उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
"नहीं!" अनायास सीता के कंठ से चीत्कार फूटा, "यह झूठ है।"
राम सहज रूप से मुस्कराए, "आप स्वयं देखें ऋषिवर, मेरी पत्नी ने स्वयं अपना परिचय दिया है। यह अच्छा है कि लक्ष्मण और मुखर यहां नहीं हैं, नहीं तो मुझे भय है कि अपनी उग्रता में आपका अपमान कर बैठते! और जहां तक मेरी बात है..." सहसा राम का मुख-मंडल आरक्त हो उठा, "मैं राम हूं, राम जब न्याय के पक्ष में बढ़ता है, तो शिव, ब्रह्मा, विष्णु जैसे नामों से नहीं डरता। शक्ति इन नामों में नहीं, जनसामान्य में है। मेरा बल जन-सामान्य का विश्वास है। कोई शस्त्र, कोई आयुध, कोई सेना या साम्राज्य, जनता से बढ़कर शक्तिशाली नहीं है। आप मेरा विश्वास करें। राम मिट्टी में से सेनाएं गढ़ता है, क्योंकि वह केवल जनसामान्य का पक्ष लेता है, न्याय का युद्ध करता है।"
"अब बस करें ऋषिवर," राम के चुप होते ही लोपामुद्रा अत्यन्त मृदु स्वर में बोली, "बहुत परीक्षा हो चुकी। अब बच्चों को अधिक न तपाएं। इन्हें आशीर्वाद दें-ये समर्थ हैं।"
ऋषि के चेहरे पर आनन्द प्रकट हुआ, "तो राम! पंचवटी जाने के लिए मैं तुम्हें नियुक्त करता हूं, और इस सारे भूखंड की जनशक्ति तुम्हारे हाथ में देता हूं। लोपामुद्रा ने तुम्हें समर्थ कहा है, मैं तुम्हें सफल होने का आशीर्वाद देता हूं। न्याय का पक्ष कभी न छोड़ना; और जनविश्वास को अपनी एकमात्र शक्ति मानना। जाओ अब विश्राम करो।"
जाते-जाते सीता और राम दोनों ने लोपामुद्रा के चरण छुए, "आशीर्वाद दो मां!"
"मेरे बच्चो!" लोपमुद्रा ने दोनों को एक साथ अपनी भुजाओं में भर लिया, "अन्याय का विरोध कभी असफल नहीं होता। जिस अंधकार की चर्चा ऋषि ने की है, उसे नष्ट करने के लिए तुम ही सूर्य को धरती पर उतार लाओ, यही मेरी कामना है।..."
अपनी कुटिया में आकर, राम आत्मलीन हो गए। सीता पहले तो कुछ चिंतित हुईं, किंतु फिर लोपामुद्रा की बात स्मरण कर, भीतर-ही-भीतर जैसे कुछ हल्की हो गईं : 'राम प्रसव-वेदना में तड़प रहे हैं।' उन्होंने मन-ही-मन अट्टहास करने का प्रयत्न किया...किंतु अट्टहास से पूर्व ही उसकी अनुगूंज बहुत दूर तक चली गई और सीता के हृदय के किसी कोने को आहत कर गई।...जिसे होनी चाहिए थी, उसे तो कभी प्रसव की वेदना छू तक नहीं गई; और राम के संदर्भ में वे विचारों के जन्म को लेकर प्रसव की बात सोच रही हैं। लोपामुद्रा के लिए कदाचित् यह पीड़ा का नहीं, परिहास का क्षेत्र था; किंतु सीता को तो इस परिहास के साथ-साथ अपनी सूनी गोद भी याद आ जाती है...अयोध्या में होतीं, तो अब तक एकाधिक संतानों का सुख भोग रही होतीं। एकाधिक बार प्रसव-वेदना भी सही होती। नन्हे-नन्हे बच्चों को गोद से उतर, भूमि पर रेंगते, डगमगाकर पग-पग चलते और फिर दौड़ते हुए देखा होता। उनकी वां-वां से तोतले बोलों तथा तोतले बोलों से होकर स्पष्ट शब्दों में हठ करते हुए उनकी वाणी को अपने कानों से सुना होता किंतु परिस्थितियां ही ऐसी रहीं कि न गर्भ धारण कर पाईं न प्रसव की सुखद पीड़ा झेली, न संतान को गोद में लिया, न स्तन-पान कराया, न नहलाया-धुलाया, खिलाया-सुलाया, रुठाया-मनाया, न उनकी क्रीड़ा देखी... ।
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