उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
उस व्यक्ति ने पहली बार सिर उठाकर राम को देखा, और वैसी ही ऐंठी हुई-सी जीभ से बोला, "क्या घर घर लगा रखी है? यहां साला कहां कोई घर है।" उसकी आंखें सीता की ओर घूमीं। वह एकटक उन्हें देखता रहा। फिर दुष्टतापूर्वक मुस्कराया, "समझा। तुम चाहते हो कि मैं अपनी घरवाली को न पीटूं। इस स्त्री को साथ लाए हो कि इसे पीटूं। चलो तुम्हारी ही मान लेता हूं..."
वह सीता की ओर बढ़ा। किंतु राम ने उसे सीता तक पहुंचने नहीं दिया। बीच में ही उन्होंने अपने दायें पंजे में उसकी गर्दन जकड़ ली और बड़े सधे स्वर में बोले, "यदि तुम मदिरा के प्रभाव में न होते तो यह वाक्य तुम्हें बहुत महंगा पड़ता।"
उस व्यक्ति के बलिष्ठ शरीर ने राम का पंजा झटक देना चाहा किंतु तनिक-से प्रयत्न से ही उसके सोए हुए मस्तिष्क को भी ज्ञात हो गया कि यह कदाचित् उसके लिए संभव नहीं था। उसका शरीर तो मुक्त नहीं हुआ, किंतु जिव्हा मुक्त हो गई, "यही वाक्य क्या, यहां तो सब कुछ महंगा पड़ रहा है। सस्ता क्या है-मेरा रक्त। वह चाहिए, तो वह भी ले लो। या इसी बहाने मेरी पत्नी का अपहरण करने आए हो? अब वह पहले जैसी सुन्दरी तो नहीं रही; पर बुरी अब भी नहीं है। ले जाओ, उसे भी ले जाओ। जहां इतनी स्त्रियां ले गए, वहां इसे भी ले जाओ।..."
राम ने अपनी अंगुलियां ढीली छोड़ दीं, "क्या बक रहे हो? अपनी पत्नी के लिए कोई इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करता है?"
इस बीच उस व्यक्ति की पत्नी भी भीतर से आकर झोंपड़ी के द्वार पर खड़ी हो गई थी। उसने भी एक मैली-कुचैली धोती में अपने शरीर को किसी प्रकार लपेट रखा था; और तीन छोटे-छोटे सहमे से बच्चे उसकी उसी मैली धोती से चिपके हुए, कुछ विचित्र भाव से उस व्यक्ति को देख रहे थे, जो उनके पिता का प्रताड़क बन, उनकी रक्षा कर रहा था ...आसपास की झोंपड़ियों से भी अनेक लोग निकल आए थे और बड़े अनासक्त भाव से खड़े उन लोगों को देख रहे थे।
उस व्यक्ति का नशा कुछ कम हो गया लगता था, किंतु पूर्णतः मुक्त वह अब भी नहीं हो पाया था। उसका विवेक जैसे बार-बार मदिरा से संघर्ष कर रहा था और बार-बार पराजित हो रहा था।
"तुम कौन हो?" वह समझौता-सा करता हुआ बोला, "और मेरे द्वार पर क्या करने आए हो?"
"एक वनवासी हूं।" राम मुस्कराए, "तुम्हारे द्वार पर, तुमसे झगड़ा करने नहीं आया था।"
"तो फिर क्या करने आए थे?" वह खिंचे-से स्वर में बोला।
"केवल इतना कहने आया था, कि तुम्हारी पत्नी जहां आत्मरक्षा में समर्थ न हो, वहां उसकी रक्षा तुम्हारा धर्म है। और तुम उल्टे उसे पीट रहे हो।"
"वह मेरी पत्नी है न।" वह बोला, "तो उसके साथ कब क्या व्यवहार करना है-यह निर्णय मैं करूंगा। मेरे घरेलू मामलों में हस्तक्षेप करने वाले तुम कौन हो?" उसका स्वर सहसा ऊंचा हो गया, "तुम हमारी खान के स्वामी हो या उनके संबंधी कोई अग्निवंशी हो कि हमें अपना पशुधन मानकर अपनी टांग अड़ाने यहां आए हो; या तुम किसी और जाति के राक्षस हो और मेरी पत्नी पर दृष्टि लगाए बैठे हो?"
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