उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
"ठीक कहते हो राम, मैंने तुम लोगों कीं क्षमता के विषय मे जितना सुना था, उससे कहीं अधिक ही पाया है। सत्य तो यह है कि मैंने भी आज एक दिन में जितना सीखा है...उतना एक वर्ष में कभी नहीं सीखा।"
"आज आप केवल प्रशस्ति-वचन की भंगिमा में हैं आर्य कुलपति!" सीता हंसी।
"नहीं पुत्री, मेरे वचन में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है।" ऋषि गंभीर थे, "आज मैं अपने अहंकार तथा सत्य में होने वाले युद्ध का तटस्थ साक्षी रहा हूं। इसके परिणामस्वरूप मैंने बहुत कुछ पाया है। इसलिए निश्छद्म तथा निश्छल मन से एक निवेदन कर रहा हूं राम।"
"आप आदेश दें ऋषिवर।" राम ने सुतीक्ष्ण को देखा-क्या वे कुछ असाधारण कहना चाहते हैं?
"आज से यह आश्रम, मुझसे अधिक तुम्हारा है राम।" सुतीक्ष्ण बोले, "मुझे वचन दो कि तुम यहां से जाने की जल्दी नहीं करोगे।"
राम हंसे, "ऋषिवर, आश्रम व्यक्ति का तो होता नहीं। यह तो सामाजिक संपत्ति है। वैसे हमारी योजना भी संगठन-काल के लिए यहीं निवास करने की थी। क्यों सौमित्र?"
"हां भैया, जब तक संगठन-कार्य चले।"
"...किंतु, पहले राम अपना भावी कार्यक्रम बता दें।"
"यहां का कार्य समाप्त कर, हम ऋषि अग्निजिह्व के आश्रम से होते हुए गुरु अगस्त्य के पास जाना चाहते हैं।"
"इच्छा तो मेरी भी थी राम!" सुतीक्ष्ण का स्वर फिर गंभीर हो गया, "पर सोचता हूं, मैं तुम्हारे साथ न जाऊं। तुम्हारे जाने के पश्चात् भी यहीं रुककर, स्वयं को अपने गुरु के मार्ग में पूर्णतः दीक्षित करूं। तब ही उनके दर्शन करने जाऊं।"
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