उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
ऋषि के मन में एक आकस्मिक फुंकार उठी : यह सब हो गया और किसी ने मुझसे पूछा तक नहीं। इस आश्रम का कुलपति मैं हूं, या राम? राम को क्या अधिकार था कि मेरे आश्रम में, मेरी इच्छा तथा अनुमति के बिना अपना कार्यक्रम आरंभ कर देते...और इन आश्रमवासी मुनियों तथा ब्रह्मचारियों को क्या हो गया है? मेरी पूर्ण उपेक्षा कर, ये राम के निर्देशन में इस प्रकार कार्य कर रहे हैं...।
किंतु फुंकार की ही आकस्मिकता से ऋषि के मन में विचार का एक शीतल झोंका भी आया :अपनी भूलों की पुनरावृत्ति मत कर सुतीक्ष्ण। अपने अहंकार को त्याग। यह जनसमूह, राम को अपना नेता गानकर उनके पास आया था, तेरे लिए इनमें से एक व्यक्ति नहीं आया। तुझसे ही दीक्षा ग्रहण करनी होती, तो ये लोग वर्षों पूर्व तेरे पास आए होते।...तुझमें और राम में बहुत अंतर है। तू अपने मन की बात दमित-शोषित जनसामान्य पर थोपता है, और राम उसी जनसमुदाय की इच्छा अपने मन पर अंकित करता है...अब भी यदि तू अपनी पद्धति से अपने मार्ग पर चलता गया, तो आज का यह क्षणिक एकाकीपन स्थायी हो जाएगा। धारा दूसरी ओर मुड़ जाएगी। ये लोग तुझे छोड़ जाएंगे-ये ग्रामीण, ये ब्रह्मचारी, ये मुनि...उन्हें अपने साथ चलाने का प्रयत्न मत कर, तू उनके साथ चल। उनमें आई निर्माण की गति में विघ्न मत बन... ।
सुतीक्ष्ण का मन शांत हो गया। वे सहज रूप से राम की ओर चल पड़े। अपने नये सदस्यों और नये कार्यक्रमों को लेकर आश्रम दिन-भर बहुत व्यस्त रहा। ऋषि के सोचे हुए समारोह से भी बहुत बड़ा समारोह, अनायास ही संपन्न हो गया। संध्या तक, सारे जनपद के लिए उत्पाद, रक्षा, शिक्षण, संचार इत्यादि का भावी कार्यक्रम निश्चित हो गया। विभिन्न कार्यक्रमों के लिए टोलियां बन गईं और नेता चुन लिए गए। सब लोग अपना दायित्व, कार्यक्षमता तथा महत्व समझ गये थे। सुतीक्ष्ण के आश्रम में स्वेद-अभिषिक्त इतने प्रसन्न चेहरे एक साथ कभी एकत्र नहीं हुए थे। सब ओर नये भावी जीवन का आह्लाद था...।"
अतिथियों को विदा कर, संध्या समय वे लोग एकत्र हुए तो ऋषि बोले, "दिन-भर बहुत व्यस्त रहे राम!"
राम हंसे, "हां ऋषिवर, आपके निकट बैठने का अवसर ही नहीं मिला। पर, एक ही दिन में बहुत सारा कार्य निबट गया आर्य कुलपति। यदि ये सब लोग अपनी इच्छा से स्वयं ही यहां न आ गए होते तो, इतना संगठन-कार्य करने में कई मास लग जाते...।"
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