उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
सीता का मन उदास हो गया : मानव-समाज की आवश्यकताएं बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। संसार में मानव-यातना भी बहुत हैं-उसे दूर करने का प्रयत्न, मनुष्य का पहला कर्त्तव्य है। मनुष्य की अपनी, कोई निजी इच्छा भी होती है या नहीं? सीता के मन में संतान पाने की इच्छा उठती है, तो वे किसी का अहित तो नहीं चाहतीं। यदि बे चाहती हैं कि राम किसी समय उनसे दूर भी हों, तो उनका प्रतिरूप-उनकी संतान, सीता के निकट हो, तो इस कामना में क्या दोष है...सामाजिक लक्ष्य को सामने रखकर चलने वाले जीवन को यह दंड तो नहीं मिलना चाहिए कि वह इस प्रकार छोटी-छोटी कामनाओं के लिए तड़पता रहे और अतृप्ति का जीवन जिए...संतान के लिए अयोध्या का राजप्रासाद अनिवार्य तो नहीं, चित्रकूट की कुटिया, मुनि शरभंग का आश्रम, धर्मभृत्य का आश्रम, आनन्द सागर का आश्रम, भीखन का गांव सुतीक्ष्ण अथवा अगस्त्य-किसी का भी आश्रम, सीता के बच्चे किसी भी मिट्टी में रेंगकर बड़े हों, वे सीता के ही बच्चे होंगे...राजकीय वेश-भूषा में न सही, तपस्वी वेश में ही सही...बच्चों को देखकर सीता का वात्सल्य संतुष्ट हो जाएगा...।
किंतु, सहसा सीता की आंखों के सामने अगस्त्य का वृद्ध किंतु तेजस्वी चेहरा उभरा...वे राक्षसी अंधकार का वर्णन कर रहे थे। एक साधारण क्रूर व्यक्ति से लेकर, एक साम्राज्य के शासन-तंत्र तक संगठित व्यवस्था-जिसका एकमात्र लक्ष्य निर्बल मानवता का रक्तपान है।...और उस व्यवस्था से लड़ रहे हैं राम! यदि प्रत्येक घर के राम, उस व्यवस्था से नहीं लड़ेंगे, तो वह राक्षसी तंत्र, उनके घर में बैठी प्रत्येक सीता की गोद की संतान को अपने क्रूर हाथों में उठा लेगा और उसके कंठ में अपने दांत गड़ाकर, उसका रक्त पी, उसके शव को भूमि पर फेंक देगा...सीता का मन कांप गया...नहीं! नहीं!! राम को लड़ना होगा।
अपनी अजन्मी संतान के मोह में, सीता जन्म ले चुके असंख्य शिशुओं को राक्षसों के जबड़ों में नहीं धकेल सकतीं।...अपनी छोटी-सी इच्छा भी यदि बाधा के रूप में उभरे तो भयंकर हानि पहुंचा सकती है। चिंतित राम को सीता और अधिक विचलित नहीं करेंगी...।
सहसा लक्ष्मण और मुखर के आने का स्वर सुनकर, वे कुटिया के बाहर निकल आईं। वे दोनों दूर से दो खिलंदरे लड़कों के समान झूमते-झामते आ रहे थे। और आपसी परिहास पर कभी धीमे और कभी उच्च स्वर में हंस रहे थे। अगस्त्य आश्रम में सीता ने इन दोनों का नया ही रूप देखा था। एक लंबे अंतराल के पश्चात्, यहां आकर वे कार्यमुक्त हुए, जैसे कोई काम-काजी और व्यस्त व्यक्ति कुछ दिनों के लिए कहीं छुट्टियां मनाने आ जाए। इस आश्रम के वास-काल में न लक्ष्मण पर कोई दायित्व था, न मुखर पर। दोनों ही प्रातः ही मुक्त पक्षियों के समान किसी भी दिशा में निकल जाते थे और अपनी इच्छानुसार लौटते थे।
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