उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
अगली संध्या जब वे ऋषि के कुटीर में एकत्र हुए, तो वातावरण पर्याप्त व्यावहारिक आयोजन का था। आज लक्ष्मण और मुखर भी राम तथा सीता के साथ थे। अगस्त्य और लोपामुद्रा के साथ प्रभा, उसका पति सिंहनाद तथा आश्रमवाहिनी के दो और सेनानायक भी थे।
बात ऋषि ने ही आरंभ की, "राम, मेरे इस आश्रम के निकट समुद्र में जो अशिमपुरी द्वीप है, उससे कालकेयों के पीछे-पीछे अन्य आततायियों के आने की भी पर्याप्त संभावना थी। उनके कारण इस जनपद के लोगों ने कष्ट भी बहुत सहे हैं। किंतु जब से कालकेयों का नाश हुआ है, तब से यह दिशा सुरक्षित हो गई है। मैं तब से जमकर यहीं बैठा हूं, कि इधर से और कोई आक्रांता प्रवेश न करे। उधर तुमने चित्रकूट से आरंभ कर, अत्रि आश्रम, शरभंग, सुतीक्ष्ण, आनन्द सागर तथा धर्मभृत्य के आश्रमों के बीच का सारा क्षेत्र हर प्रकार से संगठित और शस्त्रबद्ध कर दिया है। केवल एक ही दिशा असुरक्षित है-जनस्थान की दिशा। राक्षस भी समझते हैं, इसलिए वे लोग अपना ध्यान वहीं केन्द्रित कर रहे हैं। उनके सर्वश्रेष्ठ योद्धा वहां हैं, उनके उन्नत और विकसित शस्त्र वहां हैं। और जहां राक्षसों का इतना जमघट होगा, वहां जनसामान्य का पक्ष उतना ही दुर्बल होगा। यदि इस समय राक्षसों को वहीं नहीं रोका गया, तो वह सारा क्षेत्र श्मशान में बदल जाएगा। उनकी सेनाएं तुम्हारे नाकाबंदी किए गए क्षेत्र में घुस आईं, तो सारे किए-धरे पर पानी फिर जाएगा। छोटे-छोटे आश्रम अपनी आश्रमवाहिनियों और ग्रामवाहिनियों से साम्राज्य की सेना का सामना नहीं कर पाएंगे। अतः इस राक्षसी सेना को वहीं रोक रखने के लिए तुम पंचवटी में एक ऐसा सबल व्यूह रचो कि राक्षसी सेना वहीं उलझकर समाप्त हो जाए।"
अपने में डूबे-डूबे राम बड़ी तन्मयता से ऋषि की बात सुन रहे थे। यह कहना कठिन था कि वे आत्मलीन अधिक थे अथवा ऋषि की बात सुनने में अधिक तल्लीन। कदाचित् उनमें दोहरी प्रक्रिया चल रही थी।
"मैं आपकी योजना भली प्रकार समझ रहा हूं, और उससे सहमत भी हूं। मुझे लगता है कि अब पंचवटी से इधर के क्षेत्र में मेरी आवश्यकता नहीं है।" राम का एक-एक शब्द आत्मबल से भरपूर था।
"वह तो ठीक है पुत्र!" ऋषि का स्वर कुछ उदास भी था, "यह बूढ़ा मन तुम्हें वहां भेजना भी नहीं चाहता, भेजने से डरता है।"
"आप और डर?" लक्ष्मण अनायास ही बोल पड़े।
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