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उपन्यास >> संघर्ष की ओर

संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

सीता की आंखों के सामने से सुधा का चित्र नहीं हटता था-स्थान-स्थान से फटी हुई एक गंदी धोती में लिपटी हुई स्त्री, जिसके शरीर से भय से काले-पीले पड़े हुए तीन नंग-धडंग बच्चे चिपके हुए थे। क्या होगा इन बच्चों का और उनके माता-पिता का? एक ओर बच्चे राजप्रासादों और सामंतों की हवेलियों में पलते हैं, और दूसरी और ये बच्चे...यदि खेत में पड़ी, रोती हुई एक बच्ची को राजा जनक ने उठाकर अपनी संतान के समान न पाला होता, तो कदाचित् सीता की स्थिति आज सुधा से भी गई-बीती होती। तब वे ही या तो किसी धनी की कामुकता की पीड़ा झेल रही होतीं या किसी श्रमिक की झुग्गी में इसी प्रकार अपने नंग-धडंग बच्चों को अपने शरीर से चिपकाए, चिंता और भय की दृष्टि से शून्य को घूर रही होती...

सीता के शरीर में सिहरन दौड़ गई...।

दूर से लक्ष्मण, मुखर तथा धर्मभृत्य सकी बात-चीत का स्वर आया। वे लोग नहा-धोकर लौट रहे थे और बात-चीत की ध्वनि से बहुत प्रसन्न लग रहे थे। "क्या बात है भैया।" निकट आते ही लक्ष्मण बोले, "आप दोनों प्रणय-मान का अभिनय क्यों कर रहे हैं?"

'प्रामाणिक अनुभूति न हो तो शास्त्र-ज्ञान इसी प्रकार मानसिक विलास बनकर कुंठित होता रहता है देवर।" सीता अपने सहज भाव में लौट आई थीं, "काव्यशास्त्र को कुंठित करने के लिए अनेक निठल्ले बैठे हैं। तुम अपना काम किए चलो।"

"चलो, भाभी का तेज तो जागा।" लक्ष्मण हंसे, "नहीं तो विषाद की मूर्ति बनी बैठी थीं। कभी मैं यह भी सोचता हूं भाभी...।"

"क्या सोचते हो?"

"छोड़िए। आप बुरा मान जाएंगी।"

"हां यही कहोगे। ढंग की बात सूझ नहीं रही होगी।"

"नहीं। बात तो बड़े ढंग की है।" लक्ष्मण बोले, "सोचता हूं, चुनौती के रूप में, मैं सामने न होता तो आपका प्रत्युत्पन्नमतित्व भी कुंठित रहता।"

"दूसरों के गुणों का श्रेय भी स्वयं ले लेना, कोई तुमसे सीखे।" सीता बोलीं।

"आप कुछ चिंतित लग रहे हैं भद्र राम'।" धर्मभृत्य ने परिहास श्रृंखला में विघ्न उपस्थित किया।

"देवर-भाभी का मति-शोधक व्यायाम समाप्त हो, तो मैं भी अपनी चिंता कहूं।" राम मुस्कराए, "अनिन्द्य और सुधा कल की घटना के लिए क्षमा मांगने आए थे।"

"तो इसमें चिंतित होने की क्या बात है?" धर्मभृत्य भी मुस्कराया, "किसी की क्षमा-याचना तो चिंतनीय नहीं है।"

"नहीं! चिंतनीय उनकी दशा है।" राम बोले, "उनका कष्ट देखा नहीं जाता।"

"तो क्या करना चाहते हैं?" धर्मभृत्य की रुचि जाग गई। "सबसे पहले तो उनमें मानव-चेतना जगानी होगी। ये मनुष्य होकर भी पशुओं के समान जी रहे हैं।"

"आप जानते हैं कि ऐसी किसी भी बात से वे आपको मांडकर्णि के तुल्य मानकर आपसे दर भागेंगे।" धर्मभृत्य बोला।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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