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उपन्यास >> संघर्ष की ओर

संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

"मैं नहीं चाहूंगा कि किसी का दम अधिक समय तक घुटे," धर्मभृत्य ने बात फिर आरंभ की, "मांडकर्णि ने इन श्रमिकों के जीवन को प्रत्यक्ष तथा अत्यन्त निकट से देखा। श्रमिकों में वानर, ऋक्ष, निषाद, शबर तथा अनेक जातियों के लोग थे। पुरुष, स्त्रियां, बालक, वृद्ध-यहां तक कि रोगी भी अपनी आजीविका के लिए खानों में काम करने को बाध्य थे। वे दासों के समान काम करते थे और बंदियों के समान बस्ती में रखे जाते थे। मांडकर्णि उनकी अवस्था देखकर द्रवित हो उठे। उन्होंने अपना आश्रम त्याग, श्रमिकों की बस्ती में रहना आरंभ कर दिया। उन्हें देखकर अत्यन्त पीड़ा हुई कि इस अत्याचार का विरोध तो श्रमिकों के मन में नहीं ही था, वे लोग अत्याचार के प्रति सजग भी नहीं थे। मांडकर्णि ने उन्हें समझाया कि उनके साथ अत्याचार हो रहा है, उनसे उनकी क्षमता से अधिक काम लिया जा रहा है। काम करने के स्थान पर सुरक्षा का प्रबंध नहीं है इसी कारण से खान-दुर्घटनाओं की संख्या बहुत अधिक है। कम वय के बालकों, दुर्बल स्त्रियों, क्षीण वृद्धों तथा रोगियों से भी ऐसा कठिन काम लिया जाता है, जो उनके स्वास्थ्य और जीवन, दोनों के लिए घातक है। उन्होंने खान-कर्मकरों को यह भी बताया कि न केवल अधिक सुविधाजनक कार्य परिस्थितियों, अधिक पारिश्रमिक, वरन् उनके द्वारा उत्पादित खनिज पदार्थ पर भी उनका अधिकार है-अग्निवंश से भी अधिक।

...आरंभ में किसी ने मांडकर्णि की बात पर विशेष ध्यान नहीं दिया; किंतु एक दिन भयंकर दुर्घटना घटी। खान के स्वामियों के हाथ कोई नया बाजार आ गया। विक्रय की संभावनाएं अधिक बढ़ जाने के कारण, उन्हें अधिक खनिज पदार्थ की आवश्यकता पड़ी। उन लोगों ने सैकड़ों कर्मकर खान में उतार दिए। दुगुनी गति से खुदाई आरंभ करवा दी। मांडकर्णि ने चेतावनी दी कि खान बहुत गहरी खोदी जा चुकी है, अब यदि इसी प्रकार योजना-विहीन खुदाई चलती रही तो खान की दीवार धसक जाएगी और धरती भीतर धंस जाएगी। ऐसी स्थिति में खान के भीतर उतारा गया एक भी कर्मकर जीवित नहीं बचेगा।

"स्वामियों ने स्वभावानुसार, मांडकर्णि की बात नहीं सुनी। कर्मकरों को एक तो इतनी समझ नहीं थी कि मांडकर्णि की चेतावनी के सत्यासत्य का निर्णय कर सकते। दूसरे साहस भी नहीं था कि स्वामियों का विरोध करते। वे लोग अपने काम पर चले गए। दुगुनी गति से खुदाई होती रही और मांडकर्णि दुगुनी गति से चिल्लाता रहा।

"सहसा मांडकर्णि की बात सत्य प्रमाणित हो गई। खुदाई के कारण क्रमशः क्षीण होती हुई दीवार गिर पड़ी। धरती हिली और मिट्टी के पहाड़ के-पहाड़ खान में धंस गए।...बस्ती में सूचना पहुंची तो प्रत्येक व्यक्ति खान की ओर दौड़ पड़ा। कोई घर ऐसा नहीं था, जिसका कोई-न-कोई सदस्य उस समय खान में न रहा हो। सबने मिलकर खुदाई आरंभ की; किंतु थोड़ी-सी खुदाई से स्पष्ट हो गया कि कितनी ही तेजी से खुदाई क्यों न हो, उस मिट्टी को हटाने में कई सप्ताह लग जाएंगे। संभव है, मास लग जाएं। और तब तक मिट्टी में दबा हुआ, एक भी व्यक्ति जीवित नहीं बचेगा...खुदाई का प्रयत्न क्रमशः छोड़ दिया गया, और खान में उतरे हुए सैकड़ों कर्मकर जीवित समाधि पा गए। उनमें से एक भी जीवित बचकर नहीं लौटा।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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