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उपन्यास >> संघर्ष की ओर

संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

स्वरों से निर्देशित होते हुए, वे लोग बस्ती के बीचों-बीच आ गए थे। दिन के प्रकाश में देखे हुए बस्ती के मार्ग उनकी सहायता कर रहे थे। कुटिया के पास पहुंचने में उन्हें अधिक देर नहीं लगी।

जिस झोंपड़ी के सामने वे खड़े थे, वह आश्रम के कुटीरों से पर्याप्त भिन्न थी। न तो वह खुली जगह में बना हुआ, हवादार आवास था; और न ही वन के वृक्षों से काटी गई लकड़ी के बल पर कलात्मक ढंग से बनाई हुई कुटिया। ऊंची-नीची शिलाओं में प्रकृति द्वारा बनाई गई खोहों के सहारे उनके आगे ही फूस-पत्तों तथा छोटी-बड़ी, आकार रहित लकड़ियों के आधार पर खड़ा कर दिया गया एक ढांचा, जो न देखने में सुन्दर था और न रहने के लिए सुविधाजनक...

जिस समय राम और सीता के पग झोपड़ी के द्वार पर रुके, भीतर उसी प्रकार धुआंधार लड़ाई चल रही थी। लगता था, इस बीच कई बार पुरुष का हाथ चल चुका था। स्त्री अनेक बार मार खाकर अपना धैर्य खो चुकी थी और अब अपनी सहायता के लिए पड़ोसियों को पुकार रही थी। किंतु, आसपास की किसी भी झोंपड़ी के जीवन पर इस चीत्कार का कोई प्रमाव नहीं पड़ा था। सारे काम दैनिक क्रम के ही समान चल रहे थे। सहायता के लिए लगाई गई स्त्री की गुहार जैसे उनके कानों तक पहुंच ही नहीं रही थी। राम ने आगे बढ़कर, ऊंचे स्वर में पुकारा, "ऐ भाई, झगड़ा बंद कर, तनिक बाहर आओ।"

झगड़े का क्रम टूटा। भीतर स्तब्धता छा गई, जैसे पति-पत्नी दोनों के लिए ही इस प्रकार की पुकार अप्रत्याशित हो। फिर ऐसा लगा, जैसे स्त्री ने बाहर निकलने का प्रयत्न किया हो; किंतु पुरुष की ऊंची, लड़खड़ाती-सी आवाज ने उसे डांट दिया, "बैठी रह यहां कुलटा! देखता हूं तेरा कौन-सा भतार आ गया है।..."

एक पुरुष झोपड़ी के द्वार से बाहर आया। राम और सीता ने देखा : वह बस्ती के अन्य खान-श्रमिकों से तनिक भी भिन्न नहीं था। सांवले रंग को खान की गन्दगी ने और भी काला कर दिया था। मिट्टी और पसीने ने मिलकर, उसकी नंगी-चौड़ी छाती और भुजाओं की मछलियों पर अनेक स्थानों पर गारा-सा लगा दिया था। वस्त्र के नाम पर उसने एक मैला पुराना वस्त्र कटि पर लपेट रखा था। उसकी आंखें, मुद्रा, चाल तथा स्वर सब ही बता रहे थे कि वह मदिरा पीकर धुत था।

"क्या है?" वह अपनी ऐंठती-सी जीभ से बोला, "अपने बाप का घर समझकर चले आए पुकारने।..."

सीता के नयनों से जैसे ज्वाला फूटी। राम के शरीर का सारा रक्त जैसे उनके मस्तिष्क की ओर दौड़ा। जी में आया, ऐसा चांटा लगाएं कि उसका सारा मद उतर जाए। किंतु राम का विवेक जानता था, कि चांटा इस समस्या का समाधान नहीं है। यथासंभव शांत स्वर में बोले, "घर तो मैंने तुम्हारा ही समझा है भाई। पर अपने घर में जो कुछ कर रहे हो, वह न तो अपने घर में करने का कृत्य है न उससे तुम्हारा घर, घर ही रह जाएगा।"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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