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उपन्यास >> संघर्ष की ओर

संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

राम का स्वर और भी शांत और स्निग्ध हो उठा, "मुझे गलत मत समझो मित्र! मैं इनमें से कुछ भी नही हूं। तुम पर मेरा कोई अधिकार है तो केवल मानवीय अधिकार है। एक मित्र के नाते मैं तो तुम्हें यह समझाने आया था कि दुर्बल पर अत्याचार मत करो और सबल का अत्याचार मत सहो...।"

उसके चेहरे पर विद्रूप की हंसी फैल गई, "ओह! तुम मांडकर्णि हो।"

"नहीं! मैं राम हूं। मांडकर्णि कौन है?"

"नहीं, तुम स्वयं को नहीं जानते। तुम मांडकर्णि हो।"

उसकी आंखों में फिर से मदिरा लहरा उठी; उसके स्वर में आवेश नहीं परिहास था, "तुम मांडकर्णि हो। तुम अपना प्रासाद बनाने आए हो। तुम मुझसे, मेरी पत्नी की रक्षा करने नहीं आए; तुम अपने लिए अप्सराएं प्राप्त करने आए हो।" वह राम के निकट आ गया। उनकी नाक के पास अपनी तर्जनी नचाता हुआ बोला, "मैं अपनी पत्नी को पीटूं या न पीटूं, पर इस बार मैं तुम्हें अपना बेटा नहीं दूंगा। तुम मेरे बेटे की बलि देकर अपने लिए अप्सराएं प्राप्त नहीं कर सकते। तुम किसी भी वेश में आओ, मैं तुम्हें पहचान लूंगा। तुम सब राक्षस हो-सारे खान स्वामी, सारा अग्निवंश सारे मांडकर्णि। तुम भी।" और सहसा वह पूरे आवेश के साथ चीखा, "जाओ। चले जाओ। और सावधान! फिर कभी मेरे द्वार पर मत आना, नहीं तो सिवाय पश्चाताप के और कुछ हाथ नहीं लगेगा। अनिन्द्य बहुत पीड़ित और बहुत हीन होकर भी अभी जीवित है और पर्याप्त शक्तिशाली है।..."

वह अपनी झोपड़ी की ओर मुड़ा और द्वार पर खड़ी अपनी पत्नी और बच्चों को धकियाता हुआ, चुपचाप भीतर चला गया। बाहर एक असाधारण मौन छा गया। बस्ती वालों की भीड़ वहां अब भी थी; किंतु सब चुपचाप खड़े अनकही उत्सुकता से देख रहे थे कि अब क्या होगा।

सीता द्वार पर खड़ी उस स्त्री के निकट पहुंचीं। उसके कंधे पर अपना हाथ रख, धीमे किंतु आत्मीय स्वर में बोली, "बहन! हम तुम्हारी सहायता के लिए आए थे। तुम्हारे पति से झगड़ा करना हमारा मंतव्य नहीं था। पता नहीं, उन्होंने हमें क्या समझा है? वे मेरे पति को मांडकर्णि कह रहे हैं।" वे मुस्कराईं; "मेरा नाम सीता है। मैं राम की पत्नी हूं।

किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता होने पर तुम मुनि धर्मभृत्य के आश्रम में हमसे मिल सकती हो।"

सीता ने मां से चिपके हुए, भीत बच्चों के सिर पर प्यार-भरा हाथ फेरा और राम के पास लौट आईं। स्त्री कुछ नहीं बोली। केवल फटी-फटी आंखों से सीता को देखती रही। सीता समझ नहीं पाईं कि उस स्त्री ने उनकी बात कितनी सुनी और कितनी समझी।

राम आसपास खड़े लोगों की ओर मुड़े, "हम जाएं? अब झगड़ा तो नहीं होगा?" भीड़ में से कोई कुछ नहीं बोला।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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