लोगों की राय

उपन्यास >> संघर्ष की ओर

संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

Like this Hindi book 15 पाठकों को प्रिय

43 पाठक हैं

राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

"यह असाधारण है पुत्री," लोपामुद्रा बोलीं, "सब कुछ असाधारण है। पति युद्ध में जूझ रहा हो तो, या तो पत्नी भी शस्त्र उठाकर जूझे, या फिर आहतों का उपचार करे। शल्यचिकित्सकों के बिना युद्ध नहीं जीते जाते। एक अच्छा शल्यचिकित्सक युद्ध में हुई अपने पक्ष की हानि को आधा कर देता है।"

"सचमुच ऋषि मां," सीता की आंखें भीग गईं, "पति के साथ ऐसा साहचर्य-भाव, इतना जाग्रत विवेक और यह वात्सल्य और किसमें होगा।"

"सीते! अपनी मां की प्रशंसा अपने मुख से नहीं करते।" लोपामुद्रा ने सीता के सिर पर हाथ फेरा, "आओ, तुम्हें अपना चिकित्सालय दिखाऊं और प्रभा से भी मिलाऊं।"

वे उठीं और आगे-आगे चल पड़ीं। अपने वय की दृष्टि से लोपामुद्रा पर्याप्त स्वस्थ थीं और स्फूर्तिपूर्वक चल रही थीं।

वे दोनों चिकित्सा-कुटीर में पहुंचीं। वातावरण एक प्रकार से ममतामय अनुशासन से भर गया। लोपामुद्रा ने प्रत्येक रोगी के स्वास्थ्य के विषय में पूछा, सबको सांत्वना दी, सबको प्यार किया, और सीता को लेकर साथ की कुटिया में आई। वहां अनेक स्त्रियां विभिन्न प्रकार की औषधि बनाने में संलग्न थीं। उनको निर्देश दे रही थीं प्रभा। सीता ने देखा : प्रभा एक प्रौढ़ महिला थीं, जो बड़ी दक्षता से अपना कार्य कर रही थीं।

राम के साथ आए हुए लोग क्रमशः लौट गए थे। अतिथियों को भेज आश्रम पुनः अपनी सहज स्थिति में आ गया था। राम, लक्ष्मण, मुखर और सीता, आश्रम से भली प्रकार परिचित हो चुके थे। सीता का अधिकांश समय चिकित्सा-कुटीर में लोपामुद्रा और प्रभा के साथ व्यतीत हो रहा था। लक्ष्मण और मुखर का कुछ समय ऋषि अगस्त्य के पास बीतता था और कुछ आश्रमवाहिनी के व्यायामों में।...और राम जब से आए थे, ऋषि के साथ एक लंबे संवाद में उलझे हुए थे। प्रत्येक भेंट जैसे उस संवाद का एक खंड थी। पहला खंड दूसरे खंड से जुड़ता था और संवाद आगे बढ़ता था-विवाद होता था, मतभेद होता था, अनुकूलन होता था और फिर विचारों की अभिव्यक्ति और संप्रेषण होता था।

क्रमशः सीता, लक्ष्मण और मुखर भी जान गए कि अगस्त्य और राम का संवाद नहीं था। वह उन दोनों की चिंता का विषय था, जिसके कारण वे लोग अपने-आप से भी उलझ रहे थे और एक-दूसरे से भी...हां, लोपा मुद्रा अवश्य इन विवादों से अलग अपने कार्य में लगी रहती थीं-परिणामतः आश्रम का वातावरण अवसादमय नहीं हो पाता था।

"ऋषि और राम के मध्य यह क्या हो रहा है ऋषि मां?" सीता ने चिंतित होकर पूछा।

"वे प्रसव-वेदना में तडप रहे हैं पुत्री!" लोपामुद्रा हंसीं, "तुम चिंतित मत हो। इनकी वेदना से किसी अद्भुत कार्यक्रम का जन्म होगा।"

सीता हंस नहीं सकीं, 'किंतु वे लोग कितने चिंतित हैं ऋषि मां! मेरे राम तो यहां आकर, जैसे वे राम ही नहीं रहे।"

"ओह, तुम तो अशांत हो सीते!" लोपामुद्रा बोलीं, "यह ऋदि कार्य पद्धति है। आओ मेरे साथ।"

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book