लोगों की राय

उपन्यास >> संघर्ष की ओर

संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

Like this Hindi book 15 पाठकों को प्रिय

43 पाठक हैं

राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

"ऋषिवर! सौमित्र का यह अभिप्राय नहीं था।" राम ने उन्हें बीच में ही टोक दिया, "यह उनकी ही नहीं, हम सबकी जिज्ञासा है कि उस राक्षसी आतंक के इस प्रकार विलीन हो जाने का क्या कारण है, जिसने अनेक महान् आत्माओं को वामन बना रखा था।"

"उस आतंक को तुमने तोड़ा है राम!" ऋषि बोले, "हमारे मन के आतंक को शरभंग का आत्मबलिदान भी नहीं तोड़ सका। गुरु अगस्त्य का आदेश और साहस भी हमारे तेज को जाग्रत नहीं कर सका; किंतु तुम्हारे एक-एक कृत्य ने घोषणा की कि जब जन-सामान्य का विश्वास जाग उठता है तो राक्षस उनके सामने ठहर नहीं पाते, शत्रुओं की सैनिक टुकड़ियां उनके निकट नहीं फटकती तथा बड़े-बड़े महारथी सेनापतियों में इतना साहस नहीं होता कि अपनी सेनाओं को जागरूक जन-सामान्य के सम्मुख खड़ा कर दे...तुम्हारी आस्था, साहस, जनभावना और कौशल के सम्मुख राक्षसी आतंक काल्पनिक सिंह प्रमाणित हुआ।...प्रत्येक चिंतनशील व्यक्ति सोचता है कि तुम अद्भुत हो राम! तुम्हारा साहस, वीरता तथा क्षमता अद्भुत है। तुम्हारे पास रावण का साम्राज्य और सेना नहीं है, इंद्र के उन्नत साधन नहीं हैं; किंतु फिर भी तुम्हारा नाम सुनते ही, इंद्र भाग खड़ा होता है और रावण दूर-दूर से ही अपने गुर्गों को उकसाता रहता है।...वही राम हमारे पक्ष में है। वह जनता का उद्बोधन करता घूम रहा है, तो फिर हम भयभीत क्यों हैं? यदि इस समय भी हम अपने स्वाभिमान, अपनी स्वतंत्रता तथा अपने मानवीय अधिकारों के लिए नहीं लड़ सके, तो फिर यह अवसर कभी नहीं आएगा। सम्मानपूर्वक जीने का अवसर आए, और उसके लिए कोई उठ खड़ा न हो-ऐसा मूर्ख कौन होगा?"

"यह आपकी उदारता है आर्य कुलपति!" ऋषि के मौन होने पर राम विनीत स्वर में बोले, "अन्यथा यदि जनसामान्य में स्वयं तेज न हो तो राम क्या करेगा और सौमित्र क्या करेगा। प्रकृति के नियम अपना कार्य पहले से ही कर रहे थे। जहां जितना भयंकर दमन होता है, वहां उसी अनुपात में भयंकर विद्रोह भी होता है। यहां पृष्ठभूमि पहले से ही प्रस्तुत थी। हमने बहुत किया तो लोगों की भावना को कर्म का रूप दिया।" राम कुछ रुके, "आपके आश्रम के निकटवर्ती ग्रामवासियों की क्या मनःस्थिति है?"

"अभी तक हमारा आंदोलन अपने आश्रम तक ही सीमित है।" सुतीक्ष्ण धीरे से बोले, "ग्रामवासियों तथा अन्य वनवासियों तक पहुंचने का औचित्य अभी मेरे मन में स्पष्ट नहीं है।"

"क्यों?" राम ने चकित होकर पूछा।

"कह नहीं सकता कि वे लोग हमारे लक्ष्य की गंभीरता को समझेंगे भी या नहीं।"

राम ने कुलपति को अपनी आंखों में तौला; और स्थिर स्वर में बोले, "आर्य कुलपति, यदि अपने वय और स्थिति की सीमा का अतिक्रमण करूं तो क्षमा कीजिएगा।"

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai