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उपन्यास >> संघर्ष की ओर

संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

दो

 

धर्मभृत्य के साथ आए हुए, दो दिन बीत गए थे। लक्ष्मण के निर्देशन में धर्मभृत्य के ही आश्रम में सबके लिए कुटीरों का निर्माण हो गया था। आसपास का सारा क्षेत्र वे लोग घूम-फिरकर देख चुके थे; और देखकर विकट रूप से पीड़ित हुए थे। एक ही प्रश्न बार-बार, प्रत्येक व्यक्ति के मन में और फिर उनके परस्पर-संवादों में गूंजता था-जहां इस प्रकार का असहनीय अत्याचार हो रहा हो; मनुष्य पशु से भी हीन दशा में जाने को बाध्य हो, वहां के ऋषि-मुनि, चिंतक-विचारक तथा बुद्धिजीवी अपनी साधनाओं में लगे हुए, आध्यात्मिक शांति की बात कैसे कर सकते हैं...

"मेरा तो मन इन बुद्धिजीवियों के प्रति वितृष्णा से भर उठा है।" लक्ष्मण ने अपना आक्रोश प्रकट किया।

"क्षण-भर थम जाओ, बंधु!"

मुखर कुछ सुनने की मुद्रा बनाए बैठा रहा, जैसे दूर से आता कोई मंद स्वर सुना हो, जो अब थम गया हो और वह उसके पुनः उठने की प्रतीक्षा कर रहा हो। सहसा उस निस्तब्धता को चीरते हुए स्वर को सबने सुना। मुखर ने स्वर की दिशा में अंगुली उठा दी।

रात के सन्नाटे में वह स्वर भयावना लगता था। सबके कान उसी ओर लग गए। स्वर एक नहीं था, दो थे। पहले वे स्वर धीमे भी थे और अनियमित भी। पहला स्वर पुरुष का था, दूसरा स्त्री का। धीरे-धीरे दोनों स्वर ऊंचा बोलने से, विधिवत् झगड़े में परिणत हो गए थे। दोनों में से दब कोई भी नहीं रहा था और आवेश की मात्रा निरंतर बढ़ती जा रही थी...सहसा तीसरी ध्वनि उभरी : जैसे किसी ने किसी को थप्पड़ मार दिया हो। क्षण-भर के लिए दोनों स्वर बंद हो गए; किंतु अगले ही क्षण कई बच्चों के रुद्ध कंठ से सहसा फूट आया रोने का सम्मिलित स्वर सारे परिवेश में व्याप्त हो गया। तब पुरुष का जोर से डांटने का लड़खड़ाता-सा स्वर गूंजा। बच्चे हठात् चुप हो गए; किंतु तभी रुदन तथा चीत्कार का नारी-स्वर आया, "मार ले दुष्ट! तोड़ दे मेरी हड्डियां। घोंट दे मेरा गला। बच्चे तो वैसे ही भूखे मर रहे हैं। सब समाप्त हो जाएंगे, तो बैठकर मदिरा पीना..."

"पति के विरुद्ध बोलती है। नीच, कुकुरजायी!" वैसा ही लड़खड़ाता पुरुष स्वर आया, "आज मैं भी तुझे चुप कराकर ही रहूंगा। या तू नहीं, या मैं नहीं..." राम और नहीं सुन सके। वे उठ खड़े हुए। सीता ने उनकी ओर प्रश्न-भरी दृष्टि से देखा।

"मुखर और सौमित्र! तुम लोग यहीं ठहरो।" राम बोले, "सीते, मेरे साथ आओ।" वे कुटिया से बाहर निकल गए।

राम के पग तीव्र गति से बढ़ रहे थे। कान पार्श्वसंगीत के समान नियमित और निरंतर चलते झगड़े तथा मारपीट के स्वरों को सुन रहे थे। मस्तिष्क विभिन्न स्थितियों के विषय में सोच रहा था।

वे स्त्री और पुरुष, पति-पत्नी ही हो सकते हैं। किसी अन्य की पत्नी से न तो कोई इस प्रकार झगड़ सकता है ओर न ही उस पर हाथ उठा सकता है। स्त्री की बातों में कुछ ऐसे ही संकेत भी थे...पति-पत्नी के झगड़े में राम कैसे हस्तक्षेप कर सकते हैं?... किंतु वे निष्क्रिय बैठे, स्त्री को पिटते हुए भी कैसे देख सकते हैं?...

राम और सीता आश्रम के फाटक से निकलकर, बस्ती की ओर चल पड़े। राम ने अनुभव किया कि बस्ती और विशेषकर वह कुटिया, आश्रम के भीतर, उनकी अपनी कुटिया से बहुत निकट है। आश्रम के बाड़े के कारण फाटक से निकलने के लिए, कुटिया की विपरीत दिशा में चलकर, उन्हें वापस लौटना पड़ रहा था।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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