उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
"तो आर्य, आप सुतीक्ष्ण मुनि के दर्शन अवश्य करें: किंतु उनके आश्रम में भी आपके लिए स्थान नहीं है। हां, आप अन्यत्र रहकर, राक्षसों को समाप्त कर दें। उनका आतंक मिटा दें। वैसी स्थिति में उन्हें आपको अपने आश्रम में ठहराकर अबाध आनन्द होगा।"
"यह आपका पूर्वाग्रह तो नहीं आर्य?" सीता पहली बार बोलीं।
"देवी स्वयं देख लेंगी।" धर्मभृत्य बोला, "जाना मुझे भी उधर ही है। साथ चलने की अनुमति चाहूंगा।"
"क्यों बंधुओ?" राम ने साथियों को देखा। वे सहमत थे।
"हमें कोई आपत्ति नहीं धर्मभृत्य।" राम मुस्कराकर बोले, "किंतु जो लोग हमारे साथ चलते हैं, वे हमारे शस्त्रागार के परिवहन में भी सहयोग करते हैं।"
धर्मभृत्य जोर से हंसा, "मुझे भी कोई आपत्ति नहीं है।"
आश्रम से विदा हो, वे वन में आए, तो धर्मभृत्य के कुछ साथी भी आ मिले। शस्त्रागार के परिवहन में कोई कठिनाई नहीं हुई। वन में कुछ आगे निकल आने पर उन्होंने देखा कि वे अकेले नहीं थे। उनके पीछे-पीछे ग्रामीणों और वनवासियों की अनेक टोलियां थोड़ी-थोड़ी दूर पर चल रही थीं। किंतु, वह दूरी भी अधिक देर तक बनी नहीं रही।
क्रमशः वे लोग निकट आते गए। उन टोलियों की अपनी दूरी भी कम होती रही और वे लोग राम की टोली से भी दूरी कम करते गए।
"मेरा विचार है, थोड़ी देर में वे लोग हमारे साथ आ मिलेंगे।" लक्ष्मण धीरे से बोले।
"यह जन-सामान्य है, जिसके घुमड़ते हुए साहस को ऊपर से दमित कर रखा गया है।" धर्मभृत्य बोले, "आप ऊपर का वह दमन हटा दीजिए, देखिए इनका साहस उफनकर बाहर आ जाएगा।"
"ठीक कहते हो।" राम बोले, "अकेला व्यक्ति साहस नहीं कर सकता, समूह कर सकता है। किंतु कुछ बातें मेरी अपेक्षा के अत्यन्त प्रतिकूल हुई हैं।"
"क्या?" सबकी दृष्टि राम की ओर उठ गई।
"ऋषि शरभंग का आत्मदाह विद्रोह नहीं जगा सका है। लगता है, उससे सारे आश्रम में निराशा फैली है। संभव है, अनेक वनवासियों ने मन-ही-मन यह भी मान लिया हो कि उनका अन्त भी इसी प्रकार होने जा रहा है, जबकि इस प्रकार का एक सार्वजनिक आत्मदाह लाखों लोगों के मन को धधका देने में समर्थ होना चाहिए।"
"आप ठीक कह रहे हैं।" उत्तर धर्मभृत्य ने दिया, "इसके दो कारण मेरी समझ में आते हैं।"
"क्या?"
"राक्षसों का आतंक और दमन इतना गहरा तथा दूरगामी है कि जन-सामान्य यह मान बैठा है कि वह कभी भी समाप्त नहीं हो सकता। उसके विरोध का अर्थ आत्महत्या है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अपने मन को ठोक-पीटकर मनवा लेता है कि अपमानित जीवन, सम्मानपूर्ण आत्महत्या से अधिक श्रेयस्कर है।"
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