लोगों की राय

उपन्यास >> संघर्ष की ओर

संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

Like this Hindi book 15 पाठकों को प्रिय

43 पाठक हैं

राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

"और दूसरा कारण?" मुखर ने पूछा।

"वह बताने को उत्सुक तो बहुत हूं, किंतु भय है कि आप लोग उससे शायद सहमत न हो पाएं!"

"आप पहले से ऐसा क्यों मान बैठे हैं?" सीता बोलीं।

"मेरा पिछला अनुभव ही कुछ ऐसा है देवि!" धर्मभृत्य बोला, "इधर मैं कुछ असंयमी-सा वाग्मी प्रसिद्ध हूं। ऋषि परंपरा के अधिकांश लोग मुझसे सहमत नहीं हो पाते।"

"तुम वाग्मी छोड़, वाचाल भी हो, तो भी अपनी बात निर्द्वन्द्व होकर कहो।" राम बोले, "हम तुमसे असहमत नहीं होंगे। असहमति की स्थिति में या तो तुम्हें सहमत कर लेंगे, या सहमत हो जाएंगे।"

धर्मभृत्य की प्रसन्नता उसके चेहरे पर लक्षित हुई, 'पूज्य जन के विरुद्ध बोलने का अपराध क्षमा करेंगे, किंतु मेरा दृढ़ विश्वास है कि हमारे अनेक महान ऋषि स्वयं ही जन-सामान्य का दमन किए हुए हैं। जनता के साहस के विकसित हो; फूटकर कर्म रूप में परिणत होने में अनेक ऋषि स्वयं बाधा-स्वरूप बैठे हैं।"

"यह कैसे संभव है?" सीता ने आश्चर्य से पूछा।

"देखिए। आप असहमत हो गईं न।"

"असहमति नहीं, जिज्ञासा है मुनि धर्मभृत्य।" लक्ष्मण मुस्कराए, "सहमति-असहमति तो विलंब से प्रकट होगी। अभी वार्तालाप चलेगा।"

"ठीक है। ठीक है। मैं ही जल्दी कर गया।" धर्मभृत्य हंसा, "यदि ज्ञानश्रेष्ठ तथा आश्रम के अन्य अधिकारी मुनि, दूर और पास से उमड़ आए, इस जन-समुदाय के सम्मुख यह स्पष्ट कर देते कि ऋषि के आत्मदाह का वास्तविक कारण क्या था, तथा आत्मदाह के लिए उत्तरदायी व्यक्ति के विरुद्ध खुले अभियान का आह्वान करते तो इस क्षण इस आश्रम से स्वयं आत्मदाह करने को प्रस्तुत सैकड़ों व्यक्तियों की छोटी किंतु अजेय सेना निकलती। किंतु, उन मुनियों ने ऋषि के आत्मदाह पर मुंह लटका लिए। उन्होंने अपने परिवेश में हताशा भर दी। वे भयभीत हो उठे कि कहीं आश्रम, संगठित तथा आतंकवादी शक्तियों के विरोध का केन्द्र न बन जाए, क्योंकि उस स्थिति में उन शक्तियों का कोप उस आश्रम पर गिरेगा और वह आश्रम ही, जो उनकी संपत्ति है, नष्ट हो जाएगा..."

"आर्य धर्मभृत्य," मुखर बोला, "मुझे लगता है कि आप उनके प्रति अधिक कठोर हो रहे हैं। उन बेचारों को तो स्वयं ऋषि के आत्मदाह का कारण मालूम नहीं है।"

"मैं तुमसे सहमत नहीं हूं मुखर।" धर्मभृत्य बोला, "दिन-रात ऋषि के इतने निकट रहने वालों को ऋषि के मन की पीड़ा का ज्ञान न हो, यह मैं संभव नहीं मानता..."

"मुझे लगता है कि धर्मभृत्य ठीक कह रहे हैं।" लक्ष्मण ने बात काटी, "मुनि ज्ञानश्रेष्ठ ने ऋषि के वाचिक चिंतन की अनेक बातें हमें बताई, संभव है, बहुत कुछ वे छिपा भी गए हों।"

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai