उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
राम चौंके, "तुम्हारा विचार है कि देवराज से निराश होकर ऋषि ने आत्मदाह किया था?"
"मैं तो यही समझता हूं।" अनिन्द्य पूर्ण आत्मविश्वास के साथ बोला, "इंद्र ने पहले ऋषि को पंचासर जैसे भवन तथा अप्सराओं का लोभ दिया होगा। ऋषि मान जाते तो आज वे भी किसी प्रासाद में बैठे मदिरा पी रहे होते और नुपुरों की झंकार सुन रहे होते। नहीं माने, तो इंद्र ने धमकाया होगा। ऋषि में कुछ स्वाभिमान था, इसलिए यह सोचकर आत्मदाह कर लिया होगा कि हमें क्या मुख दिखाएंगे...।"
राम की स्मृति में ज्ञानश्रेष्ठ द्वारा बताए गए ऋषि के शब्द गूंजने लगे, 'रावण बुद्धिजीवियों को खा जाता है, इंद्र उन्हें खरीद लेता है...'
राम और अनिन्द्य दोनों ही चुप थे, जैसे कुछ सोच रहे हों। '
'बच्चे किसके पास छोड़ आई हो, सुधा?" सीता ने मौन तोड़ा।
"घर पर ही हैं।" सुधा धीरे से बोली, "किसके पास छोड़ती?"
"अकेले?"
"अकेले क्यों? बड़ा, छोटे दोनों के साथ है। सबसे बड़ा अब रहा नहीं।" उसकी आंखें डबडबा आईं।
"अच्छा आर्य।" अनिन्द्य सहसा उठ खड़ा हुआ, "मैं तो केवल आपसे क्षमा मांगने आया था। इतनी बातें करने का विचार नहीं था।"
"कोई जल्दी है क्या?" राम ने पूछा, तुमसे बहुत कुछ नया मालूम हुआ है। रुकते तो और बातें होतीं।"
"मैं फिर आ जाऊंगा।" अनिन्द्य पहली बार मुस्कराया, "अभी तो मुझे काम पर जाना है। यह न हो कि स्वामियों को मेरा काम छुड़वाने का एक बहाना मिल जाए।"
"ऐसी बात है तो जाओ।" राम भी मुस्कराए, "फिर आना।"
"तुम भी आना सुधा।" सीता बोली, "बच्चों को भी लाना।"
"अच्छा दीदी।"
अनिन्द्य और सुधा चले गए तो राम और सीता, दोनों अपनी-अपनी सोच में चुपचाप बैठे रहे। एक दुर्बल आदमी को दीन-हीन, थक-हारा देखना भी कष्टदायक होता है-राम सोच रहे थे-किंतु एक समर्थ पुरुष, अपने भीतर से टूटकर हताश हो जाए, उसकी पीड़ा और गहरी होती है। एक भयभीत खरहे को देखना करुणाजनक होता है, किंतु एक सिंह की आंखों में भय को जमा हुआ देखना अधिक सकरुण है। अनिन्द्य की आंखें उन्हें भीत सिंह की आये ही लगी थीं। वे अनिन्द्य की अदम्य जिजीविषा को स्पष्ट देख रहे थे; तनिक-सी आशा देखते ही, वह संघर्ष के लिए उठ खड़ा होगा। किंतु इस समय तो उसकीं आत्मा जैसे तड़प-तड़पकर मृत्यु की ओर बढ़ने का स्पष्ट अभिनय कर रही है।
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