
तिमिर धरती से हटे, जगमग हो आकाश।

ईश्वर से बड़ा समदृष्टा, समन्वयवादी एवं साम्यवादी कोई नहीं है। आधार के लिए सुबह, विकास के लिए दोपहर और आराम के लिए रात उसी की अद्भुत रचना है। सुख एवं दुःख—ये दोनों अभिव्यक्तियाँ भी उसी की कृति हैं। बिना दुःख के सुख अधूरा है, सुख बिना दुःख संभव ही नहीं। सुख इसलिए अच्छा लगता है कि कहीं दुःख है। दुःख इसलिए परिलक्षित होता है कि सुख की कल्पना है। ईश्वर ने न्यायाधीश की तरह सुख-दुःख सबको बराबर बाँटे हैं। जिसे दौलत एवं शोहरत का सुख दिया उसे सेहत एवं मानसिक विकृतियों का दुःख दे दिया। जिसे सेहत और संतोष का सुख दिया उससे दौलत अथवा शोहरत का सुख छीन लिया। यह कभी संभव ही नहीं है कि सब सुख एक व्यक्ति को एक साथ मिल जाए। इसी तरह सब दुःख एक साथ संभव नहीं है; क्योंकि जीवन तब तक संभव है जब कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई सुख उपलब्ध है। सुख-दुःख दोनों स्वाभाविक प्रक्रिया है, जो क्रमशः अनुभूत होती रहती है। सुख हमेशा संभव नहीं और दुःख में व्यक्ति हमेशा रह नहीं सकता। काल की सुई कभी सुख की ओर तो कभी दुःख की ओर क्रमशः चलती रहती है। हर व्यक्ति, वह चाहे राजा हो या रंक, इस क्रिया से अछूता नहीं रहता। सबसे बड़ा सुख संतोष एवं शांति से है, जो एक सर्वसम्पन्न व्यक्ति के लिए कभी संभव ही नहीं है। सबसे बड़ा दुःख सुख का है। एक संपन्न व्यक्ति किसी अभाव में जितना दुःखी होता है, उसकी परिकल्पना भी संभव नहीं है। एक मजदूर को नुकीले पत्थरों पर भी गहरी नींद आ सकती है; किंतु सम्पन्न व्यक्ति को मखमल के गद्दों पर भी सामान्य नींद संभव नहीं है। अभावों से ग्रस्त व्यक्ति को आंशिक उपलब्धि भी अद्भुत सुख प्रदान करती है। इसीलिए ईश्वर से बड़ा न्यायप्रिय एवं साम्यवादी कोई दूसरा नहीं है, जिसने सबको अलग-अलग सुख-दुःख अलग-अलग समय पर सामान्य परिणति के रूप में प्रदान किए हैं।

सुख-दुःख का नाम दर्द है; चाहे वह खुशी का हो, पीड़ा का हो, राधा के श्रृंगार से हो या उसके वियोग से। दर्द की भाषा, अभिव्यक्ति एवं अनुभूति एक है। दर्द ईश्वर की अनुपम कृति है, जो पहले भी शाश्वत था, आज भी अनुभूत होता है और भविष्य में भी परिलक्षित होता रहेगा। ‘दर्द बिन जीवन अधूरा, जीवन बिना इतिहास’। दर्द के इस अद्भुत दर्शन को ही इस काव्य-रचना में विविध प्रयोगों से उद्धरित किया गया है।
आशा है, साहित्य-प्रेमी एवं पाठक वर्ग इस कृति का रसास्वादन कर मेरा मार्गदर्शन करेंगे, ताकि इस प्रयास में मैं एक कदम और आगे बढ़ा सकूँ।

-नारायणदास जाजू
ए-76, शाहपुरा,
भोपाल-462016

दर्द


दर्द
नन्हा-सा
ढाई अक्षर का शब्द
किंतु
कितना व्यापक
कितना फैला
कितना शाश्वत
कितना विश्वस्त
कि सबकुछ बदला
पर यह नहीं बदला।

दर्द
की कोई सीमा नहीं
यह असीम इतना
जितना नीला आकाश
यह मादक इतना
कि मौलवी भी मदहोश
यह घातक इतना
कि हलचल भी खामोश।

दर्द
विधि की अद्भुत रचना
जिसने डाल दी है
सबमें चेतना
इसी की प्रसव-वेदना से
जन्म होता है
इनसान का
निर्माण का
उत्थान का
वाल्मीकि की रामायण का
वेद का, पुराण का
बाइबिल का, कुरान का।

दर्द
से ही
होती है
शक्ति की अनुभूति
प्यार की आसक्ति
बनती-बिगड़ती
समय की आकृति।

दर्द
रामराज्य
हरिश्चंद्र का सत्य
भरत को ही राम की पादुका
सीता को ही रावण की वाटिका
यह आधार है
हर युग के इतिहास का
सभ्यता, संस्कृति, धर्म के
अटल विश्वास का
यह अभ्यास है
आज के प्रयास का
कल के विकास का।

दर्द
अगर खामोश हो जाए
तो सारा राष्ट्र सो जाए
अगर मदहोश हो जाए
द्रौपदी के विप्लव-सा
तो ‘महाभारत’ हो जाए
यदि बोझिल हो जाए
अर्जुन के विभाव-सा
तो ‘गीता’ का आविर्भाव हो जाए।

दर्द
सूर-मीरा के गीत
बैजू का संगीत
तुलसी की भक्ति
शिवा की शक्ति
तानसेन का मल्हार
हीर-राँझा का प्यार
पद्मिनी का जौहर से श्रृंगार
प्रताप की शूरता का पारावार।

दर्द
महावीर की अहिंसा
गौतम का ज्ञानबोध
पृथ्वीराज की कहानी
चंदबरदाई की जुबानी
शाहजहाँ का ताजमहल
गालिब की गजल
1857 की हलचल
लक्ष्मीबाई की झाँसी
भगतसिंह को फाँसी।

दर्द
का बोध ही
बनाता है इतिहास
नेहरू-गांधी, सुभाष
स्वतंत्रता का उल्लास
गणतंत्र का आभास
प्रगति का प्रयास
नए भारत का
नया आकाश
आगे बढ़ने को
खुशहाली के लिए
झिलमिल प्रकाश।

दर्द
दुनिया की सबसे बड़ी दौलत
जो मिलता है
बढ़ता है
अन-चाह कर
कम नहीं होता मन चाह कर।

दर्द
की अनुभूति
अभिव्यक्ति
आकृति
एक-सी है
चाहे दर्द हो
सेहत का
शोहरत का
दौलत का
चाहत का
मोहब्बत का।

दर्द
देता है
एक-सी धड़कन
एक-सी सिहरन
क्योंकि
यह सहज संभाव्य है
ईश्वर का
अद्वितीय न्याय है।

दर्द
पारदर्शी है
चाहे फिर वह हो
प्रजा का
या राजा का
अमीर का
या फकीर का।

दर्द
पाया है
अधूरी साधना से
किसी अतृप्त आराधना से
किसी कर्तव्य पर
समर्पित हो गई भावना से
इसलिए
सँजो रखा है
इसे दिल के किसी कोने पर
बचा रखा है
किसी जादू-टोने से
इतना न हँसो
किसीके रोने पर
गमगीन होने पर
कि सर्द बन वह मचल उठे
दर्द बन तुम्हें निगल उठे।

दर्द
व्यधिक है
पथिक है
याचक है
जो न जाने कब
तुम्हारे
द्वार खटखटा दे
और खुद सोकर
तुम्हें जगा दे।



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