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संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

"क्या बात है, आप लोग बोलते क्यों नहीं?" राम पुनः बोले, "आपके सामने एक पुरुष एक स्त्री को पीट रहा था और आपमें से किसी ने भी बीच-बचाव नहीं किया। अब मैं आपसे आश्वासन मांग रहा हूं-तब भी आप चुप हैं..."

भीड़ के लोग, इधर-उधर छितराने लगे। बोला फिर भी कोई नहीं।...थोड़ी देर में वहां कोई भी नहीं था, केवल वह स्त्री अपनी झोंपड़ी के द्वार पर अपने बच्चों को अपने शरीर से चिपकाए हुए, अब भी फटी-फटी आंखों से उनको देख रही थी। सीता फिर उसके पास चली गईं, "हम जाएं बहन, अब कोई भय तो नहीं है?"

उत्तर में झोंपड़ी के भीतर से दहाड़ता हुआ स्वर आया, "जाओ भी। नहीं मारूंगा। बहुत भय है, तो इसे भी साथ ले जाओ।"

स्त्री की आंखों का भाव कुछ बदला। चेहरे की तनी हुई रेखाएं कुछ ढीली पड़ीं। उसने सिर हिलाकर सहमति दे दी।

राम और सीता लौटकर आए, तो सब लोग उत्सुकतापूर्वक उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। राम ने उन्हें संक्षेप में घटना के विषय में बता दिया।

"यह मांडकर्णि कौन है?" सीता ने पूछा, "उसने बार-वार राम को मांडकर्णि कहा है।"

"मांडकर्णि एक ऋषि है। इस क्षेत्र का महान् ऋषि।" धर्मभृत्य हंसा। राम प्रश्न-भरी दृष्टि से धर्मभृत्य को देखते रहे।

धर्मभृत्य कुछ देर मौन रहा, जैसे सोच रहा हो कि बात कहां से आरंभ करे। मन में कुछ रूप-रेखा निश्चित कर उसने बात आरंभ की, "यहां से थोड़ी-सी दूरी के पश्चात् ही खानों का क्षेत्र आरंभ हो जाता है। हां अनेक खानें हैं और उनके स्वामी, अनेक जातियों के अनेक लोग हैं। मैं नहीं जानता कि उन्हें किसने उन खानों का स्वामी बनाया है; किंतु स्वामी बनकर वे धनाढ्य हो गए हैं। उन्हीं में से एक खान अग्निवंश के कुलवृद्ध अग्निमित्र की भी है। कुछ समय पूर्व, मांडकर्णि उस खान में काम करने वाले श्रमिकों के मध्य शिक्षा-कार्य करने के लिए आए थे।...बात यहीं से आरंभ होती है।"

धर्मभृत्य ने दृष्टि उठाकर अपने श्रोताओं को देखा। "आरंभ तो होती है, पर आगे भी चलती है या नहीं?" लक्ष्मण ने पूछा।

"इतने वर्षों में सौमित्र की कथा-संबंधी उत्सुकता तनिक भी कम नहीं हुई।" राम हंसे, "गुरु विश्वामित्र कथा स्थगित करते थे तो सौमित्र ऐसे ही खीझ उठते थे।"

"चलती कथा के रुकने से मेरा दम घुटने लगता है।" लक्ष्मण बोले, "और मुनि धर्मभृत्य श्रोताओं के धैर्य की परीक्षा भी खूब लेते हैं।"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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