उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
लोपामुद्रा सीता को लेकर ऋषि कुटिया में आईं। राम और ऋषि आमने-सामने बैठे थे, और ऋषि कुछ कह रहे थे। उन्होंने सीता और लोपामुद्रा को बैठने का संकेत किया और अपनी बात जारी रखी, "...जय सारा मानव-ज्ञान, क्षमता, बुद्धि, प्रयत्न-सब कुछ आकर स्वार्थ पर टिक जाएगा तो स्वार्थ की सीमा भी संकीर्ण होने लगेगी। उसमें ऐसी कोई बात नहीं सुनी जाएगी, जो मनुष्य को स्वार्थ से विमुख कर मानवता की ओर उन्मुख करती हो। तुम क्या समझते हो कि रावण केवल आर्य अथवा वानर बुद्धिजीवियों की ही हत्याएं करता है? वह किसी भी जाति, देश अथवा काल के उस बुद्धिजीवी की हत्या कर देगा, जो स्वार्थ-परक व्यवस्था का विरोध करेगा। स्वार्थ की सीमा में संकीर्ण होती हुई यह व्यबस्था मात्र 'स्व' को देखती है। उदारता को शत्रुता और जिज्ञासा को विरोध मानती है। स्वयं लंका के सामान्य तथा दुर्बल नागरिक किस प्रकार पिस रहे होंगे, यहां बैठकर यह समझ पाना बहुत कठिन है। वे लोग अपनी व्यवस्था के आत्मविरोध को चरमसीमा तक पहुंचा रहे हैं-एक ओर भौतिक दृष्टि से बहुत संपन्न लोग हैं और दूसरी ओर अत्यन्त विपन्न लोग। वैसे सुख भी एक मानसिक स्थिति है, अतः उनके संपन्न लोग भी कितने सुखी हैं-कहना कठिन है। वे लोग अधिक-से-अधिक भौतिक संपन्नता और सुख की ओर बढ़ते हुए, विवेक के सारे बंधन तोड़ चुके हैं। सिवाय 'निज' के, अन्य कोई चिंता उन्हें नहीं है; इसलिए वे लोग आदिम बर्बरता में नहीं, सुख और स्वार्थ की चरम स्थिति में अपने सहजाति मानव का मांस खाने लगे हैं; और दूसरी ओर शोषित वर्ग की असहायता की वह सीमा है कि, जिसका मांस खाया जाता-वह कुछ कह सकने की स्थिति में नहीं है। सारे संबंधों को उन्होंने स्वार्थ अर्थात् धन पर टिका रखा है; इसलिए वे धनी तो हैं, किंतु अपनी क्रूरता में मानवता को भूलकर राक्षस हो गए हैं।...यह तो एक अंधकार है राम! जो सारे
आकाश पर छाता जा रहा है और अपने हिंस्र पंजों में धरती को दबोचता जा रहा है। उसके प्रतिकार के लिए तो सूर्य को ही धरती पर उतरना होगा, उससे कम में तो उससे लड़ पाना कठिन है।"
"ऋषिवर," राम का गंभीर स्वर गूंजा, "सारा दंडक वन जाग उठा है। हमने एक-एक ग्राम शस्त्रबद्ध कर दिया है। स्थान-स्थान पर अनेक राक्षस मारे जा चुके हैं। जो मारे नहीं गए, वे भाग गए हैं, और दो दिनों की बात नहीं कह रहा-हम दस वर्षों से यहां भटक रहे हैं, और संगठन का कार्य कर रहे हैं।"
"मैं चालीस वर्षों से यहां बैठा हूं राम!" ऋषि का स्वर और उग्र हो उठा, "तुम दस वर्षों की बात कर रहे हो। मैंने वातापि और इल्वल को समाप्त कर दिया; मैंने कालकेयों को नष्ट किया-किंतु, उससे क्या हुआ? राक्षस समाप्त हो गए या राक्षस-शक्ति समाप्त हो गई? उलटे वे और अधिक फैल गए और उन्होंने उन स्थानों को खोज निकाला जहां मनुष्य और भी निर्बल, और भी निर्धन तथा और भी असंगठित है। परिणामतः पहले से भी अधिक संख्या और मात्रा में मानव पीड़ित है।"
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