उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
"एक बात और है।" धर्मभृत्य कुछ आवेश में बोला, "अपनी तपस्या से, अपने अभावों को भुलाकर, अथवा अपनी किन्हीं उपलब्धियों से-किसी भी कारण से हुए हों, किंतु अनेक लोग अत्यंत शांतिप्रिय हो गए हैं। वे चाहे उसे अपनी आध्यात्मिक सिद्धि मानें, किंतु मेरा विचार है कि वे लोग उस जड़ मानसिक स्थिति तक पहुंच गए हैं, जहां तनिक-सी भी हलचल उनके लिए अशांति का कारण बन जाती है। वे लोग किसी भी मूल्य पर शांति बनाए रखना चाहते हैं। अतः वे प्रत्येक संघर्ष के विरुद्ध हैं, चाहे वह संघर्ष न्याय के लिए ही क्यों न हो। इसी से वे प्रत्येक असंतोष को टालते रहते हैं। संघर्ष की इच्छा का दम घोंटने के लिए निराशा बहुत अच्छा उपकरण है। वे लोग स्वयं भी निराश रहते हैं और दूसरों को भी निराश हो जाने के लिए प्रेरित करते रहते हैं।"
"आर्य धर्मभृत्य, आप तो अपने-आप में अध्यात्म-विरोधी एक पूर्ण आन्दोलन हैं।" सीता हंसीं।
"देवी ने ठीक कहा।" धर्मभृत्य गंभीर हो गया, "मेरा दृढ़ विश्वास है कि भूखे मनुष्य से अध्यात्म की बात करना अपराध भी है और पाप भी। मैं जिन लोगों के निकट रहता हूं, उनकी आत्माएं ही नहीं, शरीर भी भूखे हैं। वे लोग आध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में पुनर्जन्म नहीं लेते, भूख तथा रोग से इस जन्म को भी खो देते हैं। वे लोग ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए अपना शरीर-रूपी वस्त्र नहीं त्यागते, वे वस्त्रों के अभाव में प्रकृति के शीतघाम से पीड़ित होकर शरीर त्याग देते हैं...।"
"हमें उनके निकट ले चलो।" राम का स्वर मधुर था।
"आर्य! मेरी भी यही इच्छा है।"
बातों में लीन होने के कारण किसी का ध्यान, थोड़ी-थोड़ी दूरी पर चलने वाली तपस्वियों तथा ग्रामीणो की टोलियों की ओर नहीं गया था। सहसा ही वार्तालाप का तार टूटा, तो देखा, उन टोलियों ने मिलकर एक समुदाय का रूप ले लिया था और वह उनके इतने निकट होकर चल रहा था, मानो उनके साथ ही हो।
"आर्य धर्मभृत्य केवल एक ऋषि की प्रशंसा करते हैं, भद्र राम!" उस भीड़ में से एक ग्रामीण आगे आ गया था।
राम मुस्कराए, "किसकी भाई?"
"ऋवि श्रेष्ठ अगस्त्य की।" ग्रामीण के चेहरे पर श्रद्धा भाव था! "तुम तो बहुत काम के आदमी हो भाई।" लक्ष्मण ने ग्रामीण के कंधे पर आत्मीय ढंग से हाथ रखा, "क्या नाम है तुम्हारा?"
"भीखन।" ग्रामीण कदाचित् अपनी वाचालता पर संकुचित हो गया!
"ऋषि भारद्वाज ने बड़ी चिंता से अपनी पुत्री लोमामुद्रा और जामाता अगस्त्य की चर्चा की थी।"
"तो आप उनसे परिचित हैं?" धर्मभृत्य प्रसन्न मुख बोला। "इस समय आपको एक दृश्य दिखाना चाहता हूं।"
धर्मभृत्य पगडंडी छोड़, वृक्षों के एक झुंड के पीछे चला गया। कुछ लोग उसके साथ और कुछ पीछे-पीछे चले। वृक्षों की ओट समाप्त होते ही, सामने का दृश्य देखकर, राम स्तब्ध रह गए : उनके सम्मुख नर-कंकालों का ढेर लगा था।
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