उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
ग्यारह
अगस्त्य को देखकर राम पर एक बृहद् बरगद का-सा प्रभाव पड़ा, जिसकी छाया में पूरा आश्रम बसा हुआ था। अगस्त्य आश्रम का वातावरण, अब तक के देखे हुए समस्त आश्रमों से भिन्न था। वहां खुलकर शस्त्र-प्रशिक्षण चल रहा था और स्वयं ऋषि भी शस्त्र धारण किए हुए थे। आश्रमवासियों के चेहरों पर विश्वास की आभा थी और व्यवहार बहुत संतुलित तथा व्यवस्थित था।
राम तथा उनके साथियों का आश्रम में हार्दिक स्वागत हुआ। अगस्त्य ने उनका सत्कार इस प्रकार किया, जैसे वे उनके अत्यन्त आत्मीय हों और जिनसे वर्षों पुराना व्यवहार हो। लोपामुद्रा ने सीता को अपने वक्ष में भींच लिया। सीता के गद्गद कंठ से संबोधन निकला, "ऋषि मां!"
लोपामुद्रा ने मुग्ध दृष्टि से निहारा, और पुनः वक्ष से लगा लिया, "कहां से सीख लिया यह संबोधन, मेरी बच्ची!"
मन को व्यवस्थित करने में सीता को थोड़ा समय लगा। बोलीं, "आपके लिए दूसरा कोई संबोधन हो ही कैसे सकता है मां!"
"वैसे तो सारा जनपद ही मुझे 'ऋषि मां' कहता है; किंतु यह संबोधन प्रभा का दिया हुआ है और वही इसको सार्थक भी कर रही है। तुम प्रभा को जानती हो सीते?" लोपामुद्रा हंसीं, "वह इस आश्रम के सभी लोगों का उपचार करती है, और मेरे वृद्ध शरीर का भी।"
"वैद्य हैं?" सीता आश्चर्य से बोलीं।
"वैद्य ही नहीं।" लोपामुद्रा बोलीं, "सेनानायक पति की शल्यचिकित्सक पत्नी भी। प्रत्येक छोटे-बड़े युद्ध के पश्चात् उसका महत्व और भी बढ़ जाता है। अनेक लोगों के प्राण उसी के उद्यम से बचते हैं।"
"वह ठीक अर्थों में आपकी पुत्री हैं।" सीता भावुक हो उठीं।
"वह तो मेरी पुत्री है ही, तुम भी मेरी वास्तविक पुत्री हो सीते।" लोपामुद्रा फिर मुग्ध भाव से बोलीं, "मुझे तो लगने लगा था कि पति के अभियान में साथ चल पड़ने वाली स्त्रियां जैसे अब रही ही नहीं। विंध्याचल पार कर अगस्त्य के साथ भारद्वाजी लोपामुद्रा आई थी और अब राम के साथ जानकी सीता आई है।"
"अच्छा, इतना सम्मान है मेरे काम का कि मेरी समकक्षता भारद्वाजी भगवती लोपामुद्रा से की जा सके।" सीता जैसे आत्ममंथन में लीन थीं, "मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि मैंने कुछ असाधारण किया है।"
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